आहार के विषय में ऐतिहासिक प्रमाण है- महात्मा बुद्ध तप करते-करते इतना कमजोर हो गये थे कि, वे चलने फिरने में भी असमर्थ हो गये थे। उसी समय अपने वन देवता की पूजा के लिए, खीर लेकर एक वैश्य कन्या सुजाता वहाँ पहुँची, जहाँ वट-वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध निराश अवस्था में बैठे थे। सुजाता ने बुद्ध को ही अपना देवता समझकर अपनी सारी खीर उन्हें समर्पित कर दिया। उस समय बुद्ध बहुत भूखे थे, उन्होंने उस खीर को खा लिया। उससे उन्हें दिव्य ज्योति का दर्शन हुआ, जिस तत्व की खोज में वे भटक रहे थे उनके दर्शन हुए। बुद्ध की निराशा आशा में बदल गई। सभी बौद्ध इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि, सुजाता के खीर ने ही महात्मा बुद्ध को दिव्य दर्शन कराये।
छान्दोग्य उपनिषद् में लिखा है-
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः ।
स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ।।
आहार के शुद्ध होने पर अन्तःकरण, मन, बुद्धि, चित्र और अहंकार शुद्ध हो जाते है। अन्तःकरण की शुद्धि होने पर स्मरणशक्ति दृढ़ और स्थिर हो जाती है। स्मृति के दृढ़ होने से हृदय की सब गांठें खुल जाती है। निष्कर्ष यह है कि शुद्ध आहार से मनुष्य के लोक और परलोक दोनों सँवर जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है-
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथा योग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथा योग्य चेष्टा करने वाले का और यथा योग्य सोने तथा जागनेवाले का ही सिद्ध होता है।
इस प्रकार महात्मा बुद्ध को सुजाता की खीर से ज्ञान का प्रकाश मिला तो दूसरी ओर महात्मा बुद्ध को उनके एक भक्त ने सूवर का मांस खिला दिया जिसके परिणामस्वरूप उनको भयंकर अतिसार हुये और कुशीनगर में ही उन्हें अपना यह भौतिक शरीर छोड़ना पड़ा। अतः गोदुग्ध की बनी सुजाता की खीर (सात्विक भोजन) ने बुद्ध को ज्ञान और जीवन दिया तो दूसरी तरफ तमोगुणी भोजन ने उन्हें रोगी बनाकर मृत्यु के मुख में धकेल दिया। इसीलिए प्राचीनकाल से ही दुग्ध को सर्वोत्तम एवं पूर्णं भोजन मानते आये हैं।
अथर्ववेद में ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि-
'पश्येम शरदः शतम्, जीवेम शरदः शतम्, श्रुणुयाम शरदः शतम्, अदीनः श्याम् शरदः शतम्, भूयश्च शरदः शतम्।'
अर्थात् हम सौ वर्ष तक देखें, जियें, सुनें, बोलें और आत्मनिर्भर रहें। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में, महर्षि सुश्रुत ने लिखा है-
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियाः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥
अर्थात् जिसके तीनों दोष वात, पित्त, कफ समान हो, जठराग्नि सम हो, शरीर में सप्त धातु रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य उचित अनुपात में हों, मल-मूत्र की क्रियाएँ भली प्रकार होती हों, और दसों इन्दियों के साथ-साथ मन और आत्मा भी प्रसन्न हो तो, ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ माना जा सकता है।
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