प्रस्तावना
संगीत का दृष्टिकोण अत्यन्त ही सूक्ष्म है और इतिहास भी केवल पारस्परिक घटनाओं का संकलन मात्र ही नहीं, अतः भारतीय सगीत का इतिहास सूक्ष्मातिनूक्ष्म घटनाओं का निरपेक्ष परिचय है। अनेक विद्वानों के अनुसार भारतीय संगीत के पूर्ण इतिहास की रचना सभव ही नहीं, क्योंकि यह अत्यन्त प्राचीन और असंख्य पाण्डुलिपियों में यत्र-तत्र अप्रकाशित पड़ा है। सर्वप्रथम इन पाण्डुलिपियों को सार्थक रूप देना ही कठिन है और फिर इनका सकलन भी। परन्तु बिद्वानों द्वारा दिये गये दृष्टिकोणों और औचित्य-पूर्ण प्रकाशनों के आधार पर इस रचना को प्रकाशित करने की कोशिश की गयी है। संगीत की सूक्ष्मता का आधार तो मानसिकता है, परन्तु इतिहास का स्वरूप मानसिक नहीं है। उसका आधार स्थल है। अतः भारतीय संगीत के इतिहास में स्थूल दृष्टि से तीन काल हो सकते हैं- १. प्राचीन काल : सभ्यता के उदय होने के पूर्व से सन् १२०० तक का काल। इस युग के संगीत का विवेचन प्रागैतिहासिक, प्राग्वैदिक एवं सं-कृत ग्रन्थों के आधार पर किया गया है। २. मध्य काल:इस काल में संगीत का बड़ा ही उत्कृष्ट विकास हुआ। इस युग में सन् १२०१ से सन् १८०० तक के काल को वर्गीकृत किया गया है। ३. वर्तमान काल : इस काल में सन् १८०१ से आज तक की सांगीतिक गतिविधियों की विवेचना की गयी है। किन्तु विद्वानों ने मतैक्यता के अभाव में ऐतिहासिक काल का विभा- जन अन्य रूप में भी किया है, जैसे हिन्दू युग, मुसलमान युग, अँग्रेज युग आदि । परन्तु सामयिक दृष्टिकोण से किया हुआ विभाजन ही पूर्ण और उचित है। विभिन्न प्रकार के संगीत शास्त्रों तथा तालों का प्रारम्भ कब से हुआ, पर सप्रमाण कुछ भी कहना सम्भव नहीं है। फिर भी 'सदाशिवभरत विभित्र कालों में संगीत का प्रचलन वैदिक काल :- ईसा के जन्म के तीन सहख वर्ष पूर्व भी भारतीय संगीत की उत्कृष्ट अवस्था का प्रमाण सिन्धु घाटी की सभ्यता के खनन के प्राप्त वीणाओं, वंशियों, विविध चर्म वाय, करताल, नर्तनशील मूतियों आदि के रूप में मिलता है। अन्य उदाहरण ऋग्वेद में मिलते हैं जिसकी रचना और सभ्यता अनुमानतः ईसा से ढाई हजार वर्ष पूर्व की है। सामवेद में यज मण्डल को सदः कहा गया है एवं यज्ञ किया हेतु साम गायन एक अनिवार्य आवश्यकता थी। इसका विवेचन सामवेद में विस्तृत मिलता है। डॉ० फेश्वर, हालैण्ड के डॉ० हुग, रिवार्ड साईमन एवं अपने भारत के स्वामी प्रज्ञानन्द जैसे विद्वानों का कहना है कि वैदिक युग में विभिन्न स्तरों में नयी-नयो शैलियों के गीतों का उद्भव हुआ था एवं सामगान की प्रारंभिक अवस्था में स्वर-मण्डल का प्रयोग न होते हुए भी अन्तिम अवस्था में उनका समावेश अवश्य हुआ था। स्वर-मण्डल 'नारदीय शिक्षा' में सात स्वर, तीन ग्राम (षड्ज, गान्धार, मध्यम आदि), इक्कीस मूच्र्छनाओं एवं उन्बास तान के समन्वित रूप को कहा गया है। विभिन्न प्रमाणों में यह कहा गया है कि वैदिक संगीत में कोमल स्वरों का प्रयोग नहीं था, परन्तु स्वरों के निश्चित क्रम अवश्य थे। साथ ही रागात्मकता के साथ लयात्मकता का विशेष ध्यान रखा जाता था। यही लयात्मकता आगे भरतकालीन ताल शास्त्र की जननी है। सामवेद भारतीय संगीत की परम्परा का प्रथम महान् ग्रन्य है, उसमें प्रत्येक मन्त्र को स्वरात्मक रूप दिया जाता है। अथर्ववेद में वैदिक संगीत के साथ-साथ लौकिक संगीत तथा 'रैम्य' खूब प्रचलित था। इसमें दुन्दुभी के निर्माण शैली का विवरण मिलता है।
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