'श्रीकृतार्थकौशिकम्' नामक नाटक के रचयिता विद्वद्वर पं० श्रीकृष्ण जोशी जी से मेरा परिचय सर्व प्रथम मई या जून १९५६ ई० में हुआ था। उन दिनों वे नैनीताल में अपने चीनाखान स्थित भवन में रह रहे थे और वहीं उनका विशाल पुस्तकालय भी था, जिसमें उन्होंने अनेक प्रकाशित और अप्रकाशित (प्राचीन हस्तलिखित) ग्रन्थ सङ्गृहीत कर रखे थे। नैनीताल उन दिनों उत्तर प्रदेश की ग्रीष्म राजधानी था। मैं उन्हीं दिनों यहां की हिन्दी-शब्द-कोरा समिति का सचिव था और ग्रीष्मारम्भ होते ही प्रादेशिक सचिवालय के अनेक अन्य विभागीय कार्यालयों के साथ मैं भी अपने कार्यालय को लेकर वहां चला जाया करता था । प्रतिवर्ष गमियों में मेरे नैनीताल रहते अखिल भारतीय संस्कृत-परिषद्, लखनऊ की ओर से कम से कम एक साहित्य गोष्ठी, जो उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्य मन्त्री और परिषद् के संस्थापक प्रवर डा० सम्पूर्णानन्द जी के नैनीताल स्थित निवास स्थान पर ही हुआ करती थी, वहां अवश्य हो जाती थी और उसके आयोजन का पूरा भार मेरे ही ऊपर रहता था। पं श्रीकृष्ण जोशी जी से मेरा परिचय, जो धीरे धीरे घनिष्ठता में परिणत हो गया, इसी सिलसिले में हुआ था। पारस्परिक परिचयानन्तर मैं उन्हें बराबर परिषद् की बात बतलाया करता था और इससे वे परिवद् से भी पूर्णतया परिचिन हो गये थे और उसके कार्यकलाप से प्रभावित भी थे।
जोशी जी संस्कृत के उत्कृष्ट कवि और नाटककार तथा भारतीय और पाश्चात्य दर्शनों के अच्छे ज्ञाता थे। इसके साथ ही वे उद्भट लेखक भी थे। उन्होंने २० से ऊपर ग्रन्थ लिखे थे, जिनमें से अनेक महाकाव्य और नाटक भी थे, किन्तु प्रकाशित इनमें से तीन-चार रचनाएं ही हो पायी थीं। शेष के प्रकाशन के विषय में वे काफी चिन्तित रहते थे । १९५८ में उन्होंने अपनी समस्त अप्रकाशित रचनाएं परिषद् को दान कर दीं और दान करते समय कहा कि यदि परिषद इनमें से एक-दो को भी प्रकाशित कर सकेगी तो मुझे प्रसन्नता होगी। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मैं चाहता हूं कि मेरी किसी भी कृति में कोई कलम न लगाये, शुद्ध अशुद्ध जो जैसी भी हो वह वैसी ही छाप दी जाय। मैंने इस बात को स्वीकार तो नहीं किया; किन्तु स्पष्ट शब्दों में उमका प्रत्याख्यान करने के लिए साहस भी नहीं बटोर सका। वे जीवित रहते तो हम उनकी बात शायद न भी मानते; किन्तु अब जब वे दिवंगत हो चुके हैं तब परिषद् ने यही उचित समझा कि कम से कम उनकी कृतियों के इस प्रथम प्रकाशन में उनकी बात मान ही ली जाय। यही कारण है कि प्रस्तुत पुस्तक असम्पादित ही प्रकाशित की जा रही है, और समस्त अशुद्धियां, जो बहुत नहीं हैं, ज्यों की त्यों छोड़ दी गयी है। आशा है पाठक इसके लिए हमें क्षमा करेंगे ।
