भूमिका लिखने बैठा तो महसूस हुआ कि यादों का दायरा जिन्दगी से ज्यादा बड़ा है। बीते पल इतने प्रिय क्यों बन जाते हैं, यह आज तक समझ में नहीं आया। ऐसा हम सभी के साथ होता है। किन्तु वर्तमान जीवन की समस्याओं में हम इतने उलझे होते हैं कि बीते क्षण को याद करने की फुर्सत नहीं मिलती। साग-सब्जी, तेल-मसाला की सोचें कि बैठे-बैठे अतीत का चिन्तन करें। मेरे साथ ऐसा ही होता है। वह फिल्मी गाना उस सच्चाई की ओर इशारा करता है कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन। अतीत पर विचार कीजिए तो अपने ऊपर ही आश्चर्य होता है। इतने साल गुजार दिए, उन यादों को थपकियाँ देकर सुलाते रहे। इन थपकियों ने किसको नहीं बेचैन किया।
मेरी याद आती तो होगी 'फिल्मी गीत' सुनकर मैं भावुक हो उठा। अपने रसोइए ज्ञानेन्द्र से कहा अपने मोबाइल पर वह गीत लगा दो। गीत चलने लगा और उन क्षणों में मेरे हृदय की धड़कने तेज हो उठीं। किससे किससे पूहूँ कि क्या तुम्हें मेरी याद आती है ? मूक मन गुनगुनाता रहता है। कमरे में रात का अंधेरा पसरा है बिजली का स्वीच ऑफ है किन्तु मन जगा हुआ है। गाने गूँज रहे हैं। चुपके-चुपके गाने का आनन्द ही कुछ और होता है। आप भी तो गाते होंगे ? ये बातें मेरे दिल की धड़कने हैं। ऐसी धड़कनें जो आज तक खामोश नहीं हुई। यद्यपि प्रेम के पड़ाव से मेरी उम्र गुजर चुकी है। फिर भी उन पड़ावों को भूल पाना कठिन लगता है, ऐसा क्यों ? इसका उत्तर कौन देगा।
मैंने बच्चों को गाते हुए सुना है, जवानों और बूढ़ों को भी सुना है। सभी में एक संतोष और खुशी की लहर उठती है। नींद न आए वैरी नींद न आए, सारी सारी रात तेरी याद सताए। जो सताया गया है वह इन पंक्तियों में अपने को ढूँढ़ेगा। परवाह नहीं कि दुनिया उसे क्या-क्या कहती है रंगीला, दिलफेंक, मनचले। इसी को प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने कहा था उठ उठ री लघु-लघु लोल लहर। मैं समझता हूँ कि लोल लहरों से वंचित मनुष्य साहित्य और संगीत से हमेशा दूर रहेगा।
पुस्तक के टंकन में प्रवीन बंसल ने सार्थक सहयोग किया है।
प्रस्तुत पुस्तक की रचनाओं पर गीत-संगीत का प्रभाव है। ये रचनाएँ आपको गुदगुदाएंगी। कोई रचना आपको सोचने पर मजबूर कर देती है, यह और बात है। जिन्दगी में देखने-सुनने को बहुत कुछ मिला।
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