सम्प्रदायों में चार सम्प्रदाय प्रमुख है। इन आस्तिक सम्प्रदायों के प्रवर्तक आचार्य और सम्प्रदाय-सिद्धान्त निम्नलिखित हैं- स्वामी रामानुजाचार्य-विशिष्टाद्वैतवाद, स्वामी माधवाचार्य-द्वैतवाद, स्वामी निम्वार्काचार्य- द्वैताद्वैतवाद, विष्णुस्वामीजी शुद्धाद्वैतवाद। इन सभी प्रातः स्मरणीय आचार्यों ने सम्पूर्ण भारतवर्ष में स्व-स्व सिद्धान्त और इष्ट के अनुसार भक्ति का यथेष्ट प्रचार-प्रसार किया। विशिष्टाद्वैतवाद को श्री सम्प्रदाय भी बोलते हैं। भाष्यकार श्री रामानुजाचार्य के द्वारा इस सम्प्रदाय का विशेष प्रचार-प्रसार हुआ इसलिये इस सम्प्रदाय को श्री रामानुज सम्प्रदाय भी कहते हैं। इस सम्प्रदाय में एक से एक सिद्ध, सन्त भावुक भक्त और विद्वान आचार्य हो गये हैं। इस सम्प्रदाय के विशिष्ट महात्माओं को आलवार कहते हैं। द्वादश आलवार विशेष ख्याति प्राप्त हैं- श्री कासार योगी, श्री भूतयोगी, श्री महदयोगी, श्री भक्ति सार, श्री शठ कोप स्वामी, श्री कुलशेखर, श्री विष्णुचित्त स्वामी, श्री भक्तांध्रिरेणुः श्री मुनिवाहन श्री परकाल स्वामी, श्री गोदाम्बा जी और श्री यतीन्द्र मिश्र ।
हमारे पूर्वाचार्य - श्री नाथमुनि, श्री पुण्डरीकाक्ष, श्रीराममिश्र, श्री यामुनाचार्य, श्री महापूर्णाचार्य, श्री मालाधराचार्य, श्री शैलपूर्णाचार्य, श्रीवररंगाचार्य, श्री कांचीपूर्ण और श्री यतिराज स्वामी रामानुजाचार्य। रामानुज स्वामी के पश्चात भी अनेकशः विशिष्ट सन्त विद्वान इस सम्प्रदाय में हुये और अद्यावधि अनेक सन्त-महन्त और विद्वान इस सम्प्रदाय में हैं।
श्री सम्प्रदाय का विशेष उत्थान और प्रचार-प्रसार रामानुज स्वामी के द्वारा हुआ क्योंकि उनका अन्तस्तल रत्नाकर सागर की भाँति विशाल था। सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति अपनत्व और करुणा की पुनीत भावना थी उनके पावन हृदय में। इसका ज्वलन्त प्रमाण- अत्यन्त परिश्रम और कठि न साधना से स्वामी गोष्ठीपूर्ण के द्वारा मन्त्रार्थ की प्राप्ति और उनके द्वारा मन्त्रार्थ को अतीव गोपनीय रखने का गम्भीर आदेश देने पर भी गोपुर से उच्च स्वर से मंत्रोच्चारण करना है।
स्वामी रामानुजाचार्य गावतार थे, श्री सम्प्रदाय के अनेकशः ख्यातिप्राप्त विद्वानों ने शास्त्रीय प्रमाणों से तर्क की कसौटी पर कसकर सिद्ध कर दिया है। भविष्य पुराण के अनुसार-द्वापरान्ते कलेरादौ, पाखण्ड प्रचुरेजने ।
रामानुजेति भविता, विष्णुधर्म प्रवर्तकः ।।
अर्थात्- द्वापर के अन्त और कलियुग के आदि में चतुर्दिग पाखण्ड की बहुलता होने से वैष्णव धर्म प्रवर्तक स्वामी रामानुजाचार्य का प्रादुर्भाव होगा।
सुदूर अतीत में बौद्ध धर्म ने वैदिक धर्म को आक्रान्त कर लिया था।
वैदिक धर्म में कर्मकाण्ड के जटिल जाल का अत्यधिक विस्तार होने के कारण, तत्कालीन परिस्थितियों में जन साधारण को बौद्धधर्म अधिक सुविधाजनक और लाभदायक लगा एतावता सुविधाभोगी लोगों का झुकाव बौद्धधर्म के प्रति अधिक हुआ।
