इस पुस्तक को पढ़ते समय हमें सहज रूप से संदेह हो सकता है कि पुस्तक की शुरुआत में जिन लोगों ने हमें जो करने के लिए कहा, वही लोग अब उन चीजों को छोड़ने के लिए क्यों कह रहे हैं?
हम सभी विविध अवस्थाओं में विकसित हो रहे हैं। पहली कक्षा में हमें तख्ती की आवश्यकता होती है लेकिन दसवीं कक्षा में हमें तख्ती की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे-जैसे हम इस विषय की गहराई में आगे बढ़ते जाएंगे, वैसे-वैसे हमारा विकास होता जाएगा। इसलिए जिन बातों को पहली दशा में बताना और सीखना चाहिए, उन बातों को बताने और सीखने के बाद हम उनके आगे जाएंगे।
पहले हम उन कई प्राकृतिक और पारलौकिक दैवीय शक्तियों की खोज करते हैं जो हमारे पास हैं। हम अनुभव करते हैं कि उनका स्वेच्छा से उपयोग कैसे किया जाए और उनके साथ अपनी स्थिति को कैसे बदला जाए। बाद में संकल्प करके इसे साधना के अनुभव से जानते हैं, जिसके बाद हम परिस्थिति बदलने के लिए पुरानी शक्तियों का उपयोग करना बंद कर देते हैं। बाद में गहरी सांस लेकर, थोड़ा पीछे हटकर, दीवार के पीछे खड़े होकर देखते हैं। फिर बाद में इसे भी छोड़कर स्वेच्छा से दिव्य संकल्प में कदम रखते हैं और आगे बढ़ते हैं। तभी हम जानते हैं कि इस नए तरीके से हम और भी शक्तिशाली बन सकते हैं।
लेकिन प्रश्न यह है कि जिस काम को करना हम छोड़ने वाले हैं, उसके लिए इतनी श्रद्धा से साधना करने की आवश्यकता क्या है? आग की दीवार पार करने के बाद हमने जो यात्रा इतने समय तक की है, उस यात्रा पर भी हमें यही सवाल उठाना चाहिए।
आग की दीवार पार करने के बाद अपने कंपन को बहुत हद तक कम करके, द्वंद्व (डुअलिटी) तत्व की गहराइयों में उतरकर, उसका अनुभव करने के बाद ही हम उसे संपूर्ण जागरूकता के साथ छोड़ पाएंगे और वापस अपनी दिव्यता को प्राप्त कर सकेंगे। द्वंद्व तत्व को जानने के बाद उसे छोड़ना परिपक्वता का सूचक है। द्वंद्व तत्व को गहराइयों तक जाने बिना उसे छोड़ना अपरिपक्वता होगी। किसी दूसरे के कहने पर भरोसा करना और उसी अंधविश्वास के साथ छोड़ देना मूर्खता होगी। अपने अनुभव से जानने पर ही पता चलेगा कि सच में हमारे अंदर शक्तियाँ हैं या नहीं? तभी उनके बारे में हमें संपूर्ण जागरूकता (अवेयरनेस) आएगी। जिन शक्तियों को हमने अपने स्वभाव में पाया ही नहीं है, उन्हें हम कैसे छोड़ सकते हैं?
हम सभी लोग तरह-तरह की परिस्थितियों में जीवन बिता रहे हैं और उनसे बाहर निकलने का रास्ता ढूँढ रहे हैं। जब हम अपनी शक्तियों को पहचानकर परिस्थितियों से बाहर निकलना सीख जाएंगे, तब हमें समझ आएगा कि हमारा जीवन तो हमारे ही हाथों में है। तब हमारे अंदर जो विश्वास जगेगा वह बहुत अलग होगा।
जिस तरह हमारे अंदर से विकास का सामर्थ्य उत्पन्न होता है, ठीक उसी तरह द्वंद्व तत्व से विकास करने का सामर्थ्य मानवता को मिलता है। यह सामर्थ्य और परिपक्वता पाने की वजह से ही अब हम यह महान कदम उठा रहे हैं जो पूरे विश्व में किसी ने भी नहीं उठाया है। दिव्यता और मानवता के बीच जो पर्दा है उसे चकनाचूर कर रहे हैं। जो अब तक किसी ने भी नहीं पाया है, हम उसे पा रहे हैं।
जब हम अपनी शक्तियों के बारे में और अपनी परिस्थितियों को स्वयं बदलने के बारे में जान लेंगे, तो हम थोड़ी कोशिश करके सीख लेंगे कि अगली दशा में किस तरह की परिस्थितियों में अपनी शक्तियों का उपयोग किए बिना रहें। ऐसा करने पर हम संकल्प स्वेच्छा से दिव्य संकल्प में जाएंगे। विश्व प्रणाली के साथ संरेखित होकर अनुसंधान करेंगे। उस स्थिति को पाने के लिए हमारे अंदर शून्य होना आवश्यक है। तब हमारी अन्तः प्रेरणा द्वारा जो सूचना आनी चाहिए, वह हमारी प्रज्ञात्मा द्वारा या मास्टर्स द्वारा हमें मिलेगी।
इस विषय पर जब मैंने एक ध्यानी के अनुभव को सुना तो मुझे स्वयं के अनुभव याद आए। उनका अनुभव कुछ ऐसा था एक मास्टर उन्हें सपने में दिखाई दिए, जिन्होंने उनसे कहा "जो संदेश हम दे रहे हैं वह आपको सुनाई न देने की वजह से दुखी मत हो। मन को शून्य रखो। तब हमारी सारी बातें आपको अच्छी तरह से सुनाई देंगी।"
अब, मैं मन को खाली करने और संदेश पाने के अपने अनुभव के बारे में बताती हूँ। १९८४ का समय था, जब भी मैं कुछ सोचती थी तो अचानक मेरे विचार बंद हो जाते थे। इसका कारण ढूँढते हुए जब मैं अपने अंदर झांक कर देखती थी तो मैं अपनी सांस को रुका हुआ पाती थी। अंदर सब खाली होता था। ऐसे लगता था कि किसी ने फिल्म के चित्र को रोक दिया है। विचार नहीं होते थे, लेकिन वह साधारण खालीपन नहीं था। मेरे अंदर सब कुछ खाली लगता था। उस आनंददायक खालीपन पर ध्यान देती रहती थी। डर नहीं लगता था। इसमें कुछ डरने की बात ही नहीं थी। उस स्थिति पर मैं ध्यान देती थी। ज्यादातर उस समय मैं चल रही होती थी। इस तरह का अनुभव ज्यादातर कॉलेज से घर जाते समय होता था। यह सब कुछ मेरी भागीदारी के बिना ही होता था।
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