महात्मा बुद्ध की शिक्षा संबंधी समाज में भ्रांतियां हैं कि महात्मा बुद्ध वेदों के विरुद्ध थे व अनीश्वरवादी थे अर्थात् ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानते थे, परंतु उनके मूल सिद्धांत एवं उपदेश जो बुद्ध के अनुयायियों व विद्वानों ने विभिन्न ग्रंथों जैसे धम्मपद, त्रिपिटक, महासति पट्टानसत आदि में संग्रहीत किए हैं, उनसे तो स्पष्ट ज्ञात होता है कि वे सब शिक्षा व उपदेश वेद आधारित हैं, वेदों के विरुद्ध कहीं भी खंडन नहीं है, बल्कि प्राचीन ऋषियों के बताए मार्ग पर आचरण करने पर बल दिया है। उन्होंने केवल मान्यताओं पर ही नहीं बल्कि अनुभूत ज्ञान अथवा भावना जागृत करने पर बल दिया है। सदाचार को धर्म का अंग दर्शाया है। जितने भी मत हैं वे मूल में वैदिक धर्म की शाखाएं हैं। इनके अंदर बहुत कुछ वही है जो वैदिक धर्म अर्थात् वेद कहते हैं। हाँ सबने कुछ न कुछ अपना मिलाया है और यही मिलावट मानव-मानव के मध्य दीवार बनकर अनिष्ट का कारण बनती है। मानव मानव जब एक ही हैं तो उनके लिए हितकारी अथवा अहितकारी सिद्धांत अलग अलग कैसे हो सकते हैं? प्रकृति के नियम अटल व शाश्वत हैं। हम सब पर एक जैसे लागू होते हैं। उपकार का कार्य करता है तो प्रसन्नता होती है। यदि अपकार या अकुशल कार्य करेगा तो हर मानव दुःखी ही होता है। सभी प्रकार के विकारों से दुःख और निर्मल चित्त से सुख-शांति ही प्राप्त होती है, इसलिए मानव का धर्म एक ही है।
संसार में कभी एक वैदिक धर्म ही मान्य था। फिर ऐसा समय भी आया कि वेद विरुद्ध मत फैलने लगे। भारत में ही वेदों के नाम पर पशु हिंसा होने लगी। हिंसक युद्धों का प्रचलन होने लगा। यज्ञों में गाय, भैंस, भेड़, बकरी आदि पशुओं की हत्या करके उनकी आहुति देनी प्रारंभ हो गई थी। तथाकथित स्वार्थी ब्राह्मण साधारण व्यक्तियों से धर्म के नाम पर समाज में अत्याचार करवाने लगे। जन्म से जाति पाति, अस्पृश्यता के कारण गुण, कर्म का महत्व घटता गया। ईश्वर के नाम पर घोर पाप होने लगे। धार्मिक व सामाजिक दृष्टि से भारत पतन के गर्त में गिर चुका था। ऐसी दयनीय स्थिति में महात्मा बुद्ध ने यज्ञ में पशु हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाई। जन्म से जाति का खंडन, आडंबर-अंधविश्वासों के विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने सत्कर्म पर बल दिया। सदाचार का मार्ग समझाया और उस पर आचरण करने पर बल दिया। निर्वाण (मोक्ष) प्राप्ति के लिए आर्य अष्टांगिक मार्ग को आचरण में लाने का उपदेश दिया। उन्होंने अपने उपदेशों में कहीं भी वेदों का खंडन नहीं किया और न ही ईश्वर की सत्ता का निषेध किया। उनकी शिक्षा व उपदेशों को जो संग्रहित किया गया है, वे त्रिपिटक, ध्म्मपद, महासतिपट्टानसुत आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। इनमें मानव कल्याण और विश्व शांति का उपदेश देने वाली वाणी है। महात्मा बुद्ध ने स्वयं कोई ग्रंथ की रचना नहीं की। सभी ग्रंथ उनके अनुयायियों द्वारा उनके उपदेशों के संग्रह किये गए हैं। धम्मपद पुस्तक में जो उपदेश संग्रहित हैं, इनको एक आर्य सुधारक की वाणी ही कह सकते हैं। ऐसी कोई नई बात नहीं है जो वैदिक ग्रंथों में न हो।
यह ठीक है कि महात्मा बुद्ध के उपदेशों में संसार के दुःखों का बार-बार वर्णन किया गया है और वैराग्य एवं अहिंसा पर अत्यधिक बल दिया गया है। इसका भी एक कारण है- यह उपदेश भिक्षुओं (वानप्रस्थ एवं संन्यासी) को दिए गए हैं, गृहस्थ के लिए भी इनमें बहुत कुछ है। भिक्षुओं को ऐसा उपदेश देना उचित था। इसके अतिरिक्त उस समय के राजाओं को राजनीति संबंधी उपदेश भी उपलब्ध हैं, जिनके अनुसार राजा और प्रजा में एकता पर बल दिया गया। शत्रु के विरुद्ध किला बंदी करना, और सैनिकों को भिक्षु न बनाना आदि उपदेश मिलते हैं। लेकिन उन उपदेशों को अच्छी तरह समझकर आचरण में न लाया जाए तो इसमें महात्मा बुद्ध का क्या दोष है? लेकिन भूतकाल के राजाओं और विभिन्न शासकों ने महात्मा बुद्ध के उपदेशों को अच्छी तरह गहराई से न समझकर आचरण में लाने का कार्य नहीं किया, उसके विपरीत आपस में लड़ते झगड़ते रहे और भारत की सैन्य शक्ति को कमजोर किया जिसके कारण भारत में विदेशियों के आक्रमण हुए और वर्षों तक गुलामी झेलनी पड़ी। इसमें केवल महात्मा बुद्ध की अति हिंसात्मक शिक्षा को दोष देना अन्याय है। देश की गुलामी का मुख्य कारण उस समय के राजाओं में आपस में फूट होना और झगड़ते रहना और सामूहिक एकता का न होना है।
इस पुस्तक में लिखित महात्मा बुद्ध की शिक्षा और वैदिक सिद्धांतों का विवरण विभिन्न पुस्तकों से संकलित किया गया है। इनमें स्वामी धर्मानंद की पुस्तक 'बौद्ध मत और वैदिक धर्म' पतंजलि मुनि का योग दर्शन, महात्मा बुद्ध की पुस्तक धम्मपद, महासतिपट्टानसुत और आचार्य कल्याण मित्र सत्यनारायण गोयनका द्वारा लिखित विपश्यना संबंधी पुस्तकें हैं। इसमें स्वामी महानंद जी की प्रेरणा एवं सहयोग भी महत्वपूर्ण है। इस पुस्तक को संकलित करने का मेरा कोई आर्थिक लाभ कमाने का लक्ष्य नहीं है, मेरा उद्देश्य बौद्ध अनुयायियों और वैदिक सनातन धर्म के मानने वालों में जो एक दूसरे के प्रति भ्रांतियां फैली हुई हैं उनको दूर करने का एक छोटा सा प्रयास करना है।
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