परिषद् के 'सुधाभोजनम्' नामक अभिनव प्रकाकन-सम्बन्धी अपने वक्तव्य में हमने कहा था कि 'संस्कृत ग्रन्थों के प्रकाशन की दिशा में अखिल भारतीय संस्कृत-परिषद्, लखनऊ का ध्यान इसके पूर्व केवल प्राचीन ग्रन्थों, उनके अनुबादों और उनपर लिखी गयी टीकाओं आदि की ही ओर था, यद्यपि इधर बहुत दिनों से वह इस प्रयत्न में भी थी कि रचनात्मक या सर्जनात्मक नूतन साहित्य के प्रकाशन की ओर भी कुछ अग्रसर हुआ जाय। उस दिशा में प्रस्तुत पुस्तिका का प्रकाशन परिषद् का प्रथम प्रयास है।' इस 'कृतार्थकौशिकम्' नाटक को प्रकाशित करते हुए हमें दोहरी प्रसन्नता हो रही है- एक तो, इसलिए कि इसके द्वारा हम रचनात्मक या सर्जनात्मक नूतन साहित्य के प्रकाशन की दिशा में कुछ और आगे बढ़ सके हैं और दूसरे, इसलिए भी कि जिस आशा से दिवंगत जोशी जी ने हमें अपनी समस्त अप्रकाशित कृतियां सौंप दी थी उसकी, इतने दिनों बाद ही सही, आंशिक पूति हो रही है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के अर्वाचीन महिला कालेज (माडर्न कालेज फार वीमेन) की संस्कृत-प्राध्यापिका डा० (श्रीमती) उषा सत्यव्रत द्वारा लिखी गयी भूमिका ने इस प्रकाशन की उपादेयता और सौष्ठव को और भी बढ़ा दिया है। इसके लिए परिषद हृदय से उनकी कृतज्ञ है।
नाटककार का जीवन-वृत्तान्त
विद्याभूषण पण्डित श्रीकृष्ण जोशी जी इस शतक के संस्कृत के उच्चकोटि के साहित्य-कार थे। इनका जन्म १८८२ ईस्वी सन् में हुआ था और देहावसान ८ जून १९६५ को। यह अल्मोड़ा निवासी पण्डित बद्रीनाथ जी के सुपुत्र थे। इनके कुल में अनेक यशस्वी विद्वान् तथा कवि हुए हैं। अतः संस्कृत और संस्कृति उन्हें अपने पूर्व पुरुषों से ही उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त हुई थी। इन्होंने प्रयाग के म्यूअर सेण्ट्रल कालेज से बी० ए० तथा एल-एल० बी० की उपाधियां प्राप्त की थीं। यह कुशाग्र बुद्धि थे। अतः अध्ययनकाल में यह सर्वदा प्रथम स्थान पाते रहे। इन्होंने अपनी विशेष उपलब्धियों के लिए अनेक स्वर्णपदक प्राप्त किए थे। यह कुमाऊ के प्रमुख वकीलों में थे।
ब्रिटिश शासन काल में जोशी जी ने बंगभंग आन्दोलन में सक्रिय भाग लिया था। परन्तु महामना मदनमोहन मालवीय जी के आग्रह पर यह वकालत तथा राजनीति का त्याग करके काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य करने लगे।
श्री जोशी जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। यह लब्धप्रतिष्ठ कवि, सुविख्यात ज्योतिषी तथा प्राच्य और पाश्चात्य साहित्य, दर्शन, व्याकरण, वेद वेदाङ्गों के प्रकाण्ड पण्डित थे। यह अत्यन्त विनम्र, सरल हृदय, उदार और विनोदप्रिय थे। यह विद्याव्यसनी थे। वृद्धावस्था में भी यह साहित्य-साधना में सतत तल्लीन रहे। इन्होंने अनेक नाटक, काव्य, धार्मिक स्तोता तथा अन्य ग्रन्थ लिखे हैं। इनके ग्रन्वों