कबीर साहब की बात जब भी आती है तो धरमदास का नाम सबसे पहले आ जाता है। जबकि कबीर साहब के जीवन और परम्परा से धरमदास का कोई लेना-देना नहीं है। कबीर साहब का जीवन और परम्परा ऐतिहासिक है और धरमदास की परम्परा पौराणिक है। कबीर साहब के दो सौ वर्ष बाद सतरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में धरमदास का समय बताया जाता है। मथुरा में धरमदास को कबीर साहब मिले थे, ऐसा कहा जाता है। लेकिन ऐसा सम्भव नहीं हो सकता है, क्योंकि कबीर साहब का काल पन्द्रहवीं शताब्दी है और धरमदास सतरहवीं शताब्दी में पैदा हुए थे। इन दोनों की पैदाइश में दो सौ साल का अन्तराल है। दो सौ साल के अन्तराल में दोनों का साक्षात् मिलना इतिहास और परम्परा सम्मत नहीं है। लेकिन धरमदास के अनुयायी और वंशज दोनों को समकालीन सिद्ध करने की भरपूर कोशिश करते हैं। लेकिन कोई ऐसा प्रबल साक्ष्य नहीं मिलता है कि दोनों को समकालीन सिद्ध किया जाय। धरमदास के वंशज जो भी साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं, वे सब काल्पनिक और पौराणिक हैं।
कबीरपंथ पर काम करने वाले इतिहासकारों ने भी कबीर पर अनुसंधान करते समय इस पर जोर दिया है कि धरमदास कबीर साहब के समकालीन नहीं थे। इसलिए अध्ययन और विश्लेषण से भी धरमदास का समय कबीर साहब के समकालीन नहीं ठहरता है। भ्रम और अज्ञानता वश कई लोगों ने समकालीन सिद्ध करने का प्रयास किया है, जो बिलकुल सत्य और न्याय संगत नहीं है। कबीरपंथ के विद्वान साहित्यकारों ने तो यह स्थापित ही कर दिया है कि कबीर साहब के बहुत बाद में धरमदास हुए थे। इन साहित्यकारों में जिनका नाम लिया जा सकता है, वे हैं आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, डॉ. केदारनाथ द्विवेदी, डॉ. रामरतन भटनागर, डॉ. शुकदेव सिंह, विदेशी अन्वेषक डॉ. डेविड लारेंजन आदि इन विद्वानों ने सिद्ध कर दिया है कि धरमदास कबीर साहब के समकालीन नहीं थे। धरमदास के समकालीन और थोड़े परवर्ती सन्तों ने तो स्पष्ट ही कर दिया है कि धरमदास कबीर साहब के दो सौ वर्ष बाद पैदा हुए थे। संत दरिया साहब बिहार वाले ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि दो सौ बरस बीत जब गयऊ, धरमदास के यहां जिन्दा अयऊ'। संत दरिया साहब धरमदास के समकालीन संत थे। संत गरीबदासजी महाराज धरमदास के दस-बीस साल बाद में हुए हैं। गरीबदासजी के समय में यह बात प्रसिद्ध हो गयी थी कि 'जिन्द रूप जब धरै सरीरा और धरमदास मिल गये कबीरा।' उनकी दूसरी पंक्ति भी इस प्रकार है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है- धरि जिन्दे का रूप सैल वृन्दावन कीन्ही, जहां धरमदास रहत है बहुत अधीनी'। धरमदास ने स्वतः भी बोध-ग्रंथ में लिखा है कि जोलहा की जब उमर सिरानी, मथुरा देह धरि तब आनी।' धरमदास के कुछ ही बाद में परम भक्तिमय कवयित्री रतनाबाई हुई हैं, उन्होंने अपनी स्तुति में लिखा है कि मगहर तजिवासा किया परकासा, जहां धरमदासा व्रतधारी।'
ऐसे ही अनेक समकालीन और परवर्ती सन्तों ने धरमदास और कबीर साहब के प्रसंग की चर्चा की है और स्पष्ट किया है कि धरमदास और कबीर साहब की समकालीनता नहीं है। धरमदास के कुछ वंशानुयायी लेखक भी हुए हैं। उन्होंने अपनी अन्ध-भक्ति में कबीर साहब को अवतारी बताकर धरमदास के साथ सम्बन्ध जोड़ने की कोशिश की है। यह सत्य और तथ्य से परे है। कबीर साहब का जीवन और परम्परा ऐतिहासिक है। कबीर साहब को अलौकिक बनाकर हम उनके इतिहास और परम्परा के पक्ष पर बात नहीं कर सकते हैं।
धरमदास और उनके अनुयायी वंशजों ने मुख्यतः यही काम किया है। कबीर साहब को इतिहास और लौकिक परम्परा के पक्ष से बहुत दूर कर दिया है।
धरमदास के जीवन में 'जिन्द' या 'जिन्दा' शब्द का प्रयोग बहुत ज्यादा हुआ है। धरमदास सहित समकालीन सभी सन्तों ने जिन्दा रूप में धरमदास को मिलने की बात कही है। इसलिए इस पर विचार करना आवश्यक है। यदि धरमदास ने जिन्दा को अपना गुरु बनाया था तो जिन्दा कबीर की परम्परा और इतिहास क्या है? इसको स्पष्ट करना जरूरी है। वस्तु अन्तै खोजे अन्तै, क्योंकर आवे हाथ।' इसीलिए यह सब भ्रम और भटकाव शुरू हो गया है। लोग वास्तविकताओं से दूर होते चले गये और सत्य के पक्ष उनके जीवन से दूर ही रह गये। इसीलिए प्रायः ये लोग सत्य से मुख मोड़ते हैं।
सत्य क्या है? इस पक्ष का उजागर करना आवश्यक है। कबीर साहब के परिनिर्वाण के बाद संत कमाल साहब भ्रमण करते हुये और कबीर साहब सन्देश लोगों में पहुंचाते हुये गुजरात प्रदेश के वर्तमान शहर अहमदाबाद पहुंच गये। उस समय वहां के बादशाह अहमदशाह थे और दरिया खान उनके वजीर। संत कमाल साहब कबीर की भाषा में ही लोगों को समझा रहे थे। कबीर साहब की वाणी शासन-सत्ता के खिलाफ जाती है। बात अहमदशाह तक पहुंची और अहमदशाह ने संत कमाल साहब को अपने यहां बुलाकर बहुत ही प्रताड़ित किया। कमाल साहब कबीर साहब की सिद्धि और साधना में पक्के हो गये थे। इसलिए अहमदशाह उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सके। तब तक वजीर दरिया खान कमाल साहब के शिष्य हो चुके थे। यह बात अहमदशाह को मालूम हो चुकी थी। इसलिए दरिया खान को वजीरी छोड़नी पड़ी और उनको कमाल साहब की शरण में आना पड़ा।
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