योग एक परम्परागत भारतीय दर्शन है। योग एक पूरक चिकित्सा पद्धति के रूप में भी स्थापित हो रही है। योग दर्शन के व्यावहारिक जीवन में महत्व को देखते हुए ही मैंने अपने शोध प्रबन्ध के लिए इस विषय का चयन किया। प्रस्तुत पुस्तक में योग के सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्ष पर विभिन्न योग पद्धतियों के विचारों को अपनाकर विस्तृत चर्चा करने का प्रयास किया गया है। विभिन्न योग की पद्धतियों की तुलना कर वर्तमान समय में योग चिकित्सा महत्व को समझाने का प्रयास किया गया है।
योग विभाग, डी.एस.बी. परिसर, नैनीताल की स्थापना दिनाँक 4 जुलाई, सन् 2001 से आपके द्वारा योग विभाग में संचालित योग विषय में डिप्लोमा व डिग्री पाठ्यक्रम का शिक्षण व अध्यापन कार्य स्थापना से दस वर्षो तक करवाया गया है, साथ ही वर्तमान समय में योग शिविरों, कार्यशालाओं में प्रशिक्षण दिया जा रहा है। विभिन्न रोग बी.पी. (हाई-लो), मधुमेह दमा, कमर दर्द, स्त्री रोग इत्यादि रोगों से रोगियों को छुटकारा दिया जा रहा है। साथ ही देश-विदेश के साधकों की दिनचर्या में सुधार लाकर उन्हें जीवन जीने की कला का प्रशिक्षण देकर आध्यत्मिक आनंद दिया जा रहा है।
वर्तमान युग में परम्परागत भारतीय दर्शन योग की महत्ता नये सिरे से स्वीकार्य एवं प्रचलित हो रही है। आदिकाल में योग को गूढ़ एवं सामान्य मनुष्य के लिए अत्यन्त कठिन समझा जाता था, परन्तु पिछले दो दशकों में योग के बहुआयामी प्रचलन ने इसे जन सामान्य तक ले जाने का कार्य किया है। ऐसे में योग दर्शन की विविध अवधारणाएं भिन्न-भिन्न रूपों में सामने आ रही हैं तथा योग के वास्तविक अर्थ, लक्ष्य एवं प्रणालियों के स्वरूप का गहन एवं स्पष्ट अध्ययन आवश्यक हो गया है।
प्रस्तुत शोघ प्रबन्ध में हमारा मुख्य उदद्देश्य पातंजल योग सूत्र एवं अरविन्द के योग समन्वय में विवेचित योग के अर्थ, स्वरूप, लक्ष्य, प्रणालियों का सैद्धान्तिक एवं क्रियात्मक पक्ष के दृष्टिकोण से अध्ययन करना है।
योग के दो महान दार्शनिकों के विचारों का अध्ययन करते समय ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ ही योग के मुख्यतः चार प्रकार हठयोग, राजयोग, अष्टांगयोग एवं इन सबके समन्वित सर्वोत्कृष्ट सर्वांग योग की पद्धतियों पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। दोनों दार्शनिकों के योग सम्बन्धि विचारों का अध्ययन, तुलनात्मक दृष्टिकोण से इस उद्देश्य से किया गया है ताकि उनकी पद्धतियों समानता भिन्नता के दृष्टिकोण से स्पष्ट करते हुए पातंजल से अरविन्द के सर्वांग योग की अवधारण के विकास को समझा जा सके।
प्रस्तावित शोध प्रबन्ध का केन्द्र बिन्दु मूलतः पातंजल योग- सूत्र एवं अरविन्द के योग-समन्वय में विवेचित योग की मुख्य विधियों का एवं उनके क्रियात्मक पक्ष का विवेचनात्मक अध्ययन करना होगा। इस प्रक्रिया में दोनों ही ग्रन्थों में विवेचित तत्त्वमीमांसीय एवं ज्ञानमीमांसीय सिद्धान्तों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया जायेगा एवं इस प्रकार समग्र रूप से इन दोनों दर्शनों में योग की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि एवं क्रियात्मक विधियों में अन्तर एवं सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए इनका समालोचनात्मक मूल्यांकन करने का प्रयास किया जायेगा। क्रियात्मक विधियों में हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, भक्तियोग, मंत्रयोग, ज्ञानयोग इनका विस्तृत विवेचन का प्रयास किया जायेगा। मानव जीवन में सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लिए अन्य चिकित्सा पद्धतियों से ये पद्धतियाँ श्रेष्ठतर हैं, ऐसा अध्ययन करने का प्रयास किया जायेगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सम्पूर्ण शोघ प्रवन्ध को मुख्यतः ग्यारह अध्यायों में विभाजित किया गया है।
शोध प्रबन्ध के प्रथम अध्याय योग का एक सामान्य परिचय में योग शब्द की व्युत्पत्ति, योग की विभिन्न परिभाषाएं इसका स्वरूप, दार्शनिक पृष्ठभूमि, सामान्य रूप से योग के व्यावहारिक पक्ष को स्पष्ट करते हुए इसके आध्यात्मिक एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में मुख्य भूमिकाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
योग शब्द की व्युत्पत्ति की दो परम्परायें युजिर् योगे एवं युज् समाधी की व्याख्या करते हुए इसके भावात्मक अर्थ जैसे संयोजन, मिलन, संयमन, कार्यप्रर्वणता तथा समाधि के अर्थ में व्याख्या की गई है। इस सन्दर्भ में पुराण, उपनिषद् एवं गीता में उपलब्ध योग के विमर्श का भी संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। पातंजल योग सत्र में उपलब्ध योग के स्वरूप को 'योगस्यचित्तवृत्तिनिरोधः' के रूप में विवेचित करने का प्रयास किया गया है।
इस अध्याय के दूसरे अंश में पातंजल योग सूत्र के विषय-वस्तु का समाधिपाद, सायनपाद, विभूतिपाद एवं कैवल्यपाद के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
साथ ही इसमें उपलब्ध दार्शनिक पृष्ठभूमि को यथासम्भव संक्षिप्त में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, जिसमें मुख्यतः चित्तवृत्तियों का निरूपण, क्रियायोग के मुख्य पक्ष, क्लेश, कर्म, कर्मविपाक तथा चर्तुदुःख का उलेख है परन्तु संक्षेप में यहाँ पर ध्यान, धारणा व समाधि की प्रक्रिया के साथ व्याख्या, कैवल्य, प्राप्ति की प्रक्रिया की ओर भी आगे बढ़ता है।
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