में 'रामरसायनमहाकाव्यम्', 'स्वमन्तकम् महाकाव्यम्' 'अखण्ड-भारतम्', 'परशुरामचरितम् नाटकम्,' 'काव्यमीमांसाशास्वाम्,' 'सत्यसाविलं नाटकम्,' 'सर्वदर्शन-मञ्जूषा, "अई तवेदान्तदर्शनम्' आदि उल्लेखनीय हैं। इनके 'गङ्गामहिम्न', 'राममहिम्न,' अन्तर-ङ्गमीमांसा' नामक ग्रन्थ इनके जीवनकाल में ही प्रकाशित हो गये थे। इनमें से 'अन्तरङ्गमी-मांसा' नामक ग्रन्थ के प्रकाशनार्थ उत्तर प्रदेश शासन ने १५००) रूपये की सहायता भी कीथी; तथापि इनकी बहुत सी श्लाघनीय कृतियां अभी तक अप्रकाणित ही हैं।
नाटक का महत्व
संस्कृत-साहित्य-प्रेमियों के लिए यह सौभाग्य तथा आनन्द का विषय है कि अखिल भारतीय संस्कृत-परिषद्, लखनऊ पण्डितप्रवर श्रीकृष्ण जोशी जी के विलक्षण नाटक 'श्रीकृतार्थकौशिकम्' को प्रकाशित कर के सहृदयों के रसास्वादन के लिए प्रस्तुत कर रही है। इसके लिए परिषद् धन्यवाद की पात्र है।
'श्रीकृतार्थकौशिकम्' संस्कृत के अभिनव-नाट्य-साहित्य-कोश की बहुमूल्य मणि है। यह नाटककार की प्रौढ़ कृति है। यह नाटक हमारे सम्मुख वैदिककालीन भारत की स्वर्णिम झांकी प्रस्तुत करता है। इसमें नाटककार ने अपनी कल्पना से तत्कालीन भारत के वातावरण संस्कृति तथा राजनीतिक दशा का भव्य विठाण प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत नाटक का विवेच्य विषय है- आर्य संस्कृति की गरिमा । आयों तथा दस्युओं के संघर्ष का चिठाण वैदिक साहित्य में उपलब्ध होता है। नाटककार ने अतीत की गुहा में निहित तथा प्राच्य साहित्य में चिल्लित इस महत्वपूर्ण विषय को अपनी कल्पना से पुनरुज्जीवित करके उसे अपने नाटक की कथावस्तु का रूप दिया है तथा उसमें अपनी काव्य प्रतिभा से आधुनिकता का रंग भी भर दिया है। महाराज गाधि तथा विश्वमिल के चरित्र हमें सहसा महात्मा गांधी तथा पण्डित जवाहर लाल नेहरू की स्मृति दिलाते हैं। प्रस्तुत नाटक में वैदिक आर्यों के गौरव तथा उनकी सांस्कृतिक महिमा का स्वर स्थान-स्थान पर सुनाई पड़ता है। आर्यजन आक्रान्ता दस्युओं से आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए पारस्परिक विद्वेष को भूलकर एकत्रित तथा संगठित होकर रहें- यही महान् संदेश प्रस्तुत नाटक में प्रोद्घोषित किया गया है। अपने समय में विदेशियों से आक्रान्त भारतीयों को प्रोत्साहित करने के लिए उनमें संगठन की भावना को उद्बुद्ध करने के लिए, उन्हें गौरवमय अतीत की स्मृति दिलाने के लिए, नाटककार ने 'कृतार्थकौशिकम्' में आर्यों की उज्ज्वल संस्कृति तथा उनकी एकता की भावना का चित्रण किया है। इस प्रकार प्रस्तुत नाटक आज से कई सहस्र वर्ष पूर्व के वैदिकयुगीन वातावरण को चित्रित करते हुए भी अपने युग की आवश्यकता के सर्वथा अनुकूल और सामयिक है।
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