'साहित्य समाज का दर्पण होता है' यह उक्ति हिंदी साहित्य के महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद के सृजन-संसार पर पूर्णतः लागू होती है। उनका साहित्य केवल कथा-रचना नहीं, बल्कि सामाजिक यथार्थ का सजीव चित्रण है। इसमें शोषित-पीड़ित वर्ग की वेदना, किसानों और मजदूरों की दुर्दशा, नारी अस्मिता, दलितों का संघर्ष, सांप्रदायिक सौहार्द, एवं आदर्शवाद और यथार्थवाद का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है। उनके पात्र केवल कथा के पात्र नहीं, बल्कि समाज के भोगे हुए यथार्थ के प्रतीक हैं। वे अपने संघर्षों, कमजोरियों और मानवीय संवेदनाओं के कारण पाठकों को झकझोर देते हैं। बूढ़ी काकी, चार बेटों वाली विधवा, शतरंज के खिलाड़ी और सदति जैसी रचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि प्रेमचंद का साहित्य मात्र मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि समाज सुधार का एक सशक्त औजार भी है। उनके लेखन में दलितों, महिलाओं, किसानों और अन्य वंचित वर्गों की समस्याओं को प्रभावी रूप में उठाया गया है, जो उनके यथार्थवादी दृष्टिकोण को रेखांकित करता है। प्रेमचंद ने अपने युग में व्याप्त जातीय भेदभाव और छुआछूत की समस्या को खुले रूप में प्रस्तुत किया। कहानी 'सदति' इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें एक दलित पात्र दुखू चमार की त्रासदी को अत्यंत मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है। दुखू एक पंडित से अपनी बेटी के विवाह के लिए शुभ मुहूर्त जानने जाता है, लेकिन अंततः उसे शोषण, अपमान और मृत्यु का सामना करना पड़ता है। यह कहानी समाज में व्याप्त क्रूर जातिवादी मानसिकता को उजागर करती है। इसीप्रकार 'कफन' जैसी कहानियाँ समाज के सबसे निचले तबके की आर्थिक और नैतिक विडंबनाओं को उजागर करती हैं। जिसमें माधव और घीसू जैसे पात्र गरीबी और असहायता की उस अवस्था में हैं जहाँ मृत्यु भी उनके लिए एक सामान्य घटना बन जाती है। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद यह दिखाते हैं कि जब तक समाज की आर्थिक व्यवस्था में सुधार नहीं होगा, तब तक नैतिकता की बातें खोखली साबित होंगी।
'गोदान' उपन्यास में होरी जैसे पात्र के माध्यम से उन्होंने भारतीय किसान के संघर्ष, उसकी आकांक्षाओं और अंततः उसकी असफलता को दर्शाया है। होरी आजीवन मेहनत करता है, परंतु अंत में कर्ज, सामाजिक दबाव और आर्थिक विषमता के बोझ से दबकर मर जाता है। यह यथार्थ समाज की उस पीड़ा को उजागर करता है जो शोषण की जड़ में बैठी है। प्रेमचंद ने स्त्री-विमर्श को भी अपने लेखन का एक महत्वपूर्ण विषय बनाया। 'निर्मला' उपन्यास में उन्होंने बाल-विवाह, दहेज प्रथा और स्त्री की विवशता को केंद्र में रखा। निर्मला एक युवा और शिक्षित लड़की है, जिसे अपने से कई गुना बड़े पुरुष से विवाह करना पड़ता है। यह विवाह न केवल उसे मानसिक रूप से तोड़ता है, बल्कि परिवार को भी बिखेर देता है। प्रेमचंद ने समाज की उस व्यवस्था की आलोचना की है जो स्त्री को अपनी इच्छाओं से वंचित कर देती है।
इस तरह हम देखते हैं कि प्रेमचंद का साहित्य न केवल एक लेखक का मानवीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, बल्कि वह एक समाजशास्त्री की पैनी दृष्टि से भी युक्त है। उन्होंने अपने लेखन में यथार्थ का चित्रण करते हुए समाज के वंचित वर्गों की समस्याओं को मुख्यधारा में लाने का कार्य किया है। उनके साहित्य की विशेषता यह है कि वह पाठकों को सोचने पर विवश कर देता है और सामाजिक परिवर्तन की प्रेरणा देता है। इस प्रकार, प्रेमचंद का साहित्य केवल कथा-रचना न होकर, समाज का एक दर्पण है, जिसमें तत्कालीन भारतीय समाज की सच्चाइयाँ प्रतिबिंबित होती हैं।
संगोष्ठी का आयोजन, उद्देश्य एवं स्वरूप :-
मुंशी प्रेमचंद के साहित्य के विविध पक्षों पर विचार के दृष्टिकोण से 20 अप्रैल 2024 को एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया, जिसका विषय था- 'मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में विविध विमर्श'।
इस संगोष्ठी का मुख्य उद्देश्य प्रेमचंद के साहित्य में निहित विभिन्न विमर्शों को गहराई से समझना और समकालीन संदर्भ में उनकी प्रासंगिकता का विश्लेषण करना था। इसमें देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों से हिंदी साहित्य के विद्वानों, शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों ने भाग लिया और प्रेमचंद के साहित्य पर अपने गहन विचार प्रस्तुत किए।
इस संगोष्ठी की गरिमा को बढ़ाने के लिए हिंदी साहित्य के प्रमुख विद्वानों एवं प्रेमचंद साहित्य के मर्मज्ञों ने अपने विचार साझा किए। इनमें प्रमुख है-
1 डॉ. आरसु (अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कालीकट विश्वविद्यालय, केरल, सेवानिवृत्त)
2. डॉ. राम सुधार सिंह (अध्यक्ष, हिंदी विभाग, उदय प्रताप महाविद्यालय, वाराणसी, उ. प्र., सेवानिवृत्त)
3. डॉ. राम सिंहासन सिंह (प्राचार्य, आर. एल. एस. यादव कॉलेज, गया, बिहार, सेवानिवृत्त)
4. डॉ. मनोज कुमार सिंह (आचार्य, हिंदी विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उ. प्र.)
5. डॉ. आशीष त्रिपाठी (आचार्य, हिंदी विभाग, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी, उ. प्र.)
इनके अतिरिक्त, प्रो. लता चौहान, डॉ. विनय कुमार यादव, डॉ. शुभा श्रीवास्तव एवं डॉ. उषा रानी राव ने भी सत्र अध्यक्ष के रूप में अपनी गरिमामयी उपस्थिति दर्ज कराई।
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