तकनीकी और संचार क्रांति ने विश्व को बदलकर रख दिया है। इंटरनेट के माध्यम से हाल ही में संपन्न हुए शोध की जानकारी तुरंत उपलब्ध हो जाती है। प्रत्येक समाज को बदलने में विज्ञान की भूमिका अहम रही है। भारतीय समाज संस्कृति और धर्म से ज्यादा प्रभावित है और विज्ञान से कम। इस अंतर को पाटने की समाज में आवश्यकता है। व्याप्त रूढ़िवादिता, अंधविश्वास और कुरीतियों से समाज खोखला होता है और विज्ञान उससे उबरने का रास्ता दिखाता है। इसे उदाहरण से समझना अधिक लाभदायक होगा। कोविड-19 के संक्रमण से बचने का एकमात्र तरीका टीकाकरण है। फिर भी न केवल भारत, बल्कि विश्व के अनेक देशों में टीकाकरण कार्यक्रम को भ्रामक सूचनाओं, तथ्यों आदि से रोकने का भरसक प्रयास होता रहा है, जबकि अनेक बीमारियों की रोकथाम का सबसे कारगर उपाय टीकाकरण ही रहा है। कुछ लोगों ने हठधर्मिता के कारण टीके नहीं लगवाए हैं और अभी भी संक्रमण से बचे हुए हैं, ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके आस-पास मौजूद आबादी टीके से असंक्रमित हो चुकी है। ऐसा ही एक और अंधविश्वास यह है कि वाघ, गैंडा, गोह और अन्य वन्य प्राणियों के शरीर में ऐसे कुछ गंभीर रोगों से मुक्त करने की शक्ति है जिसे उन प्राणियों को मारकर, उनसे प्राप्त पदाथों से पाया जा सकता है। क्या दोमुँही सौप को घर में रखने से धन की प्राप्ति होती है? या साँप के अंडे से पीलिया का इलाज संभव है? या मकड़ी के जाले अशुभकारी हैं। घर में मकड़ी के जाले तो यह दशति हैं कि आपके घर में मक्खी, मच्छर की आबादी ज्यादा हो गई है जो अनेक घातक बीमारियों फैला सकते हैं। उन्हें मारकर तो मकड़ियाँ हमें बीमारियों से बचाती हैं। मकड़ी का जाला आपके घर में होने का मतलब यह है कि मकड़ी के रूप में एक मित्र आपको निस्वार्थ सुरक्षा देने के लिए प्रयासरत है।
विज्ञान से जन चेतना केवल अंग्रेजी माध्यम से नहीं आ सकती, वल्कि मातृभाषा तथा क्षेत्र विशेष में बोली जाने वाली भाषा में लेखन या संवाद से फैलाई जा सकती है। चूंकि देश के एक बड़े हिस्से में हिंदी ही पढ़ी और बोली जाती है, इसलिए मुझे इस किताब को हिंदी में लिखना उपयुक्त लगा। मेरा हिंदी के प्रति लगाव का मुख्य कारण, मेरे पिता डॉ. अशोक शर्मा का देश का प्रथम प्राणिविज्ञान का शोध प्रबंध हिंदी में लिखना रहा। उनका यह प्रयास जयप्रकाश नारायण के हिंदी भाषा को देश की भाषा बनाने के आंदोलन की देन था। इस किताव से भी मेरे पिताजी का गहरा रिश्ता है। मेरे पास लिखने का कार्य था तो उनके पास मेरी लेखन की शैली, शब्दों का चयन, बोधगम्यता आदि को जाँचने और सुधारने के अधिकार थे। में अकसर शब्दों के चयन के लिए इंटरनेट का उपयोग करता था और उनके सिरहाने में अनेक शब्दकोशों की थप्पी लगी रहती थी। पिता-पुत्र की यह जुगलबंदी जनरेशन-गैप और जीवविज्ञान के दशकों के विकास और ज्ञान को बोधगम्य हिंदी में लिखकर पाटने का भी एक तरीका था। वो सुबह चार बजे उठकर चाय की तपेली गैस पर चढ़ाते और चुस्कियों के साथ बारीकी से आँखें गड़ाए लाल पेन का उपयोग करते थे। चाय के कई दौर चलते और कई बार पन्नों को पलटने पर ही उन्हें संतोष होता था। यह सिलसिला कोरोना काल में अनवरत चला। माँ के हाथ का सुस्वादु भोजन और आत्मीयता से ही उनकी थकान जाती थी और मेरी निरंतरता बनी रहती थी।
