विश्व सदी के महान फिल्म अभिनेताओं में से एक देव आनंद के जन्मशती वर्ष में वरिष्ठ फिल्म पत्रकार दीप भट्ट की इस पुस्तक का प्रकाशन निश्चय ही एक उल्लेखनीय घटना है। पहली बार हिंदी में देव आनंद पर एक ऐसी पुस्तक प्रकाशित हुई है जिसमें उन्हें विभिन्न कोणों से समझने का प्रयास किया गया है और उनके जीवन तथा फिल्मों के बारे में एक सम्यक मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है। दीप भट्ट ने बड़ी मेहनत और लगन से इस किताब को तैयार किया है जिसमें देव साहब को लेकर उनका जुनून देखा जा सकता है। उन्होंने इस पुस्तक में देव साहब, उनकी पत्नी कल्पना कार्तिक तथा को-स्टार वहीदा रहमान के इंटरव्यू भी शामिल किये है। साथ ही मनोज कुमार, जीनत अमान, सुभाष घई, मुजफ्फर अली और माधुरी के दिवंगत संपादक अरविंद कुमार, प्रख्यात लेखक गंगा प्रसाद विमल, प्रसिद्ध आलोचक एवं कवि विजय कुमार हितेंद्र पटेल जैसे लेखकों के लेख भी शामिल हैं। इस पुस्तक की भूमिका हिंदी के वरिष्ठ कवि आशुतोष दुबे ने लिखी है। दो शब्द देव साहब के बेटे सुनील आनंद ने लिखे हैं। इस तरह देव साहब की पूरी फिल्मी जीवन यात्रा इस पुस्तक में समाई है। उम्मीद है देव साहब के लाखों प्रशंसक और चहेते इस किताब के जरिये अपने प्रिय अभिनेता के बारे में बहुत कुछ जानेंगे।
दैनिक हिन्दुस्तान में सीनियर सब-एडिटर से रिटायर्ड राइटर-जर्नलिस्ट दीप भट्ट फ़िल्मों के जानिब अपनी बेतहाशा दीवानगी के लिए जाने जाते हैं। जानी-मानी फ़िल्मी हस्तियों से उनके व्यक्तिगत संबंध रहे हैं। देश भर की पत्र-पत्रिकाओं में फ़िल्मों पर समीक्षा लेखन और दर्जन फ़िल्मकारों एवं अदाकारों के साथ उनके इंटरव्यू प्रकाशित हो चर्चा में रहे हैं।
हिंदी सिनेमा के शिखर, भारतीय सिनेमा :
फ़िल्मी हस्तियों से संवाद दीप भट्ट की अहम किताबें हैं।
मुझे यह जानकर अत्यंत प्रसन्नता हो रही है कि मेरे पत्रकार मित्र दीप जी मेरे पिताजी पर एक पुस्तक निकाल रहे हैं। मैं इस बात से बहुत खुश हूं कि मेरे पिता की जन्मशती बड़ी धूमधाम से मनाई जा रही है। कई जगह उनकी याद में आयोजन हो रहे हैं एवं अखबारों में इस मौके पर लेख भी प्रकाशित हो रहे हैं।
जन्मशती वर्ष में दीप जी ने एक पुस्तक निकालकर जिस शिद्दत से मेरे पिता को याद किया है वह काबिले तारीफ है। मैं अपने पिता को एक पुत्र से अधिक एक दर्शक और एक प्रशंसक के रूप में भी देखता रहा हूं। कहने को मैं उनका पुत्र हूं लेकिन सच पूछिए तो मैं भी एक दर्शक के रूप में उनका एक मुरीद रहा और उनके जीवन दर्शन से बहुत कुछ सीखने की कोशिश करता रहा।
उनकी आधुनिकता, उनकी रुमानियत, उनकी जीवंतता और उनकी रवानगी हर व्यक्ति के लिए प्रेरक रही है। मुझे भी एक पुत्र के रूप में उन्होंने बहुत प्यार और स्नेह दिया और मेरे व्यक्तित्व निर्माण में भी उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। मेरे पिता केवल मेरे ही पिता नहीं थे बल्कि वे उन लाखों युवा दर्शकों के भी एक तरह पिता और पथ प्रदर्शक थे और उन्होंने भारत में नई पीढ़ी की चेतना का निर्माण भी किया था। फिल्में उनके जीवन का हिस्सा तो रहीं बल्कि वह उनके लिए प्राणवायु की तरह थीं। जीवन के अंतिम समय तक जिस तरह वे फिल्मों के लिए समर्पित रहे, वह काबिले तारीफ है। वे हिंदुस्तान की जनता को अपनी फिल्मों से न केवल एक संदेश दे रहे थे बल्कि उन्हें आनंद और खुशियां तथा उल्लास भी बांट रहे थे।
