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शौर्यगाथाएं- भारतीय इतिहास के अविस्मरणीय योद्धा: Tales of Bravery- Unforgettable Warriors of Indian History

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Specifications
Publisher: Hind Pocket Books
Author Vikram Sampath
Language: Hindi
Pages: 324
Cover: PAPERBACK
8.5x5.5 inch
Weight 260 gm
Edition: 2023
ISBN: 9780143461388
HBQ607
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Book Description
प्रस्तावना

राष्ट्रीय राजधानी में 2016 की गर्मियों की उस शाम, मेरे मित्र तथा प्रतिष्ठित लेखक एवं अर्थशास्त्री संजीव सान्याल और मैं लंबे अंतराल के बाद मिले थे। हमारी इधर-उधर की बातचीत के दौरान अचानक उन्होंने कुछ ऐसा कहा जिस पर मेरा ध्यान बरबस आ टिका था। उन्होंने कहा, 'क्या आपने कभी गौर किया कि भारतीय इतिहास को असफलताओं लंबी फेहरिस्त के तौर पर चित्रित किया गया है? हम को जिन भी लड़ाइयों के बारे में बताया गया, उसमें भारत या भारतीय हमेशा हारे हैं। हमें एक हारे हुए राष्ट्र के तौर पर ही दिखाने का प्रयास किया गया है। हमारे अस्तित्व की इन बीती सदियों के दौरान हमने कभी विरोध किया भी था या हरेक आने वाले हमलावर के आगे झुक जाते थे? अगर किया था, तो वे कहानियाँ कहाँ हैं, वह नायक सरीखे विरोधी कहाँ हैं?'

ऐसे कुछ नाम सोचने के लिए हमने मिलकर विचार किया पर कुछ ही नाम सोच सके थे। परंतु हमें यह अहसास ज़रूर हुआ कि ऐसे सूलधारों के बारे में हम कितना कम जानते हैं या विजय एवं विरोध के ऐसे दृष्टांतों को हमारे शिक्षा तंत्र ने बिल्कुल ही दरकिनार रखा है। हालाँकि, इस दौरान मैं पारंपरिक भारतीय इतिहास लेखन की कई अन्य लुटियों पर मंथन करता रहा था, लेकिन संजीव के साथ वह बातचीत मुझे लंबे समय तक याद रही। आखिरकार, विजेता ही इतिहास लिखता है। हमारे अपने अतीत की समझ हमें हमारे पूर्व औपनिवेशि शासकों द्वारा बताई गई थी, जिसे बाद में हमने अपने पूर्वाग्रहों, राजनीतिक उपयोगिता और वैचारिक रुझानों के आधार पर और पुख़्ता किया। जैसा कि नाइजीरियाई लेखक चिनुआ अचेबे' ने कहा है: 'जब तक शेरों के अपने इतिहासकार नहीं होंगे, शिकार का इतिहास हमेशा शिकारी की प्रशंसा में लिखा जाएगा।' रूपक के तौर पर यह अफ्रीकी मुहावरा बताता है कि हावी रहने वाले गुट कैसे ऐतिहासिक वर्णन के आधार पर सत्ता की तारीख़ लिखते हैं। दरअसल, इतिहास लेखन की बुनियाद में यूरोपियन और पश्चिमी नृवंशवादी घरोहर काम करती दिखती है, जिसकी परिधि में भारत, एशिया, अफ्रीका या लातिन अमेरिका जैसी अधीनस्थ ज़मीनों की आवाजें यदा-कदा ही सुनने को मिलती हैं। अफसोस कि भारत के मामले में, अपने इतिहास का खंडन करते हुए, खुद हम ही अपने अतीत और अस्तित्व को नीचा दिखाने में औपनिवेशिक शासकों से भी कई कदम आगे निकल गए हैं। हालाँकि, इतिहासकार का काम गौरवशाली भावना (अक्सर अंधराष्ट्रीयता की फिसलन भरी सीमा से टकराने वाला) का निर्माण करना नहीं होता, परंतु विमर्श इस पर भी जोर देता है कि अतीत के अतिवाद और रिक्त स्थानों के कारण होने वाली शर्मिंदगी और अपराधबोध उभारना मात्त्र भी उसका काम नहीं है।

जनप्रचलित भारतीय इतिहासलेखन में अन्य स्पष्ट दिखने वाले छिद्र भी हैं, खासकर वे जो कि स्कूलों और कॉलेजों में हमारी भावी पीढ़ी को पढ़ाए जाते हैं और उनका पलड़ा काफी हद तक दिल्ली की ओर झुका है। 'प्रादेशिक इतिहास' से जुड़े प्रचलित दृष्टिकोण में देश के विभिन्न हिस्सों से आने वाली 'प्रादेशिक' कथाएँ वहाँ की मुख्यधारा तथा केंद्रीय थीम का हवाला देती हैं, और उस श्रेणी से बाहर का कुछ भी अन्य 'प्रादेशिक' होता है। क्या 'केंद्रीय' है और क्या 'प्रादेशिक' इसका फैसला कैसे किया जा सकता है? क्या विजयनगर साम्राज्य या कश्मीर के शक्तिशाली कार्कोट या असम के अहोम 'प्रादेशिक' कथाएँ हैं और स्थान विशेष में सीमित न होकर दिल्ली सल्तनत, भारत का मुख्यधारा इतिहास ? भारतभूमि के बृहद भूभाग को पूर्णत: नज़रअंदाज़ किया गया, जबकि विद्यार्थी दिल्ली और उसके आसपास राज करने वाले तुगलकों या लोधियों अथवा खिलजियों जैसे व्यर्थ और अल्पकालिक वंशों के बारे में पढ़ता है, जिनका गिने-चुने स्थापत्य के अलावा, देश में न्यूनतम योगदान रहा है। देश के ऐतिहासिक कथ्य से किसी को काटकर अलग करना मेरा मत नहीं, क्योंकि हम अपने अतीत को नकार नहीं सकते; भारत गाथा में सभी शासकों और वंशों के योगदान और महत्व के चलते समस्त क्षेत्रों का लेखा दर्ज होना चाहिए। अफसोस कि इतिहास का कोई विद्यार्थी उक्त वंशों को सही तौर पर चिन्हित करने का प्रयास करेगा, जबकि राष्ट्रकूटों या अठारहवीं सदी के अंत में अधिकांश उपमहाद्वीप पर शासन करने वाले मराठा साम्राज्य के संबंध में वह ऐसा करने में असफल हो सकता है। दक्षिण भारत में राज करने वाले राष्ट्रकूटों, चालुक्य, सातवाहनों, शक्तिशाली चोल वंश, पांड्या, समृद्ध विजयनगर साम्राज्य, दक्कन के आदिलशाही, मैसूर के वाडेयार या लावणकोर के शासकों सहित अन्य वंशों से जुड़े छिट-पुट संदर्भ ही मिलते हैं।

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