भारतीय दर्शन ने सत्ता और सृष्टि विषयक सभी समस्याओं और प्रश्नों की विस्तार से चर्चा और विवेचना की है। यह पार्थिव जगत क्या है और इसका ब्रह्मांड से क्या संबंध है? वास्तव में योगदर्शन का उद्गम स्रोत भारतीय वेदांत दर्शन है? अनेक विशेषज्ञों के मतानुसार योग-दर्शन सांख्य दर्शन का ही मूर्तरूप है, सांख्य-दर्शन आत्म-दर्शन के आधारभूत तत्वों की व्याख्या करता है, जबकि योग-दर्शन आसन, प्राणायाम, ध्यान इत्यादि द्वारा उक्त पक्ष का क्रियात्मक रूप प्रस्तुत करता है, सांख्य योग सिद्धांत पक्ष का प्रतिपादक है तो योग-दर्शन उसी का क्रियात्मक और प्रयोगात्मक पक्ष उद्घाटित करता है।
व्यक्ति के शरीर और मन का आपसी तारतम्य जब भंग हो जाता है तो जीवन में दुख और पीड़ा उसे संतप्त करते हैं। वास्तव में चिंता ही दुख और पीड़ा का कार्य भी है और कारण भी, जिससे आत्मपराजय जनित व्यवहार का विषट्चक्र उद्भूत होता है। दृढ़ संकल्प जनित उद्यम ही मन को विपत्तियों से अलग करता है और इसी का परिणाम शांति और लयबद्धता है जिसे योगज्ञान के रूप में जाना जाता है।
प्राचीन भारतीय विद्या में योग का स्वकीय महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय वाङ्मय का प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद है जिसमें योग का उल्लेख है। उपनिषदों में भी योग और इसके अभ्यास की चर्चा है। साथ ही महाभारत में भी योग-उपचार का उल्लेख है। धार्मिक ग्रंथ महाभारत में लिखा है- तापेन भव तप्तानाम् योगो हि परमौषधम् ॥
जिसका अभिप्राय है कि अनेक सांसारिक दुखों और समस्याओं की योग एक महान सर्वरोगहरणी विद्या है।
योगोपचार शरीर-विज्ञान, मनो-विज्ञान, प्राणि-विज्ञान और रसायनशास्त्र, पंचप्राण और उपप्राण, मेरुपुच्छहीन ग्रंथियों, स्त्रावक ग्रंथियों और अभ्यंतर आध्यात्मिक संसार के नियमों पर आधारित है। कोई भी व्यक्ति योगाभ्यास कर सकता है, भले ही उसकी कोई भी आयु, जाति, वंश और लिंग हो। शरीर में प्राण संचरण के द्वारा ही योग चिकित्सा से शरीर का उपचार होता है, योग चिकित्सा सरल, सस्ती, भरोसेमंद, सरलता से सुलभ तो है ही, साथ ही इसका अभ्यास भी सरलता से किया जा सकता है। योग जीवन जीने की कला है। आसन से शरीर स्थिर होता है। वर्णन भी है:
स्थिरतापूर्वक कष्टरहित स्थिति का नाम आसन है। जिस स्थिति में अभ्यासी सुखपूर्वक स्थिर होकर दीर्घकाल तक साधना हेतु बैठ सके, उस स्थिति का नाम आसन है।
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