मुझे उम्मीद है कि जन्म शताब्दी वर्ष में देव आनंद का नए सिरे से मूल्यांकन होगा और 21वीं सदी में वे नई पीढ़ी के गाइड बनेंगे। उनकी फिल्मों को देखकर लोगों में कुछ प्रेरणा आएगी और उन्हें जीवन का अर्थ और उसकी सार्थकता का पता चलेगा। मुझे ही नहीं, लाखों लोगों को तो लगता है कि मेरे पिता भारत रत्न के वास्तविक रूप में हकदार थे। अगर जन्मशती वर्ष में भारत सरकार जनता की इस मांग को मान ले तो उनके देश-दुनिया में करोड़ों प्रशंसकों को खुशी होगी और देश भी गौरवान्वित होगा।
देव आनंद एक अभिनेता का ही नहीं, एक स्पिरिट, एक चेतना, एक भाव, एक मनःस्थिति का नाम है।
एक जवानी जो उम्र से ज्यादा रूह की है। एक उत्साह जो समय के साथ मंद-मंवर नहीं पड़ता। एक जीवन जो थकान और उदासी और मोहभंग की क्लाति को प्रवेश की इजाजत ही नहीं देता। एक अप्रतिहत ऊर्जा-पुंज जो सफलता-असफलता से निरपेक्ष अपनी कसौटी स्वयं है।
देव आनंद हमारे भीतर के अदम्य और चिरंतन रोमांस को साकार करते हैं। वे हमारी उस आवारगी को पर्दे पर मूर्त करते हैं जो हमारे अपने जीवन में छीजती चली जाती है। वे उस खिलंदड़पन की लापरवाह अदायगी करते हैं जो जीवन को एक ऊर्जस्वित नएपन से भर देता है।
संक्षेप में, देव आनंद अपनी छरहरी काया में हम सबके उस जीवन का चलता-फिरता स्मारक रहे जिसे हम जीना चाहते हैं और जी नहीं पाते। दुनियादारी हमसे वह सब छीन लेती है जो देव आनंद ने अंतिम क्षणों तक सहेजे रखा सपने देखने और उनसे आगे बढ़कर और सपने देखते रहने का साहस ।
वे एक शैली थे। वे एक अदा थे। वे एक शरारत थे। वे एक मुस्कुराहट थे। वे एक हंसी थे। वे झूलते हाथों और हिलते हुए सिर और स्टाइलिश टोपियों और शर्ट के ऊपरी बंद बटन और रंगीन या चौखाने की पतलूनों में एक चलती-फिरती विद्युत तरंग थे।
ताज्जुब नहीं कि उनके साथ काम करने वाली अभिनेत्रियों को लगता रहा कि देव एक ऐसी एक्सप्रेस ट्रेन की तरह हैं जो रुकना जानती ही नहीं।
देव आनंद हिंदी सिनेमा की महान त्रयी का वह विरल कोण हैं जो दिलीप कुमार के आत्मपीड़न और राज कपूर की आत्मदया से बिल्कुल अलग अपने हठीले रुमान में, अपने अलबेलेपन में, अपनी मस्ती में हर फिक्र को धुएं में उड़ाने वाले जानलेवा अंदाज में जिंदगी का साथ निभाते चले जाते हैं।
देव आनंद की भूमिकाओं पर गौर करें तो उनमें से ज्यादातर में वे कुछ पता लगाना चाहते हैं। कुछ खोज रहे हैं। इन्वेस्टिगेशन कर रहे हैं। उन्हें निजी तौर पर देखें तो भी यही लगता है कि यह खोज उनके जीवन में हमेशा बनी रही। यह वह खोज नहीं, जो खोज लिए जाने के बाद खत्म हो जाती है। वे लगातार यात्रा में रहे जो मंजिलों से आगे भी जारी रही। ऐसी सतत कर्मठता बहुत दुर्लभ है। ऐसी निस्संगता भी कि जिसे न सफलता, न ही असफलता किसी तरह आहत कर सके। देव आनंद सिनेमा को वास्तविक अर्थों में जीने वाली शख्सियत थे। एक व्यावसायिक क्षेत्र में, जहां नाकामयाबी अच्छे-अच्छों के हौसले पस्त कर देती है, अपने अंतिम दौर की फिल्मों की नाकामयाबी भी देव आनंद को रंच मात्र भी डगमगा न सकी। वे बार-बार मुड़ कर देखते हुए, अतीत की लोकप्रियता और सफलता की स्मृति का उत्सव मनाते रहने वाले शख्स नहीं थे। वे लगातार आगे बढ़ते रहने वाले, अपने को नया करते रहने वाले, अपनी प्रेरणाओं पर यकीन रखते हुए चलते रहने वाले, विकट जिजीविषा और अनाहत उत्साह में डूबे दुर्लभ और असाधारण व्यक्ति थे। आपातकाल के बाद एक राजनीतिक दल के गठन जैसी हिम्मत उन्होंने दिखाई। अटल जी की पाकिस्तान बस यात्रा के वे प्रमुख आकर्षण रहे। उन्होंने जिस फिल्म इंडस्ट्री से सब कुछ अर्जित किया, उसे अपनी क्षमतानुसार लौटाने का जज्बा भी रखा। प्रतिभाओं को पहचाना, उन्हें अवसर दिए, उनकी किस्मत गढ़ी और अपने बैनर 'नवकेतन' को एक समय बुलंदियों पर पहुंचाया।
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