इस नश्वर संसार से पार होने का एक ही मार्ग है, वह है तम से परे उस महान् आदित्यज्योति का ज्ञान। परमात्मा का वह ज्ञान वेदों में निहित है। ईश्वर ने संसार को वेद और उपनिषदों का महान ज्ञान दिया है। आध्यात्मिक ऋषियों का निर्मल जीवन हमें बहुत कुछ प्रदान करता है। ईशावस्योंपनिषद्" यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय है। उसका प्रथम मन्त्र सृष्टि के महान् रहस्य को उदघोषित करता है।
ईशा वस्यमिद् सर्वंयत्किच्च जगत्यां जगत्। 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।
मन्त्र का अभिप्राय है कि इस जगती में जो जगत् व्याप्त है वह परम् ब्रह्म परमेश्वर द्वारा रचित है। सर्वव्यापी, अन्तर्यामी परमात्मा संसार के कण-कण में है। संसार की सम्पूर्ण गति परब्रह्म परमेश्वर से अनुप्राणित है। सम्पूर्ण जगत् का स्वामी एकमात्र परम्पिता परमेश्वर है। इस संसार में हमारा कुछ नहीं, सब परमात्मा का है। अतः संसार का भोग त्यागपूर्वक करना चाहिए। किसी दूसरे के धन को लेने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। जब हम यह अनुभव कर लेते हैं कि सब कुछ ईश्वर का है और सब तरफ ईश्वर व्याप्त है, तब हम जगत् के हर पदार्थ से एकात्मकता का अनुभव करते हैं और त्यागपूर्वक भोग करते हुए हम इसके स्वामी बन जाते हैं, फिर मन में लालच और छल-कपट के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है।
उपनिषदों का संदेश है 'सत्यमं वद' 'धर्मम चर सत्य बोलो और धर्म के मार्ग पर चलो। 'मातृ देवो भव 'पितृ देवो भव', 'आचार्य देवो भव', 'अतिथि देवो भव, तुम माता में देव बुद्धि रखना, पिता में देत बुद्धि रखना, आचार्य में देव बुद्धि रखना तथा अतिथि में देव बुद्धि रखना। अभिप्राय यह है कि ईश्वर की प्रतिमूर्ति मान कर श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक इनकी सेवा करना। मनीषियों ने ज्ञान का मार्ग दिखाया और इस पर जोर दिया कि आत्मा को शुद्ध करो। मनुष्य का सच्चा ध्येय शुभ कर्म करते हुए, सत्य मार्ग का अनुसरण करते हुए मुक्ति प्राप्त करना है।
मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि मेरी छोटी बहन मधु ने उपनिषदों को पढ़ा, मनन किया और उस पर लिखा। उपनिषदों की सरल व्याख्या सहित, परिचयात्मक पुस्तक लिखी है। आशा है इससे आध्यात्मिक जगत् को लाभ होगा।
विश्व के आध्यात्मिक इतिहास में उपनिषदों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय दार्शनिक चिन्तन के ये मूल स्रोत हैं और तीन हजार वर्ष से भारतीय जीवन का मार्गदर्शन कर रहे हैं। उपनिषद् वह नींव है जिस पर करोड़ों मनुष्यों के विश्वास आधारित है। मानव के अशान्त, जिज्ञासु मन को शान्ति प्रदान करने के लिए इसमें बहुत कुछ है। आध्यात्म चिन्तन की पराकाष्ठा उपनिषदों में विद्यमान है। जिस समय त्यागमूर्ति महान् ऋषियों द्वारा गाये वेद मन्त्रों की दिव्य ध्वनि से सभी दिशायें गूँजती थी उस समय का यह प्रसिद्ध इतिहास है। भारत में प्रत्येक धार्मिक आन्दोलन को यह सिद्ध करना पड़ता है कि वह उपनिषदों के अनुरूप हैं। उपनिषदों द्वारा जीवन और जगत् के भेद ज्ञात होते हैं। संसार का सम्पूर्ण प्रवाह परब्रह्म परमेश्वर से अनुप्राणित है। जिससे ये सत्तायें जन्मी है, जिसमें जन्म लेने के बाद रहती है और जिसमें मृत्यु के पश्चात् चली जाती है वे ब्रह्म है।
मानव स्वभाव परिवर्तनशील है। मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है। उसका स्वभाव सदा से जिज्ञासु रहा है। मैं कौन हूँ? मेरा रचयिता कौन है? मैं किधर जाऊँ? सही रास्ता कौन सा है? मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है? क्या उचित है ? क्या अनुचित है? ऐसे विचार मनुष्य के हृदय में सदा से उठते आये हैं। इन प्रश्नों का समाधान उपनिषदों में मिलता है।
