कवि कुल तिलक महात्मा तुलसीदास कालजयी महाकवि हैं। उनका साहित्य प्रगाढ़ पांडित्य, अविरल स्वाध्याय, 'नानापुराणनिगमागम' ज्ञान, मानव समाज के समग्र मानसिक एवं प्राकृतिक व्यापारों के अनुभव का समवाय है। उन्होंने अपने विरज-विशुद्ध मानस से जिस अविनाशी भक्ति भागीरथी की पीयूष पोषित धारा को निःसृत किया, वह लोकवेद के मंजुल तटों के बीच अजस्र गति से निःसृत रहकर लोकजीवन को मंगलमयी संजीवनी और प्रेरक ऊर्जा प्रदान करती रही है। उनका साहित्य काल की सीमा से परे है। विश्व का कोई भी समाज या व्यक्ति गोस्वामीजी के साहित्य से अपने को पहचानने, सुधारने, सँवारने और स्थापित करने में सफल हो सकता है। उनकी अतिव्याप्ति का पुष्ट प्रमाण यह है कि विश्व की प्रायः सभी विकसित भाषाओं में 'रामचरितमानस' का अनुवाद हो चुका है। अनूदित पुस्तकों में भाषा की दृष्टि से 'बाइबल' के बाद 'रामचरितमानस' का दूसरा स्थान है। कितने ही विदेशी विद्वान् वर्षों तक निष्ठापूर्वक हिंदी भाषा और 'मानस' का अध्ययन करते रहे हैं। यह सर्वमान्य है कि भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन और भारतीय जीवन-शैली को ठीक-ठीक जानने-समझने के लिए 'रामचरितमानस' से अधिक सुगम कोई ग्रंथ नहीं है।
गोस्वामीजी ने अपने समय तक प्रचलित प्रायः सभी काव्य रूपों और छंद शैलियों में रचना की है। काव्य के निर्धारित लक्षणों के आधार पर विचार करें तो स्पष्ट होता है कि विषय-वस्तु की महानता, उक्ति वैचित्र्य, व्यंजना-शक्ति, अर्थगांभीर्य, आलंकारिकता, रसपरिपाक, सांगीतिक सिद्धि, शिल्प सौष्ठव, नूतन उद्भावना, संप्रेषणीयता और प्रभावान्विति की दृष्टि से गोस्वामीजी अन्यतम सिद्ध होते हैं। उनके व्यक्तित्व और काव्य के व्यापक प्रभाव के संबंध में विदेशी इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ का विचार लक्षणीय है। उसके अनुसार- भारत में एक साथ दो महान् शक्तियाँ शासन कर रही थीं। एक थे सम्राट् अकबर और दूसरे थे महात्मा तुलसीदास। अकबर का शासन सैन्य बल पर था, किंतु तुलसीदास लोगों के हृदय पर शासन करते थे। गोस्वामीजी कवि होने का दावा भी नहीं करते। किंतु उनकी प्रतिभा प्रखरता, सृजनशील संवेदना और उर्वर कल्पना शक्ति ने उन्हें काव्याभिव्यक्ति के चरम शिखर पर पहुँचा दिया। कविवर अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की उक्ति है-
कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला। वस्तुतः गोस्वामीजी को पाकर कविता स्वयं धन्य हो गई।
अलग-अलग खोजों में गोस्वामीजी के ग्रंथों की संख्या अलग-अलग निश्चित की गई है। तुलसी-साहित्य के सुधी शोधकर्ता पं. रामगुलाम द्विवेदी ने संपूर्ण उपलब्ध सामग्री का विवेकपूर्ण मंथन करके उनकी बारह कृतियों को प्रामाणिक माना है।
इस संबंध में उनका एक छंद भी प्रचलित है-
रामलला नहछू त्यों वैराग्य संदीपनी हूँ, बरवै बनाइ बिरमाई मति साई की। पार्वती जानकी के मंगल ललित गाय, रम्य राम आज्ञा रची कामधेनु नाई की। दोहा औ कवित्त गीत बंध कृष्ण कथा कहि, रामायन विनय माहिं बात सब ठाई की।
जग में सोहनी जगदीश हूँ के मन मानी, संत सुखदानी बानी तुलसी गुसाई की।
