पं. के. का. शास्त्री के नाम से विख्यात गुजरात के वयोवृद्ध (९७) साक्षर ब्रह्मर्षि भारतमार्तण्ड अध्या. (डॉ.) केशवराम काशीराम शास्त्री संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, हिन्दी, अंग्रेजी आदि भाषाओं के मूर्धन्य विद्वान हैं। शास्त्रीजी का परिचय देने में शब्द ओछे पड़ते हैं। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। भाषाशास्त्री, इतिहासकार, कोशकार, वैयाकरण, लेखक, संशोधक, संपादक तो वे हैं ही, इसके अतिरिक्त वे कवि, कीर्तनकार और कलामर्मज्ञ भी हैं। हवेलीगान के तो वे पुष्टिमार्गीय परम्परानुमोदित प्रवीण गायक एवं वादक हैं।
शास्त्रीजी का लेखन विपुल है, उनके लिखे ग्रन्थों की संख्या २१५ से ऊपर होगी। प्राचीन एवं मध्यकालीन जैन एवं जैनेतर गुजराती कवियों पर लिखे उनके समीक्षाग्रन्थ, मध्यकालीन गुजराती साहित्य की काव्य-कृतियों के उनके द्वारा किए गये संपादन गुजराती साहित्य की अमूल्य निधि हैं। अष्टछापीय और पुष्टिमार्गीय व्रजभाषा-साहित्य के भी वे गहन अध्येता हैं। शास्त्रीजी के अगाध पाण्डित्य के संबन्ध में जितना कहा जाय इतना कम है।
शास्त्रीजी के विलक्षण व्यक्तित्व और विपुल कृतित्व का परिचय देना मेरे लिए उदधि को अंजुलि में समेटने के जैसा दुस्साहसपूर्ण कार्य है। २८ जुलाई, १९०५ ई. में माँगरोल-सोरठ में जन्में शास्त्रीजी जीवन के ९७ बसन्त देख चुके हैं। दो वर्ष पश्चात् वे सौवें वर्ष में प्रवेश करेंगे। ऋषितुल्य शास्त्रीजी आज ९७ वर्ष की अवस्था में भी प्रतिदिन १२ से १४ घण्टे स्वाध्याय और लेखन में रत रहते हैं।
शास्त्रीजी के व्यक्तित्व में वृद्धत्व और यौवन का, प्राचीन और नवीन का, विद्वत्ता और नम्रता का, ज्ञान और भक्ति का तथा प्रतिभा के साथ परिश्रम का ऐसा अद्भुत समन्वय है कि जिसे सराहते ही बनता है। गुजरात के भक्त नरसिंह मेहता ने वैष्णवजन के जितने लक्षण बताए हैं वे सब शास्त्रीजी में विद्यमान हैं। वे परदुःखकातर, परोपकारी, निःस्पृह, निरभिमान और निर्मल मन के महानुभाव हैं।
पं. के. का. शास्त्री जी की प्रारंभिक शिक्षा माँगरोल-सोरठ (जि. जूनागढ़) में हुई। उसके बाद कुछ नौकरी मिले इस दृष्टि से वे बम्बई गये। बीमार पड़ जान के कारण वतन में वे आ गये। स्वास्थ्य प्राप्त होने के बाद शेष संस्कृत एवं सांप्रदायिक ग्रन्थों का पू. पिताजी के पास अध्ययन पूरा किया और दि. २०-१-२५ से २८-१२-३५ तक माँगरोल की कोरोनेशन हाईस्कूल में उच्च वर्गों में संस्कृत और गुजराती भाषा का शिक्षणकार्य किया और साथ में दि. १४-१-१९३६ (उत्तरायण दिन) में शास्त्रीजी अहमदाबाद में आये और वहीं बस गए। यहीं से उनके अध्ययन, अनुशीलन, अध्यापन और साहित्य-सर्जन का प्रारम्भ हुआ । वे गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी में संशोधक-पद पर नियुक्त हुए। इस पद पर काम करते हुए उन्होंने गुजराती की हस्तलिखित प्रतियों की सूची तैयार की और 'कविचरित' जैसा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ दो भागों में प्रकाशित किया। उनकी विद्वत्ता को देखकर बम्बई विश्वविद्यालय ने उन्हें सन् १९४४ में अनुस्नातक शिक्षक की मान्यता प्रदान की। सन् १९५५ ई. में गुजरात युनिवर्सिटी ने उन्हें पी-एच्.डी. गाईड के रूप में मान्यता प्रदान की। तभी से उनके निर्देशन में अनेक शोधछात्र कार्यरत हैं । १९ शोधछात्र उनके निर्देशन में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं।
शास्त्रीजी का व्यक्तित्व ९७ वर्ष की आयु में भी आकर्षक है। लालबहादुर शास्त्रीजी जैसा नन्हा कद, महाप्रभुओं के जैसा गौर वर्ण, आबदार मोती की जैसी चमकदार आँखें, प्रशस्त भाल पर पुष्टिमार्गीय लाल तिलक, माथे पर बल खाती, गाँठ लगी प्रलंब शिखा, नुकीली नासिका, पतल होठों पर निरन्तर खेलती हँसी, शास्त्रीजी के व्यक्तित्व की विशेषता है। पोशाक में माथे पर टोपी, छरहरे बदन पर बगलबण्दी और धोती, हाथ में छड़ी और पग में पगरखी या चप्पल । चाल में युवकों को लजानेवाली चपलता और वाणी में विद्वानों को हतप्रभ करती ओजस्विता को देखकर लगता है कि वार्धक्य ब्रह्मर्षि शास्त्रीजी के निकट आने का साहस नहीं कर रहा है।
खानपान और आचार-विचार में शास्त्रीजी पुष्टिपथानुयायी परम वैष्णव हैं। वे प्रतिदिन प्रातःकाल वल्लभसंप्रदाय के मंदिर में जाते हैं। वहाँ पर तन्मय होकर राग-रागिनियों में निबद्ध गान के पद गाते हैं अथवा पखावज पर कीर्तनियों की संगत करते हैं। वहाँ से लौटकर अध्ययन-अनुशीलन में प्रवृत्त हो जाते हैं । सायंकाल सभा-समितियों में जाते हैं तो मन्दिर में शयन के कीर्तन के लिए अवश्य जाते हैं। इस प्रकार शास्त्रीजी जीवन के दसवें दशक में भी प्रवृत्तिमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनकी जीवनचर्या विद्याव्यासंगियों और साहित्यकारों के लिए अनुकरणीय आदर्श है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ शास्त्रीजी के संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषा-साहित्य के गहन अध्ययन-अनुशीलन का सुफल है। उत्तरकालीन अपभ्रंश निर्विवाद रूप से मध्यकालीन आर्य भाषा का अन्तिम स्वरूप है। वह प्राकृत और आधुनिक आर्य भाषाओं के बीच की कड़ी है। इस अपभ्रंश के अन्तिम स्वरूप को विभिन्न विद्वानों ने, अवहट्ठ, देसी, पुरानी हिन्दी, जूनी गुजराती, प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी इत्यादि भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित किया है। शास्त्रीजी ने इसे 'उत्तरकालीन अपभ्रंश' नाम देकर उसके भाषाकीय स्वरूप और साहित्य का परिचय इस ग्रन्थ में दिया हैं।
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