| Specifications |
| Publisher: Adivasi Lok Kala Evam Boli Vikas Academy And Madhya Pradesh Cultural Institution | |
| Author Chinmaya Mishra | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 130 (With Color Illustrations) | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 8.5x10.5 inch | |
| Weight 680 gm | |
| Edition: 2008 | |
| HBL894 |
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हम सभी ने शहरों, गाँवों और अपने आसपास देखा है कि भारतीय परम्परा में पेड़ के तने पर धागा लपेटकर अपनी मनोकामना पूर्ण करने का उपक्रम अभी भी जारी है। वहीं सुदूर त्रिपुरा में तो पूरे गाँव को ही एक सूत से लपेटा जाता है। इसके पीछे मान्यता यह है कि ऐसा करने से गाँव में बुरी शक्तियों के प्रवेश पर रोक लग जाती है एवं इसी के साथ जो बुरी शक्तियाँ यदि पूर्व से गाँव में हों, वे गाँव से पलायन कर जाती हैं।
जब सूत इस सीमा तक भारतीय परम्परा में अपनी पैठ रखता हो तो इस कल्पना से ही रोमांच हो उठता है कि इस सूत का सामुदायिक ताना बाना मनुष्य के लिए कितना महत्त्वपूर्ण है। सूत से कपड़ा बनने की प्रक्रिया कुछ-कुछ वैसी ही है, जैसे कि गर्भ में विकसित होने के बाद एक शिशु का बाहर आना। शायद इसीलिए वस्त्रों को लेकर अनेक परम्पराएँ बनती चली गईं। उसके कई स्वरूपों को तो चमत्कारिक शक्ति का द्योतक भी माना जाने लगा। इतना ही नहीं, कई एक परम्पराएँ तो किंवदन्ती की तरह प्रचलन में आ गईं। अब गुजरात के पाटन में बनने वाले 'पाटन पटोला' को ही लें विवाह के निमित्त दूल्हा जब दुल्हन के घर की ओर प्रस्थान करता है तो उसे एक पुराने पाटन पटोला वस्त्र पर बैठाकर रवाना किया जाता है। वहीं गर्भवती महिला गर्भ के सातवें माह में अपने अजन्मे बच्चे की सुरक्षा के लिए पटोला पहनती है। भारतीय पारम्परिक विवाह बिना बनारसी एवं कांजीवरम साड़ी के अधूरा सा लगता है।
भारतीय हाथ बुने वस्त्र को देखकर आम आदमी तुरन्त पहचान लेता है कि ये महेश्वर में बुना है या चंदेरी में या पोचमपल्ली में या छत्तीसगढ़ में या कोटा में। वह अनायास उस पूरी संस्कृति से भी जुड़ता जाता है, जहाँ का बुना कपड़ा वह पहनता है। दरअसल पूरा भारतीय समाज वस्त्र को मात्र वस्तु मानकर उसका उपभोग नहीं करता, वह उस वस्त्र से जुड़ता है, उसे महसूस करता है। ऐसा अधिकांशतः हाथ बुने वस्त्र के साथ ही संभव हो पाता है।
वस्त्रों ने मानव के साथ-साथ यात्रा की है। मनुष्य ने अपने विकास को वस्त्रों के माध्यम से गति प्रदान की है। उसकी उपयोगिता आज हमारे सामने है। वस्त्र की इस अनंत यात्रा के प्रारंभिक स्त्रोत के रूप में ऋग्वेद की ऋचा 1.92.3 का उल्लेख आवश्यक जान पड़ता है। इसमें बुनाई में तल्लीन महिलाओं के गीत गाने का जिक्र आता है। अगली ही ऋचा में वर्णन है कि उपा नाचने वाली लड़की के समान साज के कपड़े पहने हुए हैं 'अभिपेशाविपते नृतुरिय। इसी बेल बूटेदार वस्त्र को ऋचा 2.3.6 में अलंकारिक ढंग से यज्ञ का बुना हुआ प्रतिरूप 'यहस्यपेशस' कहा गया है। वेदकालीन समाज में बुनाई महिलाओं का उद्यम था। इसे कालान्तर में पुरुषों द्वारा हड़प लिया गया। ऋग्वेद की ऋचा 5.47.9 में वर्णन है कि माताएँ अपने पुत्र सूर्य के लिए कपड़े चुनती हैं। ऋना 1.115.4 में 'वस्त्र वयंती नीरीव रात्रिः' कहा गया है कि निशा सूर्य के लिए वस्त्र बुनती है।
उषा व निशा दोनों ही बुनने वाली हैं अर्थात् ताना और बाना। इसे स्पष्ट तौर पर 'उष्सा नक्ता वरया इब तंतु तंत्र संवयंती' से समझा जा सकता है। एक अन्य ऋचा 7.33.9 में कहा गया है कि अप्सराएँ सर्वनियामक मृत्युदेवता यम द्वारा ताने गए वस्त्र को बुनती हैं। वस्तुतः सृजन का मूल तो नारी केन्द्रित ही है और बुनाई की परम्परा को भी इससे अलग नहीं किया जा सकता।
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