वर्तमान समाज मूल्य-संकट की विकट परिस्थितियों से गुजर रहा है। युग की नवीन चेतना के संवात से जीवन संबंधों में परम्परागत मूल्यों के प्रति अविश्वास की भावना जागृत हुई है। साथ ही नवीन मूल्यों के अनिश्चित स्वरूप उभर कर सामने आए हैं। बौद्धिक चेतना ने मध्यवर्गीय समाज और उसके जीवन में उथल-पुथल मचायी है। वर्तमान जीवन-मूल्यों में एक अस्त व्यस्तता, एक प्रकार का विखराव एवं अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। प्रचलित आदर्शों के प्रति न तो कोई सहानुभूति अवशेष है वही वर्त्तमान आदर्शों मूल्यों का निश्चित नियामक स्वरूप स्पष्ट है। वर्त्तमान युग में ऐसी स्थितियां उत्पन्न हुई हैं जिनमें अपनी नियति के इतिहास निर्माण के सूत्र मनुष्य के हाथ से छूटे हुए लगते हैं। मनुष्य दिनों दिन निरर्थकता की ओर अग्रसर होता प्रतीत होता है। यह संकट केवल आर्थिक या राजनीतिक संकट नहीं है वरन् जीवन के सभी पक्षों में समान रूप से प्रतिफलित हो रहा है। यह संकट पूर्व या पश्चिम का ही नहीं वरन् समस्त विश्व में विभिन्न धरातल पर विभिन्न रूपों में प्रकट हो रहा है।
साहित्य मनुष्य का ही कृतित्व है और मानवीय चेतना के बहुविध अनुक्रियाओं में से एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रत्युत्तर है। अतएव साहित्य के विभिन्न आयार्मों को हम तभी अच्छी तरह समझ सकते हैं जब हम उनमें मानव मूल्यों के इस व्यापक संकट के संदर्भ में देखने का प्रयास करें- क्योंकि मानवीय मूल्यों के संदर्भ में यदि हम साहित्य को नहीं समझते हैं तो अवसर हम ऐसे झूठे प्रतिमानों को प्रश्रय देने लगते ह जिनसे समस्त साहित्यिक अभियान गलत दिशाओं में मुड़ जाता है।
नाटक समाज की अनुकृति है। यह सामूहिक एवं जनतात्रिक कला एवं अभिव्यक्ति है। इसका उद्देश्य मनोरंजन से ही पूर्ण नहीं होता वरन् इसमें लोकसंग्रह एवं लोककल्याण की भी क्षमता रहती है। ऐसी धारणा है कि नाटक समाज में उत्तम, मध्यम एवं अधम मनुष्यों के कर्मों पर आश्रित है। इसीलिए नाटक हितकारक उपदेश से युक्त, धैर्य, क्रीड़ा और सुख देने वाला, दुख से पीड़ित, श्रम से थकित और शोक से व्यथित बेचारे लोगों को विश्रान्ति देने वाला, धर्म, यश तथा आयु की वृद्धि करने वाला हितकारक, बुद्धिवर्धक और संसार के लिए उपदेश देने वाला होता है।
नाट्य की इस उद्देश्यपूर्ण अभिव्यक्ति में मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता ही सार्थकता प्रदान करती है। जयशंकर प्रसाद जैसे महान नाटककार वर्त्तमान युग के मनुष्यों को व्यापक जीवन मूल्यों से परिचय कराने, उनके प्रति प्रतिबद्धता प्रदान करने के लिए गहन अंधकार से भी अमृत ज्योति निकाल लाए। अपना संपूर्ण नाट्य साहित्य ही नहीं वरन् काव्य, कथा एवं उपन्यास आदि में भी सनातन मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति प्रदान की। चाहे परम्परागत हो या आधुनिक उनकी लेखनी से सभी प्रकार के मूल्य निःसृत हुए हैं। इसी प्रकार मोहन राकेश का साहित्य आधुनिक मानव के वर्तमान मूल्य-संकट का परत-दर-परत अनुसंधान करता है। आज के आदमी का बेनकाब चेहरा राकेश ने बिना मुखौटे के ऐसे ला खड़ा किया है कि आदमी हत्प्रभ रह गया है। साथ ही रंगमंचीय उद्देश्य की व्यापक सार्थकता साबित हुई है- आवश्यकता है इसे मानवीय मूल्यों के संदर्भ में देखने की। जैसा कि मैंने पूर्व की कहा है कि मानवीय मूल्यों के संदर्भ में यदि हम साहित्य को नहीं समझते तो अक्सर हम ऐसे झूठे प्रतिमानों को प्रश्रय देने लगते हैं कि हमारी बोध की दिशाएँ मुड़ जाती हैं।
अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद एवं मोहन राकेश के रचना- संसार से हमारा व्यापक संपर्क होता आया है। मेरे मानस को इनके साहित्य ने अत्यधिक प्रभावित किया है। इनके नाटकों का मानवीय मूल्यों के, संदर्भों में अध्ययन का यह विशिष्ट अवसर भी इन्हीं से प्राप्त हुआ है।
इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में मूल्यों के स्वरूप, परिभाषा, विकास, मूल्य-निर्माण की प्रक्रिया, मूल्यसंक्रमण आदि की विवेचना है। इसके साथ ही नैतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में मूल्य का विश्लेषण हमारा प्रयत्न है।
द्वितीय अध्याय में साहित्य और मूल्यबोध के परिदृश्य में नाटक को जांचा-परखा गया है। इस संदर्भ में नाटक की महत्ता एवं व्यापकता को देखते हुए मूल्यबोध को कसौटी के रूप में जांचने का प्रयास किया गया है।
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