आपके हाथों में जो पुस्तक है- 'विश्वगुरु भारत', वह केवल इतिहास का दस्तावेज नहीं, बल्कि आत्मबोध और गर्व की एक जीवंत प्रेरणा है। यह पुस्तक विशेष रूप से उन युवाओं के लिए लिखी गई है जो आधुनिक शिक्षा और वैश्विक सोच के बीच कभी-कभी अपनी सांस्कृतिक जड़ों और ऐतिहासिक उपलब्धियों से अनभिज्ञ रह जाते हैं। हमारा उद्देश्य है- आपको उस भारत से परिचित कराना जो कभी समूचे विश्व का ज्ञानदीप था।
क्या वास्तव में भारत 'विश्वगुरु' था?
इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए हमें उस काल में लौटना होगा जब तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों में दूर-दूर से विद्वान् आते थे, जब पाणिनि ने भाषा विज्ञान की नींव रखी थी, और जब शून्य और दशमलव की अवधारणाएँ संपूर्ण गणित को एक नया आकार दे रही थीं।
भारत ने न केवल गणित में, बल्कि भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, खगोल विज्ञान, शिक्षा, चिकित्सा, भाषा, संगीत, नृत्य, और वास्तु कला जैसे क्षेत्रों में भी ऐसे-ऐसे योगदान दिए हैं, जो आज भी आधुनिक विश्व के लिए आश्चर्य का विषय हैं। कणाद का परमाणु सिद्धांत, आर्यभट्ट की खगोल संबंधी गणनाएँ, चरक और सुश्रुत का आयुर्वेद, और नाट्यशास्त्र की कला-व्याख्या- ये सब एक समृद्ध और वैज्ञानिक सोच वाले समाज की पहचान है।
यह पुस्तक ज्ञान और संस्कृति की उन जड़ों की याद दिलाने का प्रयास है, जिन पर हमारी आधुनिक पहचान टिकी है। हमें यह समझना होगा कि 'विश्वगुरु' कहलाना केवल एक गौरवशाली पद नहीं, बल्कि उस जिम्मेदारी की भी पहचान है, जो हमें आज के भारत को फिर से ज्ञान और मूल्यों का केंद्र बनाने के लिए प्रेरित करती है।
युवाओं से मेरा आग्रह है- इस पुस्तक को केवल पढ़ें नहीं, बल्कि आत्मसात करें। जानें कि आप एक ऐसी परंपरा के उत्तराधिकारी हैं, जिसने कभी पूरे विश्व को सोचने का तरीका सिखाया था। यह गौरव केवल अतीत की कहानी नहीं, बल्कि भविष्य के निर्माण की नींव है।
आइए, हम मिलकर फिर से उस 'ज्ञान यात्रा' की शुरुआत करें- एक ऐसे भारत की ओर, जो पुनः 'विश्वगुरु' कहलाए - इस बार और भी व्यापक, और भी उज्जवल ।
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