कलिङ्ग युद्ध के पश्चात् हिंसा से भयाक्रांत और अशान्त सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने से और उसको राजधर्म घोषित कर राजकीय सहायता प्रदान करने से बौद्ध धर्म अधिक तीव्र गति से संसार में फैला।
वैकुण्ठाधिपतिक्षीराव्धिशायी जगन्नियन्ता भगवान विष्णु के चौबीस अवतारों में तथागत बुद्ध भी एक अवतार हैं। किन्तु वेद और वैदिक सिद्धान्तों की अवहेलना करने के कारण बौद्धावतार आस्तिको के लिये नहीं रहा।
दूसरी बात- बौद्ध धर्म का मूल मन्त्र है- अहिंसा परमोधर्मः जो कि धर्म का एक अंग है सम्पूर्णाङ्ग नहीं। समाज में शान्ति और सुखमय वातावरण निर्मित करने के लिये, अन्यायियों, पापियों और असमाजिक तत्वों का समूलोन्मूलन करना परमावश्यक है, किन्तु ऐसा करना बौद्धमतावलम्बियों के विचारधारा के विपरीत होगा।
भारत शताधिक वर्षों तक परतन्त्रता के प्रवल और भया वह श्रृंखला में जकड़ा रहा इसके कई कारण थे। जिनमें बौद्ध मतावलम्बियों का बाहुल्य और वर्चस्व होना भी एक कारण था। इतिहास बताता है कि बौद्ध भिक्षुकों ने विदेशी आक्रमणकारी शकों हूणों आदि को भारत में प्रवेश करने के लिये हर प्रकार का सहयोग दिया।
भारतीय क्षितिज पर छाये बौद्धान्धकार को सम्पूर्ण रूप से विनष्ट करने के लिये स्वामी आद्य शंकराचार्य तिमिरहारी भुवन भाष्कर सूर्य की भाँति प्रकट हुये। ३२ वर्ष की अल्पावधि में ही शंकराचार्य ने विस्मयोत्पादक वह कार्य कर दिखाया जो सर्वसाधारण के लिये कठिन ही नहीं असंभव भी था। स्वामी शंकराचार्य ने भारतवर्ष के विशाल भू-भाग के कोने-कोने में पद यात्रा करके समाज-प्रतिष्ठित बड़े-बड़े बौद्ध आचार्यों को गम्भीर शास्त्रार्थ में परास्त किया। स्वामी शंकराचार्य के पाण्डित्य और तेज ओज से परास्त बौद्ध धर्म भारत से प्रबल झंझावात से उत्पाटित विटप की भाँति समूलोन्मूलित हो गया और चीन आदि देशों में जाकर लोगों के अन्तः करण में जम गया और अद्यावधि विद्यमान है।
स्वामी शंकराचार्य ने बौद्ध धर्म का विनाश तो किया किन्तु प्रच्छन्न बौद्ध बनकर, जो तदनुकूल वातावरण के अनुसार ठीक ही था। किन्तु सुदूर, भविष्य के लिये सुखावह नहीं था। स्वामी शंकराचार्य और रामानुजाचार्य के अन्तराल का जो समय था उसमें जैन बौद्ध पुनः प्रवल होने लगे थे नास्तिक चार्वाक का खाओ-पीओ मौज-उड़ाओ का सिद्धान्त अर्थात पंचमकार जन सामान्य को हठात् अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। मद्य, मांस, मीन, मुद्रा और मैथुन के प्रति लोगों की ललक बढ़ती जा रही थी अपने धर्म-कर्म को विस्मृत कर युवा वर्ग सुरा-सुन्दरी के पीछे पागल होकर दौड़ रहा था, विलासिता के गहरे कुण्ड में आपाद मस्तक डूब रहा था।
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