भारतीय स्मृति और मूल्यबोध का स्थापत्य शैव, शाक्त और वैष्णव परम्परा के आख्यानों से निर्मित हुआ है। शास्त्र की परम्परा से लेकर लोक की वाचिक परम्परा तक इन आख्यानों को सदियों से कथा वाचकों ने लोक स्मृति में विस्तारित किया है। एक जीवन्त परम्परा बनाये रखने में इन कथाव्यासों का केन्द्रीय योगदान है। भारतीय ज्ञान परम्परा में त्रित्व की परिकल्पना और उसका दैवीयकरण मनुष्य की अभिव्यक्ति सम्भावना का अन्तिम पड़ाव कहा जा सकता है। वेद, उपनिषद्, पुराण, संहिता आदि-आदि अनेक ग्रन्थ इसके प्रमाण हैं। भारतीय मनीषा ने इन सनातन कथाओं को प्रत्येक समय में पुनर्भाषा और उसकी व्याख्याएँ सभ्यताओं के कल्याण के लिए की हैं। उदाहरण के रूप में श्रीकृष्ण के चरित और उनके आख्यान से जिस परम्परा का विकास भारतीय भूमि पर हुआ, उसका पुनर्पाठ अपने समय में सन्त कवि सूरदास ने किया है। लोक परम्पराओं ने कृष्ण के चरित से जन्म का लालित्य और चारण प्रवृत्ति से अनेक कला परम्पराओं का विकास किया है। यह भी एक तरह से इस सनातन कथा का पुनर्पाठ ही कहा जायेगा, जो इस सनातन कथा की समकालीन रचना है।
हमारी स्मृति अतीत के आयाम में जितना भी पीछे जा सकती है, उतने समय की कल्पना के अतीत से भी पुराने ये आख्यान हमारे जातीय जीवन की प्रेरणा और मूल्यबोध के केन्द्र में अपनी जगह बनाये रखकर एकदम समकाल तक कलाओं के कितने सारे माध्यमों में अभिव्यक्त होते हैं। इन भारतीय आख्यानों के कला वैविध्य को अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए नियोजित प्रयास 'त्रिवेणी' में परिकल्पित हुआ है। इन भारतीय आख्यानों का कितना विविध और विशाल कला विश्व निर्मित हो सकता है, इनका साक्ष्य उज्जैन में स्थापित इस संग्रहालय में देखा जा सकता है। 'त्रिवेणी' भारतीय आख्यान परम्परा के विस्तार का ललित संसार है। सामान्यतः संग्रहालय में पुरावशेषों, ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण सामग्रियों, अभिलेखों, चित्रों और शिल्पों आदि को संरक्षित किया जाता है, जो हमारी स्मृति में अतीत को जीवन्त करते हैं और हमारे सांस्कृतिक दाय को सुरक्षित रखते हैं, जिससे हम अपनी परम्परा से साक्षात्कार कर सकें। इस अर्थ में 'त्रिवेणी' संग्रहालय के समकालीन कला प्रयोगों में अनादिदेव शिव, माँ भगवती और श्रीकृष्ण से सम्बन्धित विभिन्न कला प्रादर्शी का संग्रहालय कहने में संकोच होगा, क्योंकि यहाँ प्रदर्शित होने वाले चित्र, शिल्प, संगीत, साहित्य और प्रतीक जीवन्त परम्परा का भाग हैं, अतीत की स्मृति और लुप्त कला परम्परा नहीं। भारत के अलग-अलग प्रान्तों में अनेक लोक शिल्पी स्थानिक पद्धति से इन आख्यानों को चित्रित, उत्कीर्णित और रूपायित कर रहे हैं। यह सब हमारी समकालीन परम्परा का भाग है। यहाँ भारतीय परम्परा की तीन शास्वत धाराओं, जिनकी किसी न किसी रूप में उज्जैन से संपूक्ति रही है, इसका संगम है- शिव, कृष्ण और शक्ति को यहाँ एकत्र उपस्थिति में देखने की कोशिश की गई है।
मध्यप्रदेश शासन, संस्कृति विभाग ने भारतीय ज्ञान परम्परा के आदिपुरुष अनादिदेव शिव, माँ भगवती दुर्गा और श्रीकृष्ण के सनातन आख्यानों को समकालीन रचनाधर्मिता की सामर्थ्य में एक बार फिर से प्रकट करने का उद्यम किया है। कथा आधार आवश्यक रूप से सनातनता का ही है। वास्तव में ऐसे प्रयास ही सनातन आख्यान की सामर्थ्य को समकालीन मानवीय सभ्यता के अनुकूल और उसके समझ की भाषा तथा तकनीक में सम्प्रेषित करने के सार्थक उद्यम भी होंगे।
माँ भगवती के 108 नामों से ही हममें से ज्यादातर लोग परिचित रहे हैं। 'त्रिवेणी' संग्रहालय का यह उद्यम सम्भवतः इस अर्थ में अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है- जब एक ओर देवी के नाम रहस्य की कथा पहली बार संग्रह और दूसरी ओर उस कथा पर आधारित चित्रांकन का कार्य हुआ हो। अकादमी के अनुरोध पर दोनों विद्वानों ने अपनी विमर्शात्मक व्याख्या में देवी के लीलाविग्रहों के हार्दभाव को अपनी विवेचना का विषय बनाया है। इन सबकी तुलनात्मक समीक्षा से देवी की लीलाओं के स्वरूप पर विशद प्रकाश पड़ सकेगा। दोनों विद्वानों ने देवी के नामों का विमर्श प्रस्तुत कर देवी के प्रति अपनी प्रगाढ़ आस्था को अभिव्यक्त किया है। इसकी सहायता से जहाँ एक ओर उज्जैन स्थित शैव, शाक्त और वैष्णव (श्रीकृष्ण) आधारित कला संग्रहालय 'त्रिवेणी' में माँ दुर्गा के एक सौ आठ नामों के स्वरूप के शास्त्राधारित चित्र सृजन में सफलता प्राप्त हुई है, वहीं दूसरी ओर प्रबुद्ध पाठक देवी दुर्गा की आराधना में तल्लीन हो सकेंगे। एतदर्थ श्रीविश्वसारतन्त्र का श्रीदुर्गाअष्टोत्तरशतनामस्तोत्र एवं श्री दुर्गा-अष्टोत्तरशतनामावली भी दी जा रही है। इसके लिए प्रो. रामपूजन पाण्डेय एवं डॉ. ददन उपाध्याय दोनों ही अभिनन्दनीय एवं वन्दनीय हैं।
भारतीय ज्ञान परम्परा का यह कलारूप एक ही साथ अकल्पनीय समय-सातत्य का साक्ष्य भी है और आख्यान को कला में रचने के कौशल का प्रमाण भी। उज्जैन नगर महाकाल का स्थान है, लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की विद्या स्थली और माँ भगवती के इक्यावन शक्तिपीठों में से एक यहाँ हरिसिद्धि स्वरूप यहाँ विराजमान हैं- अब इनके कलाधाम की 'त्रि-वेणी' भी यहीं हैं।
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