मैं जो लिखता या पढ़ता था, उसे कई बार कहानी के रूप में मेरे पुत्र और दोस्तों को भी सुनाता था। पुस्तक रोचक बन रही है या नहीं यह सुनने वाले के हाव-भाव और जिज्ञासा से पता चल जाता था। मेरी लेखनी और उस पर लाल स्याही से किए गए अनेक संशोधन से मेरे टाइपिस्ट श्री संतोष पाटिल को कितनी खीज़ होती होगी, यह आसानी से महसूस किया जा सकता था। जैसा नाम वैसा व्यवहार। वे संतोषी बने रहे और कार्य निर्वाध रूप से आगे बढ़ता रहा। बीच में कोरोना की लहर ने भी उन्हें सपरिवार आगोश में ले लिया, किंतु उनके परिवार के सभी सदस्य और वे सकुशल रहे एवं बीमारी के प्रकोप से बच गए।
में वाट्सऐप पर एक ग्रुप 'अनुवादक' का भी सदस्य हूँ। कुछ ही सदस्य मुझसे छोटे हैं, बाकी सभी मेरे वरिष्ठ शिक्षक, मार्गदर्शक और प्रेरणास्रोत रहे हैं। सभी का मुझे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भरपूर सहयोग मिला है। मैं भाग्यशाली हूँ कि साथी प्राध्यापकों, शोधार्थियों और सीखने को लालायित विद्यार्थियों की बड़ी फौज हमेशा मेरे साथ रही है जो मुझे आराम फरमाने ही नहीं देती।
पिछले कुछ वर्षों में मुझे एडगर और निक जैसे कुछ बेहतरीन प्रकृति और वन्यजीव प्रेमी और सिद्धहस्त फोटोग्राफर्स से मिलने का अवसर भी मिला है। प्रत्येक शहर में ऐसे प्रकृति प्रेमी उस शहर के जीवों की जैवविविधता के दर्शन कराने में होड़ लगाते दिखते हैं। बेहतरीन फोटोग्रॉफ्स और जंतुओं की विशेष जानकारियाँ वाट्सऐप और फेसबुक पर डालकर वे यह महसूस ही नहीं होने देते हैं कि हम प्रकृति से दूर जा रहे हैं और मकानों के जंगलों में रहते हैं।
एडगर और निक के अत्यंत दिलचस्प अवलोकनों और प्रयोगों को हिंदी के पाठकों से अवगत कराने के निश्चय ने इस पुस्तक को लिखने के लिए प्रेरित किया। कई शोधपत्रों, कई संदर्भी और अनेक देश-विदेश के वैज्ञानिकों के कार्यों के अध्ययन की विनम्र निष्पत्ति है यह पुस्तक। लेखक, इन सभी शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों, लेखकों, प्रकाशकों और फोटोग्रॉफर्स के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करता है जिनके कार्य के कतिपय अंशों की प्रतिछाया इस पुस्तक में प्रतिलक्षित होती है।
इस पुस्तक के अंत में तकनीकी शब्दों तथा नामों का अंग्रेजी में उल्लेख किया गया है। उच्चारण में भिन्नता अथवा त्रुटि से भ्रम की स्थिति न बने, यह इसका हेतु है। लेखन और विषयवस्तु को और अधिक रिष्कृत करने के लिए आपकी प्रतिक्रियाएँ, विवेचनाएँ तथा सुझाव सादर आमंत्रित हैं ।
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