गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने विस्तार से मानव शरीर से जुड़ी विसंगतियों के बारे में बताते हुए उन पर नियंत्रण करने का उपदेश दिया है। तन और मन से जुड़े ऐसे ही विकारों को नियंत्रित करने के साधन हैं व्रत। जब तन और मन विकारों से रहित होगा तो सभी कर्म अपने आप सत्कर्म की श्रेणी के होंगे और ऐसे ही कर्मों को भगवान् ने यज्ञ की संज्ञा दी है। इस यज्ञ की परिभाषा को समझ चुके लोगों के लिए पुण्य और मोक्ष प्राप्ति के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं रह जाती है।
पुराणों में भी मनुष्य के कल्याण के लिए यज्ञ, तपस्या, तीर्थाटन, दान आदि अनेक साधन बताए गए हैं। उनमें से एक साधन व्रतोपवास भी है, जिसकी बड़ी महिमा हमें पुराणों ने बताई है। व्रतोपवास से अंतःकरण की शुद्धि होती है। शरीर के अंतरतम में परमात्मा के प्रति भक्ति, श्रद्धा और तल्लीनता का संचार होता है। पारमार्थिक लाभ के साथ-साथ हमें लौकिक लाभ भी होते हैं। प्रभु को प्रसन्न करने का मुख्य साधन एकादशी का व्रत है।
पुराणों के व्याख्याकार, ब्रह्मज्ञानी श्री सूतजी ने एकादशियों की उत्पत्ति एवं उनका महत्त्व बताया है। उन्होंने सभी एकादशियों से संबंधित कथाएं भी बताई हैं।
एकादशी की व्रत कथाओं के अनुसार इंद्रियों का नियमन अर्थात् संयम करना होता है, इसीलिए इसे नियम भी कहते हैं। एकादशी के व्रत नियमपूर्वक करने से बुद्धि निर्मल होने लगती है। विचारों में सत्त्व गुणों का आगमन होता है। विवेक-शक्ति आती है। सत्-असत् का निर्णय स्वतः ही होने लगता है।
प्रस्तुत पुस्तक में एकादशियों की संपूर्ण जानकारी, कथाएं, व्रत-विधि आदि संजोई गई हैं।
पत्रिका प्रकाशन की धर्म एवं अध्यात्म श्रृंखला की फुलवारी का एक और पुष्प 'एकादशी व्रत कथाएं', पाठकों के अंतर्मन को सुवासित करेगा, ऐसा हमारा विश्वास है।
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