पाश्चात्य जगत में काव्य-कला के विवेचन विश्लेषण की एक समृद्ध परम्परा रही है। यूनान में, ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी के मध्य प्लेटो ने काव्य-कला के विविध रूपों-महाकाव्य, कॉमेडी और विशेष रूप से ट्रेजेडी के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त किये थे उनकी प्रतिक्रिया में उनके शिष्य अरस्तू ने काव्य-कला के महत्त्व और जीवन में उसकी उपयोगिता पर नवीन दृष्टि से विचार किया। इस वैचारिक संघर्ष से काव्य-कला सम्बन्धी चिन्तन में नयी ऊर्जा का संचार हुआ। तब से आधुनिक काल तक यूरोप को विभिन्न भाषाओं में काव्य-कला के सम्बन्ध में विचारकों के नये-नये विचार व्यक्त होते रहे हैं। अमेरिका, रूस आदि के विचारकों ने भी काव्य-कला की समीक्षा के क्षेत्र में नवीन नवीन दृष्टियों का प्रवर्तन किया है। साहित्य-समीक्षा के नये-नये प्रतिमान तो प्रवर्तित हुए ही है, कुछ साहित्यकारों और समीक्षकों ने साहित्य-साधना के उद्देश्य के सम्बन्ध में कुछ सामूहिक घोषणा-पत्र भी तैयार किये हैं। यही नहीं, साहित्य की वैयक्तिक साधना की जगह, समान रुचि के कुछ साहित्यकारों के द्वारा सामूहिक साहित्य-साधना का अभिनव प्रयोग भी किया गया। इस प्रकार रचनाकार की वैयक्तिक रुचि की जगह लोक-रुचि को प्रश्रय देने का प्रयास किया गया, कवि को कारयित्री प्रतिभा को व्यक्ति से समूह तक विस्तार देने का आयास किया गया। ऐसे प्रयास रोचक तो थे पर उनका वांछित फल नहीं मिल पाया, क्योंकि कवियों की वैयक्तिक प्रतिभा नये-नये मार्ग की खोज करती रही। वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज काव्य-सृजन की सह-यात्रा में कुछ ही दूर तक साथ चल सके ।
जीवन-सत्य को अभिव्यक्त करने वाला साहित्य सनातन और सार्वभौम होता है। उसमें पाश्चात्य, पौर्वात्य जैसे विशेषण विवेचन की व्यावहारिक सुविधा के लिए ही प्रयुक्त होते हैं। यह विभाजन तात्त्विक नहीं है। सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, आशा-निराशा, प्रेम-घृणा आदि के भाव देश और काल की सीमाओं में बँटे नहीं होते । साहित्य मानव हृदय के सार्वभौम शाश्वत भावों को कलात्मक अभिव्यक्ति देता है। अतः वह देश-काल की सीमा से मुक्त होता है। उसमें जातीय विशेषता आती है- भावों की अभिव्यक्ति की अलग-अलग पद्धतियों के कारण, अभिरुचि और संस्कार के भेद के कारण तथा सामाजिक परिस्थितियों की भिन्नता के कारण । भारतीय और पाश्चात्य विचारक साहित्य के सनातन मूल्यमान के अनुसंधान के क्रम में जो विचार व्यक्त करते रहे हैं उन पर तुलनात्मक दृष्टि डालने से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि अनेक पाश्चात्य विचारकों के विचार कुछ भारतीय विचारकों के विचार के बहुत निकट हैं, जबकि अनेक पाश्चात्य विचारकों के विचार एक-दूसरे से बहुत दूर है। विचारों को यह निकटता या दूरी जीवन-दर्शन, अभिरुचि, संस्कार और सौन्दर्य-दृष्टि की समानता असमानता के कारण आयी है, देश-भेद के कारण नहीं । काल मौ विचार के सनातन मूल्य में बाधक नहीं होता। काव्य-समीक्षा-विषयक अनेक आधुनिक विचार कुछ प्राचीन विचारों की प्रतिध्वनि जैसे जान पड़ते है।
पाश्चात्य विचारकों ने काव्य को कला का ही एक रूप माना है, जबकि भारतीय विचारक काव्य की स्वायत्त सत्ता तो मानते ही रहे हैं, उसे अन्य कलाओं से श्रेष्ठ भी मानते रहे हैं।
भारतीय विचारकों की दृष्टि में काव्य और चित्र-संगीत आदि कलाओं में अन्तः सम्बन्ध होने पर भी माध्यम के कारण एक तात्विक भेद आ जाता है। जहाँ कलाओं के माध्यम रेखा, स्वरलहरी आदि अर्थहीन होते हैं, वहाँ काव्य का माध्यम भाषा स्वयं अर्थवान होती है। अर्थहीन माध्यम से सार्थक सृष्टि कला है, तो अर्थवान माध्यम से सार्थक सृष्टि काव्य है। यही दोनों का मौलिक भेद है। अनन्त भाव-राशि और जटिल विचार-प्रवाह को सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति देने की जैसी शक्ति अर्थवान भाषा में है, वैसी कलाओं के अर्थहीन माध्यम में नहीं आ सकती। यही कला की तुलना में काव्य की श्रेष्ठता का कारण है। भाषा स्वयं ही अर्थहीन ध्वनियों से मनुष्य के सामूहिक मन के द्वारा निर्मित एक अर्थवान कला है, जो काव्य का माध्यम बनती है। अर्थ के अन्तर्बोध से लेकर काव्य में उसकी अभिव्यंजना तक भाषा सक्रिय रहती है। महान रचनाकार भाषा-प्रयोग-कौशल से उसमें नयी-नयी शक्तियों का संचार करते रहते हैं। मनुष्य की समग्र बौद्धिक और कलात्मक उपलब्धियों को सौन्दर्यात्मक अभिव्यक्ति देने वाले काव्य को कुछ भारतीय विचारकों ने विद्या के अन्तर्गत परिगणित कर उसे अन्य कलाओं से स्वतंत्र और श्रेष्ठ घोषित किया है।
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