शोपेनहार के अनुसार उपनिषदों में ऋषियों ने चिन्तातुर मन की उस ध्यान मग्न स्थिति का वर्णन किया है जिसमें ब्रह्म के अतिरिक्त कहीं और शान्ति नहीं मिलती। ईश्वर के अतिरिक्त कहीं और विश्राम नहीं मिलता। उपनिषदों के रचयिता ऋषिगण हमें इस प्रधान, यथार्थ सत्ता की प्राप्ति के लिए मार्ग दर्शन करते हैं। जो नित्य सत्य परमसत्य और विशुद्ध आनन्द है। उनके रचयिताओं के सम्मुख जो आदर्श था वह मनुष्य की परम् मुक्ति, ज्ञान की पूर्णता और सत्य के साक्षात्कार का आदर्श था।
असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
मृत्योमां अमृत गमय, वृद्धारण्यक उपनिषद।।
मुझे असत से सत की ओर ले चलो। अन्धकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो।
वैदिक साहित्य में वेदांगों के बाद उपनिषदों का स्थान आता है। जब भी हम किसी वस्तु की खोज करते हैं तब उसके मूल, जड़ की खोज वेदों और उपनिषदों में जरूर करते हैं। वेदों और उपनिषदों में बीज रूप में जो चिन्तन है उसका सम्यक विकास आगे के साहित्य में हुआ है। इस प्रकार उपनिषद् वेदों के विकास की कड़ी हैं। वेदों में जो बातें थीं उन्हीं पर मनन करते-करते ऋषियों ने उपनिषदों की रचना की। वेदों में हम जिस धर्म का बखान पाते हैं वह प्रकृति के तत्वों को सजीव मानने वाले भावुक मनुष्य का धर्म है। वैदिक धर्म का पुराना आख्यान वेद और नवीन आख्यान उपनिषद् है। उपनिषदों में हम वैदिक देवताओं से सांसारिक वैभव, धन, सम्पत्ति एवं सुख की याचना एवं प्रार्थना नहीं करते हैं। बल्कि वहाँ केवल दुख से निवृत्ति के लिए ही मुख्य रूप से प्रार्थना की जाती है।
उपनिषद् वेदों का उल्लेख आमतौर पर आदर के साथ करते है और उनका अध्ययन एक महत्त्वपूर्ण कर्तव्य माना जाता है। वेदों में एक ईश्वर की बात कही गयी है। उपनिषद् के ऋषियों को मुख्य समस्या जो सुलझानी थी, वह थी जगत् का मूल क्या है? परम सत्य क्या है? ऋषियों ने परम सत्य ब्रह्म को बतलाया है। जगत् का मूल सर्वशक्तिमान् अजर, अमर परम्ब्रह्म परमेश्वर है। जो ब्रह्म को जान लेता है, वह ब्रह्म हो जाता है। संसार प्रभु की सुन्दरतम् रचना है। इसे चलाने वाला निर्विकार, अविनाशी ईश्वर है। याज्ञवलक्य ऋषि अपना ध्यान परमब्रह्म के साथ एकता पर केन्द्रित करते हैं। उस स्थिति में कोई इच्छा नहीं रहती है, कोई आवेश नहीं रहता है। यहाँ तक कि कोई चेतना भी नहीं रहती। संसार का उत्पत्तिकर्ता व संचालक परब्रह्म परमेश्वर है। उन्होंने पृथ्वी आकाश, इत्यादि को स्थापित किया है। परमात्मा से ही पूरा संसार उत्पन्न हुआ है। उपनिषदों में जो सूक्ष्म चिन्तन मिलता है उसका मूल नासदीय सूक्त में है। इस सूक्त को लोकमान्य तिलक ने मनुष्य जाति की सबसे बड़ी स्वाधीन चिन्ता कहा है। जिन प्रश्नों को लेकर उपनिषद् जूझ रहे थे, और जिन्हें लेकर चिन्तक आज भी जूझ रहे हैं। उन सभी प्रश्नों के बीज इस सूक्त में निहित है। इस सूक्त में आया है सृष्टि में प्रथम अन्धकार से अन्धकार ढ़का हुआ था। सभी कुछ अज्ञात और सब जलमय था। अविद्यमान वस्तु के द्वारा वह सर्वव्यापी आच्छन्न था। तपस्या के प्रभाव से वही एक तत्व उत्पन्न हुआ।
प्रकृति तत्त्व को कौन जानता है? कौन उसका वर्णन करें ? यह सृष्टि किस उपादान कारण से हुई ? किस निमित्त कारण से ये सृष्टियाँ हुई ? क्या देवता लोग इन सृष्टियों के अनन्तर उत्पन्न हुए है? कहाँ से सृष्टि हुई? यह कौन जानता है ? यह नाना सृष्टियाँ कहाँ से उत्पन्न हुई? किसने इसकी रचना की और किसने नहीं की। यह सब वे ही जाने जो इनके स्वामी परमधाम में है। हो सकता है कि वे भी यह सब नहीं जानते हों। उपनिषदों के समय भारत में जो बौद्धिक चेतना, व्याग्रता आरम्भ हुई उसके कारण नासदीय सूक्त में विद्यमान थे।
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