मानव-मूल्य ऐसे सद्गुणों का समूह है या ऐसी आचरण संहिता है, जिसे अपने संस्कारों एवं पर्यावरण के माध्यम से अपनाकर मनुष्य निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए जीवन पद्धति का निर्माण करता है। इससे उसके व्यक्तित्व का विकास होता है। ये मानव-मूल्य एक ओर व्यक्ति के अन्तःकरण द्वारा नियंत्रित होते हैं तो दूसरी ओर उसकी संस्कृति और परम्परा द्वारा क्रमशः परिपोषित होते हैं। किन्तु जीवन के इन महान् मूल्यों का उपयोग जब सर्वजनहित में होता है तभी ये सार्थक माने जाते हैं।
जीवन मूल्यों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है- शाश्वत मूल्य (Eternal Values) एवं परिवर्तमान मूल्य (Changing Values)। शाश्वत मूल्यों में सत्य, अहिंसा, क्षमा, प्रेम, सहानुभूति, बन्धुत्व, एकता आदि सनातन मूल्य आते हैं, तो परिवर्तमान मूल्यों में युगानुसार परिवर्तित होने वाले मानव मूल्यों की गणना होती है। सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग इन चारों युगों में मानवमूल्य क्रमशः उत्तरोत्तर ह्रास की ओर जाते दिखाई पड़ते हैं। जो जीवन मूल्य सतयुग में थे। वे त्रेता में नहीं जो त्रेता में थे वे द्वापर में नहीं, जो द्वापर में थे वे कलियुग में नहीं। यहाँ तक कि कलियुग के विभिन्न चरणों में भी जीवनमूल्यों में विषमता दिखाई पड़ती है। स्वाधीनता संघर्ष के दौरान जो नैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य थे, वे आज नहीं।
धर्म, नीति और मूल्य ये तीनों संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। धर्म का ही व्यावहारिक रूप नीति है और नैतिक धारणा अधिकांशतः मानव मूल्यों के स्पष्टीकरण में सहायक होती है। धर्म और दर्शन नैतिक जीवन के आधार माने गए हैं। भारतीय धर्म एवं सनातन संस्कृति में सहजता, सरलता के कारण सामासिक संस्कृति तथा सबके समावेश के गुण तथा सुदृढ़ता विद्यमान है।
आज एक सामान्य धारणा बन गई है कि ईमानदारी और निष्ठा से काम कर रहे परिश्रमी व्यक्ति कष्ट भोग रहे हैं और मिथ्या, बेईमानी से फरेब करने वाले भ्रष्टाचारी व्यक्ति सुखी और सबके प्रिय बने हुए हैं। ऐसे वातावरण में जीवन के नैतिक आध्यात्मिक और सामाजिक मूल्यों के प्रति लोगों की आस्था डगमगाने लगी है। मानव मूल्यों में गिरावट आने लगी है। ईमानदार को मूर्ख एवं सच्चे, सदाचारी को विवश समझा जाने लगा है। निःसंदेह जीवन मूल्यों में आने वाली गिरावट के प्रमुख कारण पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण, आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों की खोज, चिन्तन में बदलाव, सूचना-क्रांति, भौतिक मूल्यों के प्रति अंधाधुंध मोह, अधिकारों के प्रति दुराग्रह आदि हो सकते हैं। इनके अतिरिक्त विज्ञान तथा तकनीकी विकास से घातक अस्त्रों का निर्माण, आतंकवाद के कारण बढ़ती असुरक्षा की भावना, राष्ट्र के कर्णधार नेताओं में उच्च मानवीय आदर्शों का अभाव, राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त विघटन की प्रवृत्ति का नई पीढ़ी पर प्रतिकूल प्रभाव आदि भी मानव मूल्यों के ह्रास में योगदान दे रहे हैं। तथापि यह निर्विवाद कहा जा सकता है कि मानव मूल्यों का ह्रास अवश्य हुआ है- किंतु पूर्णतः विनाश नही। मानव मूल्यों की उपेक्षा के प्रति समाज का जनाक्रोश इस बात का प्रमाण है कि समाज और राष्ट्र इन जीवनमूल्यों की प्रतिष्ठा चाहता है। अपवित्र साधनों, अनुचित साधनों तथा भ्रष्टाचार से सुख-साधन और धन-मान पाने वालों को समाज प्रतिष्ठा नहीं देता और न देना चाहता है।
शिक्षा समाज रूपी व्यवस्था का एक अभिन्न अंग है। शिक्षा के क्षेत्र में भी अनुशासनहीनता, अध्ययन-अध्यापन में अपेक्षित गुणात्मक स्तर का अभाव, उत्तरदायित्व, कर्तव्य के प्रति उपेक्षा, श्रम के प्रति अनास्था आदि विविध रूपों में दृष्टिगोचर होती है। मानव के स्वाभाविक गुणों के विकास के लिए शिक्षा द्वारा उचित वातावरण प्रस्तुत नहीं किए जाने से सक्रिय, कर्तव्यनिष्ठ, व्यवहारकुशल, आत्मनिर्भर और विकासोन्मुख राष्ट्र के लिए योग्य और आदर्श नागरिक नही बन पाता। अतः आज मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता बड़ी तीव्रता से अनुभव की जा रही है।
मूल्य और आदर्श ये दोनों चरित्रनिर्माण एवं व्यक्तित्व विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। आत्मसात् किए हुए मूल्य ही जीवन के आदर्श बन जाते हैं। जीवन मूल्यों को हमारे समाज ने, महापुरुषों ने स्वीकार किया, उन्हें प्रतिष्ठित किया तभी वे उनके आदर्श कहलाये। सत्य एवं अहिंसा महत्वपूर्ण जीवनमूल्य हैं। महात्मा गांधी ने इन्हें समाज हित में अंगीकृत एवं आत्मसात किया और भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में इनका सफल प्रयोग किया। उन्होंने इन मूल्यों को अपने व्यक्तिगत जीवन में भी अपनाया। तभी ये उनके आदर्श बन गए। जीवनमूल्यों तथा आदर्शों का व्यक्ति के चरित्र से घनिष्ठ संबंध है। इनसे ही व्यक्ति के चरित्र का गठन होता है।
मूल्यपरक शिक्षा का चिन्तन Value Education शब्द का समानार्थी आधुनिक अवधारणा वाला शब्द है। अंग्रेजी के Values शब्द के पर्याय के रूप में मूल्यों को अपनाया जाता है। वैसे वस्तुतः भारतीय संदर्भ में 'मूल्य' शब्द 'गुण' का अर्थ द्योतित होता है। मूल्यों (गुणों) की शिक्षा या मूल्य समाहित शिक्षा अर्थात् ऐसी शिक्षा जिसमें मूल्यों (गुणों) का समावेश हो। यह कोई अलग विषय के रूप में न पढ़ाया जाय बल्कि सभी विषयों के पाठ्यक्रम के माध्यम से शिक्षार्थी में मूल्यों का विकास, अन्तर्निवेशन स्वयं होता रहे। मूल्य या गुणों का समावेश विद्यार्थियों में पुस्तकों या व्याख्यानों के माध्यम से न होकर शिक्षक के आदर्श व्यवहार या अन्य वरिष्ठों के आदर्श और आचरण से प्रभावित करें।
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