किसी अनदेखे-अनजाने ने सदैव आकृष्ट किया है मानव मन को। कभी न कभी हर कोई अपने स्तर पर अवश्य सोचता है कि क्या हमारे आसपास ऐसा भी कोई संसार है जिसे हम केवल मन के किसी अनचीन्हे स्तर पर समझ सकते हैं या महसूस कर सकते हैं, परंतु देख या छू नहीं सकते। क्या वास्तव में फ़रिश्ते हमारे इर्द-गिर्द हैं और समय-समय पर हमारी सहायता या रक्षा करते हैं? क्या आत्माएं शून्य में विचरती हैं? क्या भूत या प्रेत नाम की इकाइयां हैं?
कभी जीवन में ऐसे भी क्षण आते हैं, जब चीखें सन्नाटों में बदल जाती हैं, सन्नाटे गूंजने लगते हैं, हवा सांय-सांय करती है, पत्तों की टकराहट भयानक बन जाती है, शून्य में बनती-मिटती हैं कुछ आकृतियां और हम अपने जीवन के सामान्य स्तर से हटकर पहुंच जाते हैं किसी और ही विमा में। ऐसा आभास होने लगता है जैसे कि कोई झीने पर्दे की दूसरी ओर से हम तक आने का प्रयास कर रहा है। रगों में एक शीत-लहर दौड़ जाती है, हाथ-पैर सुन्न होने लगते हैं और शरीर से बूंद-बूंद करके ऊर्जा निचुड़ने लगती है।
जीवन के इस पार और उस पार के बीच एक बारीक सी सीमा-रेखा है। हम सब जीवन में कभी न कभी स्वयं को इस सीमा-रेखा पर खड़ा पाते हैं और जीवन, बल्कि अस्तित्व की पहेली पर विचार करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। जी हां, एक कगार पर ही खड़े हैं हम लोग-जीवन और मृत्यु के बीच, प्रकाश और अंधकार के बीच, होशो-हवास (सैनिटी) और पागलपन (इनसैनिटी) के बीच।
यहां बहुत कुछ है जो तर्क से परे है। बहुत कुछ है, जिसे लेकर अलग-अलग लोगों की अलग-अलग धारणाएं, अलग-अलग मान्यताएं हैं। साहित्य तो है ही जीवन का दर्पण। इसमें हर प्रकार के विश्वासों के चित्र मिलते हैं। इसलिए आत्माओं और भूतों ने भी समय-समय पर साहित्य को आबाद किया है और हमें दी हैं रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियां-हॉरर स्टोरीज ।
विश्व के बड़े-बड़े लेखकों ने जीवन के इस पहलू की ओर संकेत करती कहानियां लिखी हैं, चाहे वे एडगर एलेन पो हों, हेनरी जेम्ज हों या मोपासां। पाश्चात्य देशों में इस प्रकार का साहित्य सदा से लिखा जाता रहा है। पो जैसे विश्व विख्यात लेखक को तो इस प्रकार की कहानियां लिखने के कारण ही इतनी ख्याति मिली। वे इस विधा में केवल सिद्धहस्त ही नहीं थे, बल्कि इसे चरमावस्था तक भी उन्होंने ही पहुंचाया। कभी किसी ने उनकी रचनाओं को हाशिये पर रखकर नहीं देखा। परंतु हमारे यहां, हिंदी साहित्य में ऐसा नहीं है। अव्वल तो इस प्रकार का साहित्य ज़्यादा लिखा ही नहीं गया, लिखा भी गया तो उसे विशेष स्थान या सम्मान नहीं मिला। हो सकता है इसके पीछे कुछ सामाजिक कारण रहे हों। हमारे देश में जिस समय आधुनिक कथा-साहित्य विकसित हो रहा था, उस समय देश स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था और उसके उपरांत अस्तित्व के लिए। आम आदमी जीवन की विषमताओं से जूझ रहा था। ऐसे में लेखक की भूमिका भी शायद निर्धारित ती ही थी। इसलिए साहित्य पर यथार्थवाद ही हावी रहा।
बहुत पहले उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक तथा बीसवीं सदी के आरंभ में देवकी नंदन खत्री ने अवश्य 'चंद्रकांता', 'चंद्रकांता संतति' तथा 'भूतनाथ' जैसे उपन्यासों की रचना की और पो की ही भांति वे भी इन रचनाओं के कारण बहुत लोकप्रिय हुए। वे जादू और तिलिस्म पर आधारित एक रहस्यमय संसार खड़ा कर देते थे। उनकी रचनाएं मनोरंजन और पाठक के मन में कौतूहल जगाने के लिए पर्याप्त थीं। उनके पात्रों के हाथों में मानवेतर शक्तियां होती थीं। ये विलक्षण शक्तियां ही वह लोकातीत तत्व धीं जिनसे पाठक के रोंगटे तक खड़े हो जाते थे। मन में डर लगने के साथ-साथ एक अनोखे रोमांच की भावना उन पर हावी हो जाती थी।
कई लोग इस प्रकार के साहित्य को पलायनवादी कहकर नकार देते हैं। हां 'एस्केप' है, परंतु जीवन की भागदौड़ में क्या ऐसे क्षण नहीं आते जब हम कुछ घड़ियों के लिए अपनी सच्चाइयों से पलायन करना चाहते हैं और सब कुछ भूलकर एक काल्पनिक संसार में विचरना चाहते हैं? क्या परियों की कहानियां आज भी अच्छी नहीं लगतीं-वयस्क हो जाने के बाद भी?
अलग-अलग लेखकों ने अपनी रचनाओं में भूतों को देखने या उनको महसूस करने की कई प्रकार से व्याख्या की है। सबसे अधिक तो इसे मानव मन का विकार समझा गया है। आमतौर पर माना गया है कि प्रेत हमारे अपने मन में ही रहते हैं, उनका कोई अलग अस्तित्व नहीं होता। लेकिन यह व्याख्या मनोविज्ञान पर आधारित है।
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