पुरुषार्थ चतुष्टय के रूप में अभिख्यात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मानव-जीवन का प्राप्तव्य तथा हमारी सनातन संस्कृति का सर्वस्वभूत है। जीवन के इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु श्रुति, स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्रादि का अध्ययन, परिशीलन एवं चिन्तन की परम आवश्यकता है। शास्त्रों के अध्ययन हेतु शब्दार्थ (पदार्थ) ज्ञान अपेक्षित है। शब्दार्थ के पश्चात् वाक्यार्थ ज्ञान होता है। वाक्यार्थ ज्ञानपूर्वक ही हम श्रुत्यादि के तात्पर्य एवं भाव को ग्रहण करने में सक्षम हो पाते हैं। वाक्य के मूल में शब्द तथा शब्द के मूल में वर्णों की सत्ता विद्यमान है। वर्ण सङ्घात ही शब्द है। शब्द में प्रकाश है, ऊर्जा है, गति है। शब्द के इस शक्ति का परिचय हमारा मंत्रविज्ञान कराता है। वैयाकरण तो शब्द को ही ब्रह्म की संज्ञा देते हैं, क्योंकि शब्द के बल पर ही सम्पूर्ण संसार का व्यवहार प्रवर्तित होता है। महाभाष्यकार पतञ्जलि ने अपने ग्रन्थ 'वाक्यपदीयम्' में स्पष्टरूप से उद्घोष किया है-
'अनादिनिधनं ब्रह्म शब्द तत्त्वं यदक्षरम्। विवर्ततेऽर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।।'
'इदमन्धतमं यदि शब्दाह्वयं
कृत्स्नजायेत ज्योतिरासंसारं
भुवनत्रयम्। न दीप्यते ।।'
प्रत्येक शब्द के साथ अर्थ उसी प्रकार सम्पृक्त होता है जैसे-पुष्प में सुबास, दुग्ध में घृत तथा जल के साथ वीचि। प्रत्येक शब्द में अर्थ प्राकट्य की शक्ति विद्यमान है। शब्द से अर्थ परिज्ञान की प्रक्रिया को ही शास्त्रों में 'शक्तिग्रह' कहा गया है। शक्तिग्रह के आठ साधन है-
'शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान कोशाप्तवाक्यात् व्यवहारतश्च। वाक्यस्य शेषाद्विवृतेर्वदन्ति सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धा।।
शक्तिग्रह के उपर्युक्त साधनों में कोश द्वारा शब्दार्थ ज्ञान सर्वाधिक सुलभ, सुकर तथा लोकप्रचलित है। यही कारण है कि हमारे मनीषियों ने अपनी अतुलित मेधा और प्रज्ञा के बल पर अनेक कोशग्रन्थों की रचना की है। कोशग्रन्थों की एक सुदीर्घ परम्परा संस्कृत साहित्य में विद्यमान है। कोशग्रन्थों में शब्दार्णव, अभिधान रत्नमाला, विश्वकोशः, शब्दार्थ-चिन्तामणि, वाचस्पत्यम्, शब्दकल्पद्रुम, अमरकोश, अभिधानचिन्तामणि आदि अनेक ग्रन्थ विद्यमान हैं। ये सभी ग्रन्थ अपने आप में पूर्ण हैं। इन ग्रन्थों ने संस्कृत वाङमय की श्रीवृद्धि के साथ ही विद्वानों, कवियों तथा शास्त्र चिन्तकों का बहुत उपकार किया है। यद्यपि उपर्युक्त सभी ग्रन्थ अपनी उपादेयता एवं विशिष्टता के कारण विद्वानों के कण्ठहार बने हुए हैं तथापि अमरसिंह द्वारा विरचित 'अमरकोश' को संस्कृत जगत् के विद्वानों, कवियों, अध्येताओं द्वारा विशेष सम्मान प्राप्त हुआ है। इसका मुख्य कारण है इस ग्रन्थ में शब्दों का वर्गों में विभाजन कर श्लोकबद्ध परिगणन। अमरसिंह ने अपनी अलोकसामान्य प्रतिभा के बल पर सरल श्लोकों में संस्कृत के विविध शब्दों को एकत्र समावेश कर कोशग्रन्थों की परम्परा में अद्वितीय योगदान दिया है।
अमरसिंह ने अपने देश, काल, जन्म, जाति आदि के विषय में कहीं भी कुछ भी स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। फिर भी विद्वान लोग कुछ साक्ष्यों के आधार पर इन्हें विक्रमादित्य के समकालीन स्वीकार करते हैं। अमर सिंह विक्रमादित्य के नवरत्नों में एक थे, ऐसा विद्वानों का मन्तव्य है-
धन्वन्तरि क्षपणकोऽमरसिंह शङ्क -वेतालभट्ट कवि खर्पर कालिदासः । ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररूचिर्नव विक्रमस्य ।।
कुछ अन्य विद्वान् इन्हें पाणिनि का समकालीन सिद्ध करते हैं-
'इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्ना पिशली पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टौ च शाकटायनः । शाब्दिकाः ।।'
कोशग्रन्थों में सर्वातिशायी एवं सर्वोपकारक होने के कारण ही अनेक विद्वानों ने इसकी विविध टीकाएँ लिखी हैं। इससे ग्रन्थ की लोकप्रियता सिद्ध होती है। इसके श्लोक बड़ी ही सरलता से कण्ठस्थ किये जा सकते हैं। मुझे अच्छी तरह स्मरण है, तब मैं प्रवेशिका या प्रथमा कक्षा का विद्यार्थी था तो गुरुजन अमरकोश, लघुसिद्धान्त कौमुदी, तर्कसंग्रह आदि पुस्तकों को प्रतिदिन पारायणपूर्वक कण्ठस्थ कराते थे। बाल्यावस्था में स्मृति तीव्र होने के कारण इन पुस्तकों का अधिकांश भाग कण्ठाग्र था। उस समय उस पाठ का महत्त्व समझ में नहीं आता था, किन्तु समय व्यतीत होने के साथ ही उच्च कक्षाओं में जब शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन-अध्यापन करने का अवसर मिला, तब लघुसिद्धान्तकौमुदी के कण्ठस्थ प्रकरणों, अमरकोश आदि से जो लाभ मिला, उससे अनुभव में आया कि बालपन में बड़ी सरलता से याद किये गये सूत्र, वृत्ति, आदि के साथ अमरकोश के श्लोक कितने सहायक हैं। आज भी भारतवर्ष के विविध प्रान्तों में स्थित गुरुकुलों एवं संस्कृत विद्यालयों में शास्त्रों, वैदिक मंत्रों को कण्ठस्थ करने की परम्परा जीवित है।
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