प्राचीन काल से आज के आधुनिक सभ्य कहलाने वाले काल तक स्त्रियों पर लगातार अत्याचार बढ़ रहे हैं। प्राचीन काल के अत्याचारों की शक्ल कुछ और थी और आज होने वाले अत्याचारों की शक्ल-सूरत कुछ और भयानक हो गयी है।
इन अत्याचारों का 'रिफ्लेक्शन' किसी भी भाषा के साहित्य में अवश्य प्रतिबिंबित होता रहा है। साहित्य की हर छोटी-मोटी विधा, स्त्री-अत्याचार, स्त्री-उत्पीड़न, बलात्कार, घरेलू हिंसा, पारिवारिक सामाजिक-आर्थिक दासता, मानसिक गुलामी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभाव 'तू औरत है (तू लड़की है) इस प्रकार का दिया जाने वाला उद्बोधन आदि से तंग आकर स्त्री दो बातों में आ गयी- एक 'सहना ही है' और दूसरा, 'अब नहीं, बहुत हो चुका। इसका ही परिणाम है 'स्त्री-विमर्श' का जन्म।
मनुष्य एक ऐतिहासिक प्राणी भी है। सदियों पुराना उसका एक इतिहास भी है। आदिमानव से आज के भूमण्डलीय इलेक्ट्रानिक रोबोट की दुनिया तक का इतिहास का सफर। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इंटरनेट-फेसबुक का सफर। गाँव से शहर तक का सफर-इतिहास नहीं तो और क्या है? यही इतिहास वर्तमान को जगाता है और भविष्य के जन्म की पृष्ठ भूमि तैयार करता है। यही बात दलित-विमर्श और स्त्री-विमर्श पर ज्यों की त्यों लागू होती है।
प्राचीन काल में उनकी मान्यतानुसार बहु पतित्व की सामाजिक मान्यता थी। प्राचीन समाज उस मान्यता का अनुसरण भी करता था और जीवन यापन करता था, लेकिन उस समय भी क्या स्त्रियों पर बलात्कार नहीं होता था? औरतों को भोग्या समझकर उसके साथ अत्याचार नहीं होता था? दुर्योधन या कौरवों ने द्रौपदी के साथ क्या सभ्य व्यवहार किया था ? यह प्रथा 'रघु-काल' से 'रावण-रूप' में और 'कौरव-पांडव काल' से आज के काल तक सुरक्षित रूप में चली आ रही है। इसका उदाहरण दिल्ली की दामिनी (निर्भया) भी इसकी शिकार बन गयी है। आये दिन दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई जैसे महानगरों में कई दामिनियाँ बलात्कार की शिकार हो रही हैं।
जब निर्भया की माँ आशा देवी ने कहा कि आजादी और गणतंत्र तभी सार्थक होगा, जब महिलाएँ सुरक्षित होंगी। यह कहना है दामिनी (निर्भया) की माँ और पिता बद्रीनाथ सिंह का। वे गणतंत्र दिवस के एक दिन पूर्व इन्दौर में- 'अपना समूह तिरंगा अभियान समिति' द्वारा आयोजित कार्यक्रम में आये थे।
स्त्री-जीवन की दशा और दिशा पर आज हमें गहराई से सोचने की जरूरत है। बाबा साहेब अम्बेडकर जी ने कहा था कि, 'हर वर्ग की स्त्री आज दलित है।' दलितों और सभी स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार ने उन्हें यह कहने पर मजबूर कर दिया होगा और आज हम देखते हैं कि हर वर्ग की स्त्री पर स्त्रियों और पुरुषों द्वारा अत्याचार ढ़ाने का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। इसी के परिणाम-प्रतिक्रिया स्वरूप साहित्य सामाजिक बदलाव के लिए विविध-रूपों में जन्म लेता रहा है जैसे स्त्री की दशा-दिशा, भूमिकादि को कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा, जीवनी, रेखाचित्रादि में स्त्री को विमर्शित करता रहा है और आज तो तीव्र रूप में 'स्त्री-विमर्श' और 'दलित-विमर्श' के रूप में सामाजिक सोच में परिवर्तन और बदलाव ला रहा है।
प्रा० रवीन्द्र ठाकरे द्वारा संपादित पुस्तक प्रथम दशक के हिन्दी साहित्य में स्त्री व दलित-विमर्श' इसी का प्रमाण है। विविध विद्वान लेखक-लेखिकाओं द्वारा जो आधुनिक परिवर्तित विचार अभिव्यक्त किये गये हैं वह पाठक को सोचने के लिए केवल उद्दीपित ही नहीं करते बल्कि हमें बेचैन भी करते हैं। विशेष रूप में बदलते हुए जीवन-संदर्भ को लेकर दलित-साहित्य की सभी विधाएँ, स्त्री-विमर्श को लेकर स्त्रियों की और पुरुषों की प्राचीन, अर्वाचीन और पुरुगामी सोच, स्त्रियों की बहू के प्रति रूढ़िवादी-दकियानूसी सोच, बहू भी बेटी ही है, न मानते हुए दहेज की माँग और स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार और जुल्मों का कहर इस संपादित पुस्तक में उजागर हुआ है।
जाति, धर्म, संप्रदाय, पंथ, वर्ण आदि मनुष्य द्वारा निर्मित काल्पनिक जीवन प्रदाय हैं- ये न सत्याधिष्ठित हैं न तर्काधिष्ठित। प्रस्तुत पुस्तक में जिस भी विमर्श की बात की गयी है वह लेखकों का स्तुत्य प्रयास है। यह प्रयास पहला पायदान नहीं है बल्कि न समाप्त होने वाली राह है और राही चलते ही जाने वाले मुसाफिर हैं, कभी न समाप्त होने वाली मंजिल तक।
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