पुस्तक परिचय
संस्कृत-साहित्य के कालजयी रचनाकार भवभूति पर केन्द्रित इस पुस्तक में भवभूति के जीवन और रचना-कर्म का, पूरी समग्रता के साथ, सार्थक एवं सर्जनात्मक विवेचन है। अपनी इस विवेचना में डॉ. अमृता भारती ने भवभूति का ऐसा प्रभावी चित्र प्रस्तुत किया है जिसमें उनके जीवन की पूर्णता और प्रकाशमयता अभिव्यंजित है; उस पहचान का संस्पर्श है, जहाँ से भवभूति की कविता ने रूपता ग्रहण की तथा अपने अन्तर और बाह्य-जगत् को सादृश्य-सारूप्य बनाये रखते हुए, अपनी रचनाओं में प्रकट किया।
पुस्तक में भवभूति के जीवन, व्यक्तित्व तथा उनके परिवेश और पाण्डित्य को सघनता और तार्किकता के साथ उजागर करने के साथ ही भवभूति-कालीन भारत के भूगोल, समाज, संस्कृति, धर्म, दर्शन, राज्य एवं राजनीति का शोधपूर्ण प्रामाणिक विवेचन है। इसमें नाटककार भवभूति के सर्जनात्मक अवदान का भी विश्लेषण है। अमृता भारती ने कला-प्रतिमानों के परिप्रेक्ष्य में, भवभूति के तीनों यशस्वी नाटकों-'महावीर-चरित', 'मालती-माधव' एवं 'उत्तररामचरित' -में कथावस्तु के विकास, चरित्र-चित्रण, रस-सिद्धि, छन्द-विधान, अलंकार-योजना, भाषा एवं शैली-शिल्प आदि की गम्भीर विवेचना की है। अपने विषय-क्षेत्र की इस महत्त्वपूर्ण पुस्तक में सुधी अध्येताओं के लिए बहुआयामी भवभूति-अध्ययन एक बड़े फलक पर प्रस्तुत है।
लेखक परिचय
जन्म : नजीबाबाद (उ. प्र.)।
शिक्षा : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत साहित्य में एम. ए., पी-एच. डी.। भारतीय काव्यशास्त्र का विशेष अध्ययन। मुम्बई और दिल्ली में कुछ वर्षों तक प्राध्यापन।
प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह 'मन रुक गया वहाँ', 'मैं तट पर हूँ', 'मिट्टी पर साथ-साथ', 'आज या कल या सौ बरस बाद', 'मैंने नहीं लिखी कविता' और 'सन्नाटे में दूर तक', तथा एक गद्य-संकलन : 'प्रसंगतः' तथा 'भवभूति'। श्रीअरविन्द की कविता का अनुवाद। 87 सॉनेट शीघ्र प्रकाश्य।
बंगलोर के वैज्ञानिक डॉ. एच. आर. नागेन्द्र के साथ 'प्राण' पर चल रहे एक 'रिसर्च प्रोजेक्ट' में सहयोग।p>
प्राक्कथन
तीन दशक से अधिक हो गये, जब इस काम को शुरू और समाप्त किया था। पं. बलदेव उपाध्याय के निर्देशन में इस काम की रूपरेखा तैयार हुई थी। अध्ययन और शीर्षकों के अन्तर्गत सामग्री का चयन भी काफ़ी कुछ हो गया था। उनके अवकाश ग्रहण कर लेने के पश्चात् इस काम को डॉ. सूर्यकान्त शास्त्री के निर्देशन में समापन मिला।
पं. बलदेव उपाध्याय-ब्राह्मणत्व के तेज से प्रदीप्त उनका चेहरा आज भी स्मृति में उतनी ही पूर्णता में विद्यमान है। उनके पाण्डित्य में श्रृंगार की रसालता का अद्भुत सामंजस्य था। उनके माये का सिन्दूरी तिलक और कन्धे पर पड़ा दुशाला उनके भव्य व्यक्तित्व का अंग थे। प्रकाश और छाया का समन्वय साकार था उनमें। एम.ए. में उनसे 'उत्तररामचरित' पढ़ते समय ही मैंने भवभूति पर काम करने का निश्चय कर लिया था। उन्हें मेरा प्रणाम।
बनारस विश्वविद्यालय में हॉस्टल का परिसर और इण्डोलॉजी कॉलेज यह एक छोटी-सी दूरी थी-दिनों के सुनहरेपन से भरी हुई। इसके अलावा और भी बहुत-सी दूरियों थीं, जिनमें अन्दर की उजास साथ-साथ चला करती थी। बनारस कला और संगीत का गढ़ ..संगीत-सम्मेलनों की रातें जिनमें कोई एक कण्ठ या एक वाद्य-रत्न पूरी रात रस-वर्पण करता था।
चिरस्मरणीय है वह घटना कैम्पस में ही मेरी एक प्रोफ़ेसर के घर के झूले पर बैठे थे पं. ओंकारनाथ ठाकुर। उनके पूछने पर जब मैंने बताया कि में भवभूति पर काम कर रही हूँ-तब उन्होंने गाया, "अवि कठोर, यशः किल ते प्रियं... और संगीत-मार्तण्ड के स्वरों में जैसे भवभूति आवद्ध हो गये थे... मुझे लगा था इस 'घटना' का अन्त न हो।
स्मृतियों की एक पूरी श्रृंखला।