इस पुस्तक में क्या है, इसके बारे में कुछ कहने की आवश्यकता मैं नहीं समझता। इसके पाठकों में एक वर्ग अवश्य ऐसा होगा जो कि पुस्तक पढ़ने के बाद ही स्वतन्त्र रूप से निर्णय करना चाहेगा कि उसकी राय में इस पुस्तक में क्या है; और उस पर इसका तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ेगा कि मैंने उसके विषय में क्या कहा है। निःसन्देह एक दूसरा वर्ग ऐसा भी होगा जिसने पुस्तक पढ़ने से पहले अपनी पक्की धारणा बना रखी होगी कि क्या उसे मेरी पुस्तक में पाना है; इस वर्ग को भी इससे प्रयोजन नहीं होगा कि मैंने भूमिका में पुस्तक के विषय में क्या कहा है-या कि पुस्तक में ही क्या कहा है।
इसलिए पुस्तक में जो कुछ है उसके बारे में कोई सफाई मुझे नहीं देनी है। क्या-क्या वह नहीं है, इसी के बारे में दो-एक शब्द कहना चाहता हूँ।
यह पुस्तक मार्गदर्शिका नहीं है। इसके सहारे यूरोप की यात्रा करनेवाला यह जान लेना चाहे कि कैसे यह कहाँ से कहाँ जा सकेगा, या कैसे मौसम के लिए कैसे कपड़े उसे ले जाने होंगे, या कि कहाँ कितने में उसका खर्चा चल सकेगा, तो उसे निराशा होगी। जो यह जानना चाहते हों कि कहाँ से नाइलान की साड़ियाँ-या कैमरे, या घड़ियाँ या सेण्ट, या ऐसी दूसरी चीजें जो कि भारतवासी विदेशों से उन कला-वस्तुओं के एवज में लाते हैं जो कि विदेशी यहाँ से ले जाते हैं-कहाँ से किफायत में मिल जाएँगी, उनके भी काम की यह पुस्तक नहीं होगी। वास्तव में ऐसे पाठक को यह पुस्तक पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है; और मैं उन लेखकों में से नहीं हूँ जो समझते हैं कि अगर पाठक ने मुगालते से किताब खरीद ली तो वह भी लाभ ही हुआ क्योंकि बिक्री तो हुई। जिस पाठक के द्वारा मैं पढ़ा जाना चाहता हूँ उसका स्वरूप मेरे सम्मुख स्पष्ट है। मैं उसका सम्मान भी करता हूँ। और इसलिए भरसक उसे भ्रान्ति में नहीं रखना चाहता, न भ्रान्त होने का अवसर देना चाहता हूँ।
उस मेरे वांछित पाठकवर्ग में समाज के और शिक्षा के सभी स्तरों के लोग हैं। (अशिक्षा शिक्षा का स्तर नहीं है, उसका नकार है।) उसमें ऐसे भी हैं जो अँगरेजी या अँगरेजी के अलावा दूसरी विदेशी भाषाएँ जानते हैं (और इसके बावजूद हिन्दी भी पढ़ लेते हैं।) और ऐसे भी हैं जो कोई विदेशी भाषा नहीं जानते, या हिन्दी के अतिरिक्त कोई दूसरी भाषा नहीं जानते। उनमें ऐसे लोग हैं जो अनेक बार पश्चिम और पूर्व के विभिन्न देशों की सैर कर आये हैं, ऐसे भी हैं जो शीघ्र विदेशों को जानेवाले हैं; ऐसे भी हैं जो जानेवाले हों या न हों, विदेश-यात्रा के सपने देखते हैं; और ऐसे भी हैं जिनके सम्मुख ऐसी कोई सम्भावना नहीं है, और इसके लिए विशेष उत्कण्ठा भी नहीं है। वास्तव में इन सब बातों में से कोई भी पाठक की कसौटी नहीं है।
पाठक उदारमना हो, यह भी मैं चाहता हूँ। बिना इसके वह दूसरे के विचारों का सम्मान नहीं कर सकता। बल्कि वह शायद अपने भी विचार नहीं रख सकता, क्योंकि अनुदार विचार तो अपनी उपलब्धि नहीं, रूढ़ि की देन होते हैं।
पाठक अनुभव के प्रति खुला हो, जीवन से प्रेम करता हो, यह भी मैं चाहता हूँ। जो अनुभव के प्रति खुला नहीं है, उसे दूसरे के अनुभव से भी क्या प्रयोजन हो सकता है? और जो जीवन से प्रेम नहीं करता उसके निकट अनुभव का ही क्या मूल्य है? जीवन-प्रेम हो तभी तो अनुभव को धन के रूप में पहचाना जा सकता है; तभी 'सम्पन्न' और 'दरिद्र' की पहचान के आधार आर्थिक मूल्य न रहकर मानवीय मूल्य हो जाते हैं-जीवन के मूल्य ही तो मानवीय मूल्य हैं।
वास्तव में जो ऐसे पाठक हैं उन्हें यह भी नहीं बताना होगा कि पुस्तक में क्या नहीं है। उनकी सदाशयता और सत्ता- स्वयं नीर-क्षीर करती चलेगी। उन्हें जो मिलेगा उतना ही केवल उनकी नहीं बल्कि मेरी भी उपलब्धि होगा। जो नहीं मिलेगा, वह उसमें है ऐसा कहने की हठधर्मी मैं न करूँगा।
क्या ऐसे पाठक बहुत थोड़े हैं? कहा जाता है कि मैं अभिजात वर्ग का हूँ (कहनेवालों के निकट 'अभिजात' का जो भी अर्थ हो), और इसलिए अल्पसंख्य पाठकों के लिए ही लिखता हूँ- अभिजात पाठकों के लिए ही। कोई क्यों जान-बूझकर अपने पाठकों की संख्या कम करना चाहेगा, यह मैं नहीं जानता। हर कोई मेरा लिखा हुआ जरूर पढ़े ही, ऐसा मेरा कोई आग्रह नहीं है, ऐसी कोई अवचेतन कामना भी मेरी न होगी। किन्तु हर कोई मेरा पाठक हो सकता है ऐसा मैं मानता हूँ।
मानव में मेरी श्रद्धा है। मानव-मात्र को मैं अभिजात मानता हूँ। मेरा परिश्रम उसके काम आवे, इसे मैं अपनी सफलता मानता हूँ। इस पुस्तक में जो परिश्रम हुआ है, जो कुछ प्रस्तुत किया गया है, वह उस समृद्धि में कुछ भी योग दे सके जिसके मानदण्ड आर्थिक नहीं हैं, तो मैं अपने को धन्य मानूँगा। योग वह दे सके या न दे सके, उस परिश्रम के पीछे मेरी भावना यही रही है; जो कुछ मेरी ओर से निवेदित है, उसके मूल में यही साध है।
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