समझ छिछली होती जा रही है। गहराई गायब है और उसकी आवश्यकता भी अनुभव नहीं की जाती। संगीत में, धर्म में, साहित्य या इतिहास में छिछलापन छा गया है जो गहरे हैं उनसे रिश्ता टूटता जा रहा है और वे अकेले जीने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। कुछ साल पहले खबर थी कि विशेषज्ञता का जमाना आएगा। तब विस्तार और गहराई दोनों के प्रति हम आश्वस्त थे। आज उथलापन सर्वोपरि है। कृति से, रचना से, विचार से व्यक्ति का जुड़ा होना, उसकी निजता अब मायने नहीं रखती। यदि यह अगली सदी का आभास है तो बड़ा भयावह है। धर्म में ईश्वर खोजने की बजाय उपयोगिता तलाशी जाने लगे तो किसी कम्युनिस्ट का पोप के प्रति आदर जताना या किसी पण्डित का मौलवी से बात न करना समान है, क्योंकि सब-कुछ जरूरत के तराजू पर तोल कर हो रहा है। सिद्धान्त थे तो दृढ़ता थी। मूल्य होते हैं तो उस पर डटे रहने की जिद होती है। अब बयान बदलने का संकोच समाप्त हो गया, धुन चुराने में शर्म नहीं आती, कविता जगह घेर कर प्रसन्न है, इतिहास मात्र एक सन्दर्भ है, अब सफलता सीढ़ियों द्वारा ही केवल नापी जाती है। बिक्री हो जाने की क्षमता श्रेष्ठता का अन्तिम प्रमाण है। केवल उपभोक्ता बाजार में ही गुणवत्ता अपने होने की सूचना दे पाती है। कुछ साल पहले तक स्थितियाँ इतनी गिरी हुई नहीं थीं।
भीड़ आपसे अपरिचित है और आप भीड़ से। अन्य शक्तियों की तरह भीड़ भी अब डराती है। चूँकि व्यक्ति के उन्नयन की सम्पूर्ण प्रक्रिया भ्रष्ट है, अतः प्रवर्तक शक्ति के रूप में आप भीड़ को देखने में संकोच करते हैं। वह उपयोग की जा सकती है, मूर्ख बनायी जा सकती है, धोखा खा सकती है। भीड़ या समाज का समूह अब पावन तालाब या पवित्र गंगा नहीं रहे। इसकी कोई गारण्टी नहीं कि वह आपको सही ढाँचे में ढालकर, निखारकर ले आएगी। जन की विराट उपस्थिति अब गाँधी या लेनिन को ताकत नहीं देती, न उभारकर लाती है। पहले अकेला आदमी खरीदा जा सकता था, अब भीड़ खरीदी जा सकती है। विदेश का पैसा आपके देश का एक पूरा प्रान्त खरीद सकता है। कुछ साल पहले बुद्धिजीवी यह सोच मन को समझा लेते थे कि जो भी गलत, गड़बड़ या अशुभ है वह जनशक्ति द्वारा सुलझाया या सँवार लिया जाएगा, यदि ऐसा नहीं होता तो समझने में गड़बड़ है। क्या वह आज भी उतने ही जोर से यह बात कह सकता है? विचारों के, मान्यताओं के आग्रह जन-विरोधी न हों, फिर भी जन की कोई कसौटी उन्हें परखने के लिए उपलब्ध नहीं है। आदमी को उसके इतिहास से, मानव संस्कृति की धारा से काटकर शुद्ध वर्तमान में बाँधकर खड़ा कर देने की जो साजिश बीस वर्ष पूर्व चालू हुई थी, वह अब अपना रंग दिखा रही है। आज आप राइफल थमाकर आदमी की आत्मा अपने पास गिरवी रख सकते हैं।
इन वर्षों में मरने की खबर कोई खबर नहीं। क्या हो गया कि मनुष्य की संवेदनशीलता इन वर्षों में इतनी कम हो गयी है और जो इसका ढिंढोरा पीटते हैं कि उनकी आत्मा को कष्ट पहुँचा है वे अपनी राजनीति के लिए एक अनिवार्य पाखण्ड कर रहे हैं, यह सभी जानते हैं। इन सालों में हमने रोज सुबह की शुरूआत मरने की खबर पढ़कर की और देर रात एक मनोरंजक कार्यक्रम देख सो गये। साँस लेने और साँस छोड़ने की तरह तनाव में जीना और तनाव से मुक्ति ही जीवन की मात्र गतिविधि रह गयी है। तीखे, गहरे प्राणलेवा नशे से लेकर लाइब्रेरी से वीडियो कैसेट ला फिल्में देखने तक की क्रियाएँ समस्याओं से पलायन हैं। मनुष्य का यह रूप, मौत के समाचारों की उपेक्षा करेगा ही।
