कला के उत्कृष्ट क्षेत्र उत्कल में नव्य काव्य-प्रवाह ईसवीय सन् १८८७ से उद्भूत होकर १९१४ में प्रावृट् का प्राचुर्य पाकर, नदी और महानदी का रूप लेकर, क्रम से गभीरतर और प्रशस्ततर बनकर, समस्त बाधा बन्धन लाँघ जब महावेग से अग्रसर हुआ, तब महासागर की अनन्त ऊर्मियों में एकीभूत होनेपर ही उसकी विश्रान्ति रही। इस पर्व के एक पार्श्व में कविवर राधानाथ राय की 'चिलिका' और 'चन्द्रभागा' काव्यद्वयी बनी तथा अन्य पार्श्व में साहित्य-स्रष्टा गंगाधर मेहेर का महान् काव्य 'तपस्विनी' । ओड़िआ वाङ्मय के इस पर्व के परिपूर्ण क्लासिक कंवि' हैं गंगाधर मेहेर (१८६२ - १९२४) ।
'तपस्विनी' में वही उदात्त स्वर ध्वनित होता है, जो हिमालय के समान अत्यन्त उत्तुंग तथा समुद्र-निर्घोष सदृश गंभीर है। यदि कोई व्यक्ति साहित्यिक महाकाव्य के उदात्त गांभीर्य का परिस्फुटन कर सका है और गतानुगतिक-साधना-सेवित काव्य-वीणा में विश्व के अनाहत महासंगीत के संग महनीय महिमा का उद्घोषण कर पाया है, तब कवि-प्रतिभा की उस मौलिकता के प्रति काव्य-रसिकों की सजग दृष्टि पहले ही पड़ती है। गंगाधर की तपस्विनी ऐसी एक मौलिक सृष्टि का उत्तम निदर्शन है।
रामायणीय सती सीता की निर्वासनोत्तर घटनावली के सरस वर्णन से कवि की यह श्रेष्ठ कृति 'तपस्विनी' सहृदय-समाज में विशेष प्रियभाजन रही है। करुण रस के आधार पर कवि ने निर्माण कर दिखलाया एक रसोत्तीर्ण, महान् काव्यादर्श-खचित, एकादश-सर्ग सम्पन्न, कला-कोणार्क 'तपस्विनी' महाकाव्य, एक सीतायन।
प्रकृति का जगत असीम है; मनुष्य का संसार कई संकीर्णताओं से सीमित रहा है। प्रकृति जब मनुष्य का प्रतीक या अंग बनकर उभरती है, तब अति विचित्र रूप से प्रकृति और मनुष्य दोनों का मिलन संघटित होता है।
तपस्विनी काव्य में स्वामी-परित्यक्ता साध्वी सीता की दुर्दशा देखकर प्रकृति की तीव्र प्रतिक्रिया होती है। जब नियति के साथ युद्ध का उद्यम होता है, तब उसी वर्णन में प्रकृति और मनुष्य के द्वैत शासन की सत्ता प्रतीत होती है। यही है प्रकृति और मनुष्य के बीच में अपूर्व समन्वय; मनुष्य और प्रकृति की अर्धनारीश्वर मूर्ति। कवि गंगाधर ने प्रकृति को दुःखिनी सीता की सखी के रूप में, बन्धु के रूप में तथा आश्रयदात्री के रूप में सरसता के साथ उपस्थापित किया है। पति द्वारा निर्वासिता पतिप्राणा सीता की सर्वशून्यता एकान्त रूप में अनुभवनीय है। पति ही सती के जीवन-सर्वस्व हैं। इसलिये पति द्वारा प्रत्याख्याता होकर भी सीता बन गयी हैं 'तपस्विनी', घोर तपस्या का कष्ट वरण करके। निराश्रया सीता के अशान्त जीवन को स्थिर और शान्त करने के लिये वाल्मीकि आश्रम राज्य में शान्ति रानी का राजत्व भव्य रूप से प्रतिपादित किया गया है।
नर और नारी, प्रेम-सरिता के दो तट हैं, दोनों पार्श्व। दोनों के स्नेह, प्रेम, श्रद्धा और आदर समान भाव से यदि न बढ़ेंगे, यही प्रेम-तटिनी स्वच्छन्द रूप से प्रवाहित नहीं हो सकेगी। न केवल रामचन्द्र के, अपितु समभाव से सती सीता के हृदय में भी प्रेम-विरह की सुकुमारता अनुभूत होती है। अनुराग एवं श्रद्धा केवल एक ही के पास अभिव्यक्त होने पर प्रेम खण्डित और अभिशप्त बन जाता है। परन्तु प्रेमिक - प्रेमिका दोनों में सश्रद्ध अनुराग की अभिव्यक्ति रही, तो दोनों का प्रेम सार्थक बनकर अमर मार्ग की ओर अग्रसर होता है।
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