श्रीकृष्ण द्वैपायन भगवान व्यास मुनि विरचित अठारह पुराणों में श्रीमद्भागवत महापुराण का सर्वश्रेष्ठ विशिष्ट स्थान है। इसमें सृष्टि सृजन एवं उसके विकास से लेकर भगवान के विभिन्न अवतारों, सूर्यवंशी एवं चन्द्रवंशी नरपतियों की वंश परम्परा एवं उनके चरित्रों का विशद वर्णन किया गया है। इसके साथ ही ज्ञान, भक्ति, योग, धर्म-अधर्म, जीव, माया, ब्रह्म आदि से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों पर भी युक्तियुक्त प्रकाश डाला गया है। सनातन धर्म की भक्ति परम्परा में श्रीमद्भागवत महापुराण को भगवान कृष्ण का वाङ्गमय स्वरूप कहा गया है। इसके सप्ताह श्रवण कीर्तन की महिमा चिरकाल से चली आ रही है। वर्तमान युग में भी कथावाचक विद्वानों द्वारा यज्ञ, अनुष्ठान एवं उत्सवों के माध्यम से इसका प्रचार एवं प्रसार निरन्तर हो रहा है। श्रद्धालुओं का विश्वास है कि इसके सप्ताह-श्रवणमात्र से मनुष्य को मुक्ति मिल जाती है। इस प्रकार इस पुराण को भागवत धर्म का प्राण कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
प्रस्तुत ग्रंथ में मैंने श्रीमद्भागवत महापुराण को सामान्य भगवत प्रेमियों के अधिक समीप लाने का प्रयास किया है। अतः जनसाधारण की ही भाषा में इसका समग्र स्वरूप निरूपित करने का प्रयत्न किया है। सम्पूर्ण पुराण को आठ सर्गों में विभाजित किया है। प्रथम सर्ग के सात अध्यायों में श्री सूतजी एवं शौनकादि मुनियों के सम्वाद से लेकर नवम् स्कन्ध तक की सारी कथाओं का संक्षिप्त वर्णन है। दशम् स्कंध के नब्बे अध्यायों को छः सर्गों में विभाजित करके भगवान श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनकी समस्त अलौकिक मधुर लीलाओं का यथातथ्य अनुवादित निरूपण है। अष्टम् सर्ग के तीन अध्यायों में यदुवंश के संहार एवं भगवान श्रीकृष्ण के परमधाम गमन को दर्शाया गया है। घटना क्रम में काल-व्यतिक्रम को देखते हुए दशम स्कंध के 82, 83 और 84 अध्याय को 64, 65 और 66 अध्याय कर दिया गया है।
इस कृति में भगवान श्रीकृष्ण को महानायक मानकर उनकी लीलाओं को केन्द्रित करके अन्य कथाओं का सारभूत निरूपण हुआ है। इसमें मेरी कोई मौलिकता नहीं है और न ही छन्द-प्रबंध रस अलंकार आदि का विशेष समावेश।
अपनी अल्प मति एवं प्रचलित अवधी भाषा के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण को लीलाओं का साधारण जनसमुदाय हेतु यह दुःसाहस किया है।
प्रस्तुत रचना के आविर्भाव का श्रेय श्रीमद्भागवत महापुराण कथा-वाचक तत्ववित स्वामी अनंताचार्य श्री महाराज, संतसेवा आश्रम, चित्रकूट धाम को जाता है जिनकी प्रेरणा एवं प्रोत्साहन से मुझे इस कठिन कार्य में सम्बल प्राप्त हुआ है। मैं उनका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ। साथ ही में श्रद्धेय स्वामी अक्षयानन्द जी महाराज का भी आभारी हूँ जिन्होंने अपने अमूल्य सुझाओं से मुझे कृतार्थ किया है। मुझे पूर्ण आशा है कि, "विगत प्रपञ्च प्रतिष्ठ धी, आप्तकाम विद्वान । श्री हरि लीला अमिय रस, करिहिं श्रवण पुट पान।।"
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