भूमिका
प्रत्येक समर्थ साहित्यकार अपने युग का दृष्टा, भोक्ता और निर्माता एक साथ होता है। साहित्य अपने युगीन परिवेश में आकार पाता है, इसलिए युगीन प्रवृत्तियों के प्रति रामर्शन और विरोध के स्वर उसमें मिले-जुले रहते हैं। साहित्यकार जो देखता अथवा जानता है उस पर अपने अन्तर्मन में चिन्तन करता है तथा अपनी प्रवृत्ति. संस्कार, शिक्षा अथवा लक्ष्य के अनुरूप अपनी प्रतिक्रिया देता है। इस प्रकार साहित्यकार दृष्टा, भोक्ता और निर्माता की भूमिकाएं एक साथ निभाता है। किसी भी युग का महान् साहित्यकार अपने युग के यक्ष प्रश्नों का उत्तर दिये बिना जीवनदायी जल का पान नहीं कर सकता और शीघ्र ही काल-कवलित हो जाता है। कालजयी साहित्य, अतीत के प्रकाश में वर्तमान से जूझता है और भविष्य को निर्मित करने का प्रयास करता है। समाज, जीता वर्तमान में है, उसकी जड़ें अतीत में होती है और उसकी दृष्टि सदा भविष्य पर रहती है। अतीतजीवी समाज और साहित्य क्षयशील होते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में समकालीन हिन्दी उपन्यास को उत्तर आधुनिकता के सन्दर्भमें विश्लेषित करने का विनम्र प्रयास किया गया है। 'समकालीनता' हमारे विचार से कालसूचक शब्द न होकर 'वैचारिकता' से जुड़ा शब्द है। जिस कालखण्ड विशेष में जो विचारधारा, सशक्त, स्वीकार्य और प्रचलित रहती है, वही हमारी समकालीनता कहलाती है। पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी से दूसरे शताब्दी के इक्कसवें दशक तक आते-आते हमारी समकालीनता बदलने लगी। सूचना प्रोद्योगिकी के अमित विस्तार के कारण वैश्वीकरण और विश्वग्राम की अवधारणाएं जड़ पकड़ने लगीं, आर्थिक उदारीकरण के परिणामस्वरूप 'डंकल प्रस्तावों' के माध्यम से वैश्विक अर्थ-व्यवस्था का निर्माण होने लगा। गत तीस वर्षों में बहुराष्ट्रीय निगमों और 'विश्व व्यापार संगठन' (W.T.O.) के माध्यम से मुक्त व्यापार को व्यावहारिक रूप दिया गया है। भौगोलिक उपनिवेशवाद का स्थान' आर्थिक उपनिवेशवाद' ने ले लिया और मरणासन्न पूंजीवाद अपनी ही राख से फिनिक्स पक्षी की तरह पुनर्जीवित हो उठा। डेनियल बेल ने इस नये विश्व को उत्तर औद्योगिक समाज की संज्ञा दी। मार्शल मैक्लूहान ने हमारे समाज की संरचना को परिवर्तित करने वाली सूचना प्रौद्योगिकी के विकास पर विस्तार से प्रकाश डाला और सिद्ध किया कि तकनीकी निर्धारणवाद ही मानव सभ्यता के विकास को स्पष्ट करता है। 'माध्यमों के वर्चस्व के कारण मनुष्य 'आत्म-चेतना से बिछुड़ता चला गया और एक कृत्लिम दुनिया में जीने लगा। उत्तर आधुनिक समाज के निर्माण में 'मीडिया' की भूमिका आज सर्वन स्वीकार की जा रही है और आज का समाज 'ज्ञानाश्रयी समाज' बनता जा रहा है। डेनियल बेल और मार्शल मैक्लूहान ने उत्तर आधुनिक स्थितियों का चित्क्षण किया है। उत्तर आधुनिकता को विश्लेषित करने में ल्योतार, जेमेसन, बौद्रीआ अथवा बौदीला, देरिदा और हैबरमास आदि की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। ल्योतार ने विकेन्द्रीकरण को प्रमुख प्रवृत्ति माना, जिसके कारण महावृत्तान्तों में अनास्था प्रकट की और अप्रस्तुति योग्य तथा हाशिये में पड़े वर्गों और विषयों पर साहित्य रचा जाने लगा। अप्रस्तुति योग्य को प्रस्तुति योग्य बनाने की प्रक्रिया का परिणाम यह हुआ कि नारी-विमर्श, दलित-विमर्श, ब्लैक साहित्य तथा बनवासी कबीलों पर साहित्य बहुतायत में सामने आया। जेमेसन ने उत्तर आधुनिकता को 'वृद्ध पूंजीवाद' का सांस्कृतिक तर्क करार दिया और 'वृद्ध पूंजीवाद' (Late Capitalisum) को पूंजीवाद के ही विकास का एक रूप माना। 