इसके अनुसार बारह ग्रंथों में 'रामलला नहछू', वैराग्य संदीपनी', 'बरवै रामायण', पार्वती मंगल', 'जानकी मंगल', 'रामाज्ञा-प्रश्न', 'दोहावली', 'कवितावली', 'गीतावली', 'श्रीकृष्ण गीतावली', 'विनय पत्रिका', 'रामचरितमानस' का समावेश है। पं. रामगुलाम द्विवेदी के संग्रह से ही रामभक्त छक्कनलालजी ने प्रतिलिपियाँ तैयार की थीं। परवर्ती शोधकर्ताओं और संकलनकर्ताओं ने इन्हीं प्रतियों को आधारस्वरूप स्वीकार किया है। इन रचनाओं के विषय अलग-अलग हैं, किंतु सभी का केंद्रीय वस्तुतत्त्व भगवान् श्रीराम की एकनिष्ठ भक्ति ही है, जो संग्रथक सूत्र की भाँति सभी के भीतर से गुजरती है। इनमें 'कृष्ण गीतावली' अपवाद है, जो भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाओं और उनके अलौकिकत्व का बड़ी निष्ठा और संसक्ति के साथ आख्यान करती है।
गोस्वामीजी के लिए कविता साध्य नहीं, साधन है। पतित पावनी गंगा की भाँति सबका कल्याण करने में ही उसकी सार्थकता है। इसी उद्देश्य से वे 'आखर थोरे' में 'अमित अर्थ' को समाविष्ट करके व्यापक लोकमंगल का विधान करते हैं। उनकी छोटी-बड़ी कृतियों में भक्ति, आस्तिक आस्था, मूल्यनिष्ठा, सदाचरण, सघन संवेदना और लोकोपकार का भाव सर्वत्र उदग्र है। कविता के पवित्र माहात्म्य को सुरक्षित रखने के लिए ही उन्होंने किसी 'प्राकृत जन' के गुणगान को सरस्वती का अपमान माना। स्वयं उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम, जगत्-जननी जानकी, महादेव शिव, शक्तिस्वरूपा पार्वती, भक्तप्रवर हनुमान जैसे पूज्य चरित्रों के माध्मय से ही अपने लोकधर्मी आदर्शों की स्थापना की। उनके सभी ग्रंथ शील, संस्कार, संस्कृति और सद्धर्म के पोषक हैं। सभी रचनाओं का स्वस्थ, सुविचारित और सुनिश्चित उद्देश्य है। वस्तुतः बिना उद्देश्य के तो कोई मूर्ख भी किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होता- 'प्रयोजन मनुद्दिश्य न मंदोऽपि प्रवर्तते।' फिर गोस्वामीजी तो बृहत् ज्ञान की साक्षात् प्रतिमा थे। प्रश्न उनकी कृतियों में निहित उद्देश्य को पहचानने का है।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि गोस्वामीजी के 'मानस' को छोड़कर अन्य ग्रंथ रत्नों के बहुत से लोग नाम तक नहीं जानते। इसका एक प्रमुख कारण तो यह है कि 'रामचरितमानस' राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर इतना अधिक ख्यात और समाद्रित हो गया कि अन्य कृतियाँ छायावेष्टित हो गईं और 'मानस' गोस्वामीजी का प्रतीक बन गया। बहुत से लोगों को यह भी नहीं पता है कि अवधी भाषा की भाँति ही ब्रजभाषा पर भी उनका पूर्ण अधिकार था और उन्होंने अपनी ललित रचनाओं से ब्रजभाषा साहित्य की भी श्रीवृद्धि की है। यह 'रचनावली' इस अभाव की पूर्ति का भी एक विनम्र प्रयास है।
**Contents and Sample Pages**
Hindu (हिंदू धर्म) (13443)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (714)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2075)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1543)
Yoga (योग) (1157)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24544)
History (इतिहास) (8922)
Philosophy (दर्शन) (3591)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist