माँ ताराचण्डी की कृपा के बिना यह पुस्तक सम्भव नहीं थी। यह लेखन न तो मेरी विद्या का फल है, न ही मेरी साधना की पूर्णता यह केवल माँ की प्रेरणा है, जो विचार बनकर, शब्द बनकर और अंततः स्तुति बनकर काग़ज़ पर उतरती रही।
मैं कृतज्ञ हूँ उन सभी ऋषियों, संतों और साधकों का, जिनकी वाणी और साधना से मुझे इस ग्रंथ का आकार मिला। अपने परिवार का, विशेषकर ब्रह्मलीन पिता अयोध्या नाथ तिवारी और मेरी माताजी और पत्नी का, जिनकी आस्था और सेवा इस साधना की आधारभूमि बनी। उन पाठकों और श्रद्धालुओं का. जिन्होंने मुझे यह अनुभूति दी कि 'भक्ति जब लोक में उतरती है, तब वह लोकभाषा बन जाती है।' यह पुस्तक सिर्फ पाठ नहीं, एक यात्रा है- ध्यान से चालीसा तक, स्तुति से आरती तक और आत्मा से माँ तक।
व्यक्तिगत आभारः काशी के पावन धरा पर काशिका के रूद्र प्रभु और देवी मोहिनी की असीम कृपा से वाणी वीणा पाणि देवी सरस्वती और महोत्कट विनायक के आशीर्वाद स्वरूप एवं सद्गुरु जगी वासुदेव एवं परम पूजनीय संत जीयर स्वामी के अमृत वाणी से प्रेरणा और ब्रह्मलीन गुरु विसुधानंद के आशीर्वाद से अन्तःकरण शुद्धि के कारण मेरे मन में कुछ समर्पित करने के भाव प्रदान करने वाले गुरु रामानंद तिवारी जी और ब्रह्मलीन स्वर्गीय पिता पंडित श्री अयोध्या तिवारी और पितामह ब्रह्मलीन ईश्वर दयाल तिवारी के दिए संस्कार और माता लगनव्रत तिवारी के पल पल साथ होने के अहसास ने मुझे कुछ लिखने के लिए उद्धत किया। मैं बहुत आभारी अपनी सहधर्मिणी पत्नी अर्पिता और दोनों पुत्र अनिकेत शिवांश और वेदांश वैश्विक का, जो काल चक्र के दो दिव्य पहिये के भाँति सदैव साथ देते रहे। इनके सहयोग के बिना यह कार्य अधूरा था।
मृत्यु के उत्सव की ओर बढ़ते कदम का आज छियालीसवाँ कदम है। हृदय पुकार रहा है कि रुद्र प्रभु में आ रहा हूँ आप में मिल जाने को, आप पर मर मिटने को मैं आ रहा हूँ प्रभु! पुनः मुझे दूसरी मृत्यु के उत्सव की ओर मत भेज देना। यदि भेजना अनिवार्य है तो ऐसे लोगों के बीच में भेजना, जिनका मन और मस्तिष्क निर्मल हो। प्रभु उसी ओर भेजना, उसी स्थान पर भेजना, जहाँ कई शताब्दियों पहले भेजा था, उस दिव्य नदी के तट पर। उसी दिव्य नदी के तट पर भेजना प्रभुः जिसका जल ग्रहण कर मेरा शरीर और मेरी आत्मा पुनः मृत्यु का उत्सव न मनाए। कई शताब्दियों की भ्रांतियाँ मेरा पीछा अभी तक नहीं छोड़ी हैं प्रभुः मुझ से अपराध हुआ है सृष्टि के भौतिक नियम का उलंघन करने का। प्रभु उस संत की निंदा, उस गुरु के अपमान ने आज तक मेरा पीछा नहीं छोड़ा है। प्रभु क्षमा करना। मेरे भीतर के शिव, मेरे अंतःकरण के शिव, मेरी विनती स्वीकार करो। पुनः मृत्यु के उत्सव में भेजना तो उसी नदी के तट पर भेजना, ताकि में प्रायश्चित कर सकूँ और मृत्यु के उत्सव के पार आगे बढ़ सकूँ, मेरी प्रार्थना स्वीकार करें रुद्र देव।
अंत में काशी नगरी को कोटिशः नमन, जिसने मुझे अपने पास बुलाया और गंगा घाट पर ईश्वर से साक्षात दर्शन कराया। काशिका के मेरे प्रभु रूद्र देव, देवी मोहिनी को समर्पित और मेरे पितामह ब्रह्मलीन ज्योतिषविद् पंडित ईश्वर दयाल तिवारी एवं पिता ब्रह्मलीन ज्योतिषविद् पंडित अयोध्या तिवारी, आयुष्मती माता लगनव्रत तिवारी और ब्रह्म आधारित पितामह ब्रह्मलीन श्री राजनाथ पाठक जी के पुण्य स्मृति में... जिनकी साधना, श्रद्धा और आशीर्वाद ने इस कार्य को संभव किया। साथ ही, मैं अपनी पत्नी सहधर्मिणी अर्पिता और अपने पुत्र अनिकेत एवं वैश्विक त्रिपाठी को यह शक्ति-दीपक सौंपता हूँ कि वह मातृ-शक्ति की शरण में सदा नत रहे और उस चेतना को अगली पीढ़ियों तक पहुँचा सके।
मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ उन पुरातत्ववेत्ताओं, साधकों, पाठकजनों और कर्मकाण्ड-विशारदों का, जिन्होंने ताराचंडी देवी के स्वरूप, मंदिर, साधना-विधि और स्तुति-पाठ पर मुझे मार्गदर्शन दिया। विशेष आभार गुप्तकालीन स्तोत्रों के गवेषक मनीषियों का, जिन्होंने छाया में छुपे सत्य को शब्द दिए।
विशेष आभार - अग्रज स्वर्गीय सत्येन्द्र पांडेय जी का और अनुज नविन कुमार ओझा जी का, अनुज मनोज कुमार एवं अभय सिन्हा का जिन्होंने मेरे लेखन को सदैव प्रोत्साहित किया है.
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