'वृद्ध पूंजीवाद' में बाजारीकरण और पण्यीकरण उन क्षेत्रों में भी प्रवेश कर गया जहां वह अपेक्षित नहीं था। 'सांस्कृतिक व्यापार' भी हमारे युग का सत्य बन चुका है। बौदीला ने हमारे युग को 'उपभोक्ता समाज' की संज्ञा दी। हमारे युग का सत्य यही है कि हर व्यक्ति एक सतत् असंतुष्ट उपभोक्ता बनकर छलनाओं के संसार में भटक रहा है। वस्तुओं की जगह ब्रांड अथवा प्रतीक चिन्हों को खरीद-बेच रहा है, इस बाजारीकरण ने समस्त मान-मर्यादाओं, मूल्यों और आदर्शों को बाजार की वस्तु बना दिया, विक्रय योग्य सामग्री बना दिया। जर्गन हैबरमास ने उत्तर आधुनिकता को आधुनिकता के विकास के रूप में देखा और कहा कि अभी आधुनिकता की बुद्धिवादी, तर्कवादी, लोक कल्याणकारी परियोजना अधूरी है और उत्तर आधुनिकता उसकी पूर्ति का ही प्रयास है। जैक देरिदा ने उत्तर आधुनिकता पर सीधे विचार नहीं किया, परन्तु 'विसंरचनावाद' और 'विखण्डनवाद' के सिद्धान्तों के माध्यम से समकालीन साहित्य को परखने का तरीका विचारकों के सम्मुख प्रस्तुत किया।
लेखक परिचय
1945 में जन्मे चमन लाल गुप्त जी की प्रारम्भिक शिक्षा शिमला (हिमाचल प्रदेश) में हुई। 1969-70 में पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिन्दी) तथा हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से एम.एड. एम.ए. राजनीति शास्त्र (प्रथम श्रेणी, प्रथम स्थान) तथा एम.ए. अंग्रेजी की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। 1977 में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यायल से 'यशपाल के उपन्यासों में 'सामाजिक चेतना' विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। इन्दिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय (दिल्ली) से पत्रकारिता और अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा (स्वर्ण पदक सहित) प्राप्त किया। हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यायल में डॉ. गुप्त 1972 से 2006 तक हिन्दी विभाग में अध्यापन करते हुए आचार्य एवं अध्यक्ष पद से कृतकार्य हुए। इस बीच 1998 से 2003 तक तथा पुनः 2006 से 2008 तक हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड तथा तकनीकि शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष रहे। देश की विभिन्न साहित्यिक, सामाजि संस्थाओं द्वारा सम्मानित डॉ. गुप्त 'भारत तिब सहयोग मंच' के पूर्व राष्ट्रीय संयोजक, पंच शोध संस्थान के हिमाचल के संयोजक अखिल भारतीय साहित्य परिषद् के हिमाचल अध्यक्ष हैं। आपकी समीक्षात्मक पुस्तकों में 'यशपाल के उपन्यासों में सामाजिक कथ्य', 'मोहन राकेश वे कथा-साहित्य में मानवीय सम्बन्ध' तथा 'सुदामा पाण्डे धूमिल की कविता में यथार्थ बोध' प्रसिद्ध है। 'हिमाचल के लोकगीतों का सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन' (2010) आपकी नवीनतम कृति है। परम पावन दलाईलामाजी की जीवनी 'My Land My People' का 'अपनी धरती अपने लोग' के रूप में तथा उनकी एक अन्य प्रसिद्ध पुस्तक 'Ethics for the New Millennium' का 'नई सहस्त्राब्दी के लिये नीतिशास्त्र' पुस्तकों के अनुवाद सहित चार अन्य पुस्तकों का अंग्रेजी से ीि में अनुवाद किया है।
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist