भोज के लिए एकत्र हुए भूख से व्याकुल सभी अतिथि रसोइए से बस यही पूछ रहे थे कि "आप ही बताइए, आज सबसे स्वादिष्ट व्यंजन कौन-सा है?" पाककला में निपुण रसोइए ने इस कार्यक्रम के लिए पचास से अधिक व्यंजन बनाये थे। उत्साहपूर्वक वे बोले, "मैंने विभिन्न क्षेत्रों से आये सभी लोगों के स्वाद तथा रुचियों को ध्यान में रखते हुए ये व्यंजन बनाये हैं। किन्तु इन सबमें एक ऐसा व्यंजन है जो यहाँ आये प्रत्येक व्यक्ति को तृप्त कर देगा। यह पोषणदायी एवं स्वादिष्ट है और मौसम एवं समय के अत्यन्त अनुकूल भी है। इसे बनाने के लिए मैंने उच्चकोटि की सामग्रियाँ ली हैं और पूरे मन से बनाया है।" अतिथियों को थाली में परोसते हुए रसोइए ने कहा, "प्रमुख रसोइया होने के नाते इस व्यंजन को बनाकर मैं सर्वाधिक सन्तुष्ट हुआ है। वस्तुतः यह एक व्यंजन आपको पूर्णरूपेण तृप्त करने के लिए पर्याप्त है। हाँ, यदि आप अन्य व्यंजन चखना चाहें तो अवश्य चख सकते हैं!
रसोइए के विश्वास एवं उत्साह को देखकर अतिथियों में कौतुहल जाग उठा। और जैसाकि रसोइए ने कहा था, वह व्यंजन जिह्वा के लिए अत्यन्त रसदायी तथा चित्त के लिए परम तृप्तिदायक रहा। जिस प्रकार हम सबसे स्वादिष्ट व्यंजन चुनने के लिए रसोइए का सुझाव स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार किसी लेखक द्वारा लिखी पुस्तकों में से सर्वश्रेष्ठ पुस्तक जानने के लिए हमें उन्हीं का सुझाव स्वीकार करना होगा।
श्रीमद्भागवतम् व्यासदेव की सभी पुस्तकों में सर्वश्रेष्ठ है। सम्पूर्ण वैदिक पुस्तकालय में इसे सर्वोच्च स्थान दिया गया है। व्यासदेव श्रीकृष्ण के साहित्यकी अवतार हैं और उन्होंने श्रीमद्भागवतम् की रचना की। इसे श्रीकृष्ण का ग्रंथ अवतार भी कहा जाता है, जिसमें श्रीकृष्ण तथा उनके अनेक अवतारों की दिव्य लीलाएँ एवं गुर्णो का वर्णन है। इस पुस्तक में अत्यन्त कुशलता एवं भक्तिपूर्वक श्रीकृष्ण के विभिन्न पहलुओं को संजोते हुए व्यासदेव ने सभी पाठकों के सम्मुख समस्त ज्ञान एवं सौन्दर्य का सार प्रस्तुत किया है। अतः भागवतम् अपने प्रत्येक पृष्ठ पर श्रीकृष्ण का संग करने के लिए पाठकों को आमंत्रित करती है।
व्यासदेव मानवता की भावी पीढ़ियों के लाभार्थ ज्ञान की पुस्तकों का संकलन करना चाहते थे। इससे पूर्व उन्होंने विभिन्न पुराणों, महाभारत तथा ब्रह्मसूत्रों की रचना की थी। किन्तु फिर भी उनका हृदय सन्तुष्ट नहीं था। तब व्यासदेव ने श्रीनारदमुनि के मार्गदर्शन में ज्ञान की पराकाष्ठा का वर्णन करते हुए श्रीमद्भागवतम् की रचना की। तब जाकर उनका हृदय पूर्ण सन्तुष्ट हुआ। वैदिक ग्रंथों की तुलना कल्पवृक्ष से की जाती है और भागवतम् उस वृक्ष का पका हुआ फल (निगम कल्पतरोर्गलितं फलम्) तथा सभी ग्रंथों का सार है (अखिल श्रुति सारम्)।
भगवान् श्रीकृष्ण के परम दयालु अवतार श्रीचैतन्य महाप्रभु ने श्रीमद्भागवतम् को अमल पुराण (समस्त दूषों से मुक्त) कहा है। श्रील रूप गोस्वामी अपनी पुस्तक भक्तिरसामृतसिन्धु में घोषणा करते हैं कि भागवतम् का श्रवण करना भक्तियोग के सर्वप्रमुख साधनों में एक है। श्रील प्रभुपाद भागवतम् को भगवद्विज्ञान का स्नातकोत्तर अध्ययन कहा करते थे। भागवतम् की प्रामाणिकता तथा सर्वोच्चता को पद्म पुराण, गरुड पुराण जैसे अनेक ग्रंथों में स्वीकार किया गया है।
पद्मपुराण के अनुसार श्रीमद्भागवतम् के बारह स्कन्ध भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य शरीर के विभिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस उपमा में पहले एवं दूसरे स्कन्ध की तुलना श्रीकृष्ण के दो चरणकमलों से की गयी है और इस प्रकार ऊपर उठते हुए अन्त में बारहवें स्कन्ध की तुलना उनके सिर से की गयी है। अतः अलौकिक श्रीमद्भागवतम् तथा दिव्य श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है। इस भौतिक जगत् से अन्तर्धान होने के बाद श्रीकृष्ण अंधकारयुक्त कलियुग के भ्रमित जीवों को प्रकाश प्रदान करने के लिए इस ग्रंथ रूप में अवतरित हुए हैं। चूँकि भागवतम् तथा श्रीकृष्ण अभिन्न हैं, अतः जिस प्रकार हम श्रीकृष्ण के अर्चाविग्रह का दर्शन करते समय उनके चरणों से देखना आरम्भ करते हुए धीर-धीरे उनके मुखकमल तक आये हैं, उसी प्रकार हमें भागवतम् का अध्ययन पहले स्कन्ध से आरम्भ करके धीरे-धीरे आगे बढ़ना है।
श्रीमद्भागवतम् महापुराण के रूप में विख्यात् है। इसमें समस्त जीवों के कल्याणार्थ दस विषयों का उल्लेख किया गया है (दूसरे स्कन्ध में इनका वर्णन है), जिसमें सृष्टि, विभिन्न लोकों की स्थिति, प्रलय तथा मोक्ष तक मनुष्यजाति का इतिहास आदि का वर्णन किया गया है। ये सब विषय परम आश्रय श्रीकृष्ण, उनकी मनोहारी एवं कृपाभरी लीलाओं तथा उनके प्रिय भक्तों के आदर्श जीवन के चारों ओर केन्द्रित हैं। मानवजाति के परम कल्याण हेतु भागवतम् में अन्य अनेक रोचक विषयों की व्याख्या की गयी है, जिसमें दार्शनिक सिद्धान्त, वैज्ञानिक तथ्य, ब्रह्माण्ड की संरचना, भूगोल, गर्भविज्ञान आदि के साथ आत्मा का सर्वोच्च पोषण करने वाली भगवद्भक्ति का विस्तारित वर्णन है।
प्रत्येक व्यक्ति का हृदय गहन एवं सच्चे प्रेम के लिए उत्कण्ठित है और वह प्रेम केवल स्वार्थरहित सम्बन्धों में ही प्राप्त होता है। भागवतम् श्रीकृष्ण के साथ हमारे चिरकालीन सम्बन्ध को पुनः स्थापित करके हमारे सुसुप्त भगवत्प्रेम को जागृत करती है।
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