| Specifications |
| Publisher: Shri All India Swetamber Sthanakwasi Jain Conference, Delhi | |
| Author Edited By Acharya Shivmuni | |
| Language: PRAKRIT TEXT WITH HINDI TRANSLATION | |
| Pages: 1024 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 10.00x7.5 inch | |
| Weight 2.04 kg | |
| Edition: 2004 | |
| HBM716 |
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भारत के लब्धप्रतिष्ठ जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों ही प्राचीन धर्मों का समानरूप से यह सुनिश्चित सिद्धान्त है कि मानव जीवन का अन्तिम साध्य उस के आध्यात्मिक विकास की परिपूर्णता और उस से प्राप्त होने वाला प्रतिभाप्रकर्षजन्य पूर्णबोध अथच स्वरूपप्रतिष्ठा अर्थात् परमकैवल्य या मोक्ष है, उस के प्राप्त करने में उक्त तीनों धमों में जितने भी उपाय बताये गए हैं, उन सब का अन्तिम लक्ष्य आत्मसम्बद्ध समस्त कर्माणुओं का क्षीण करना है। आत्मसम्बद्ध समस्त कर्मों के नाश का नाम ही 'मोक्ष है। दूसरे शब्दों में आत्मप्रदेशों के साथ 'कर्मपुद्गलों का जो सम्बन्ध है, उससे सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। सम्पूर्ण कर्मों के क्षय का अर्थ है-पूर्ववद्ध कर्मों का विच्छेद और नवीन कर्मों के बन्ध का अभाव। तात्पर्य यह है कि एक बार बांधा हुआ कर्म कभी न कभी तो क्षीण होता ही है, परन्तु कर्म के क्षयकाल तक अन्य कर्मों का बन्ध भी होता रहता है, अर्थात् एक कर्म के क्षय होने के समय अन्य कर्म का बन्ध होना भी सम्भव अथच शास्त्रसम्मत है। इसलिए सम्पूर्ण कर्मों अर्थात् बद्ध और बांधे जाने वाले समस्त कर्मों का आत्यन्तिक क्षय, आत्मा से सर्वथा पृथक् हो जाना ही मोक्ष है। यद्यपि बौद्ध और वैदिक साहित्य में भी कर्मसम्बन्धी विचार है तथापि वह इतना अल्प है कि उसका कोई विशिष्ट स्वतन्त्र ग्रन्थ उस साहित्य में उपलब्ध नहीं होता। इस के विपरीत जैनदर्शन में कर्मसम्बन्धी विचार नितांत सूक्ष्म, व्यवस्थित और अति विस्तृत हैं। उन विचारों का प्रतिपादकशास्त्र कर्मशास्त्र कहलाता है। उस ने जैन साहित्य के बहुत बड़े भाग को रोक रखा है, यदि कर्मशास्त्र को जैन साहित्य का हृदय कह दिया जाए तो उचित ही होगा।
कर्मशब्द की अर्थविचारणा कर्म शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-क्रियते इतिकर्म-अर्थात् जो किया जाए वह कर्म कहलाता है। कर्म शब्द के लोक और शास्त्र में अनेक अर्थ उपलब्ध होते हैं। लौकिक व्यवहार या काम धन्धे के अर्थ में कर्म शब्द का व्यवहार होता है, तथा खाना-पीना, चलना, फिरना आदि क्रिया का भी कर्म के नाम से व्यवहार किया जाता है, इसी प्रकार कर्मकांडी मीमांसक याग आदि क्रियाकलाप के अर्थ में, स्मार्त विद्वान् ब्राह्मण आदि चारों वर्णों तथा ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रमों के लिए नियत किए गए कर्मरूप अर्थ में, पौराणिक लोग व्रत नियमादि धार्मिक क्रियाओं के अर्थ में, व्याकरण के निर्माता-कर्ता जिस को अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता हो अर्थात् जिस पर कर्ता के व्यापार का फल गिरता हो-उस अर्थ में, और नैयायिक लोग 'उत्क्षेपणादि पांच सांकेतिक कर्मों में कर्म शब्द का व्यवहार करते हैं और गणितज्ञ लोग योग और गुणन आदि में भी कर्म शब्द का प्रयोग करते हैं परन्तु जैन दर्शन में इन सब अर्थों के अतिरिक्त एक पारिभाषिक अर्थ में उस का व्यवहार किया गया है, उस का पारिभाषिक अर्थ पूर्वोक्त सभी अर्थों से भिन्न अथच विलक्षण है। उस के मत में कर्म यह नैयायिकों या वैशेषिकों की भान्ति क्रियारूप नहीं किन्तु पौद्गलिक अर्थात् द्रव्यरूप है। वह आत्मा के साथ प्रवाहरूप से अनादि सम्बन्ध रखने वाला अजीव-जड़ द्रव्य है। जैन-सिद्धान्त के अनुसार कर्म के भावकर्म और द्रव्यकर्म ऐसे दो प्रकार हैं। इन की व्याख्या निम्नोक्त है-
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