बृहत्तर समाज की समस्याओं के प्रति चिन्तित होना उच्च वर्ग ने तब से छोड़ दिया, जब से देश में नवधनाढ्यों की संस्कृति उभरकर आयी। अब मध्यमवर्ग ने भी यह रुख अपना लिया है। यह जानते हुए भी कि सरकार सारे मामले सुलझा नहीं सकती, लोग हर समस्या सरकार की ओर धकेलते हैं और सरकार जवाब में लोगों की तरफ धकेल देती है। एकदम अकेले हो जाने और निजी स्वार्थ में सबसे कट जाने के बाद मनुष्य अपने विकास के चोर रास्ते खोज रहा है। अब बाप उँगली पकड़कर अपने बेटे को चौड़े रास्ते पर छोड़ने के बजाय गलियों से आगे बढ़ जाने की सलाह देता है। नवविवाहित दहेज के लिए वधुएँ जलाता है, गाँव की आर्थिक हालत ठीक करने के लिए महिला को सती किया जाता है और दूसरे को नौकरी मिल जाएगी, इस आशंका से उत्पन्न पीड़ा आत्मदाह के लिए प्रवृत्त कर सकती है। तो कुल मिलाकर आज के आदमी का क्या रूप बनता है! बस साल भर पहले कश्मीर से जुड़े रहना एक राष्ट्रीय भावना थी। आज ऐसे लोग मिल जाएँगे जो यह पूछते नजर आएँगे कि हम कश्मीर छोड़ क्यों नहीं देते ? मतलब अपना कारखाना फायदा देता रहे, हमारी फर्श संगमरमर की हो, हमारी गाड़ी फुलटैंक रहे, हमारा कन्साइन्मेण्ट मंजिल तक पहुँच जाए, मेरे बेटे की दुकान चल जाए इसके आगे आदमी ने सोचना बन्द कर दिया है। आज से बीस साल पहले छात्रों के, ट्रेड यूनियनों के आन्दोलनों को राजनीति-विहीन करने की जो साजिश तत्कालीन सत्ताधारियों ने आरम्भ की थी और उच्च वर्ग ने राष्ट्रीय विकास का बहाना लेकर जिसकी हाँ-में-हाँ मिलाई थी, उसके नतीजे सामने आ गये हैं। कोई दृष्टि नहीं रही। नैतिकतावादियों को निरन्तर परेशानियों का सामना करना पड़ता है और खुलेआम स्वार्थ का खेल खेलनेवाले नेताओं की जमीन मजबूत है। आज प्रश्न यह रह गया है कि क्या विचार को, ईमानदारी को जनाधार प्राप्त होगा ? ऐसा प्रश्न इस देश के इतिहास में पहले कभी नहीं उठा।
अँग्रेजी में कहते हैं डोण्ट बॉदर मी यानी मुझे तंग मत करो! जवाब में मैं तुम्हें बाँदर नहीं करूँगा। मैं बीमार हूँ, तो पड़ोसी मुझे देखने कृपया न आये और वह बीमार है तो मैं क्यों जाऊँ ! मैं गड्ढे में पड़ा हूँ यह मेरा मामला है और तुझे लोग गड्ढे में ढकेल रहे हैं, इसकी चिन्ता तू कर! मानो पीड़ा न हुई, आदमी की निजी बियर की बोतल हो गयी जिसे राष्ट्र के इस अँधेरे बार में, निजी एकान्त खोज पीते समय वह डिस्टर्ब होना पसन्द नहीं करता। यदि वह भीड़ में बम फेंक कर हत्या भी करता है तो वह चाहता है कि इसे उसका निजी मामला माना जाए। उसका आग्रह है कि उसे पर्याप्त आदर मिले-हत्यारे के रूप में आदर मिले। अपराधियों को यह सोच आश्चर्य होता है कि उनके द्वारा किये सामूहिक बलात्कार के कृत्य पर इतनी चर्चा क्यों की जा रही है!
आज से कुछ साल पहले अपराधी सिकुड़कर बैठता था। अब वह चौड़ा होकर बैठता है। उसका किसी से कोई ताल्लुक या सरोकार नहीं। जैसे अपराध एक निजी जीवन-दर्शन हो। जब हम देखते हैं कि दस अपराध करने के बाद भी नेता टी. वी. के सामने न केवल मुस्कराता है बल्कि देश के मामलों में सीना चौड़ा कर बयान देता है, तो हम समझ नहीं पाते कि बेशर्मी का दायरा कितना है! इतने वर्षों तक हर क्षेत्र में ऐसी सीमाएँ फैलाने के अलावा हमने किया क्या है।
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