हिंदी साहित्य में भावनाओं एवं भावनाओं की समझ से संबंधित लेख एवं उपन्यास बहुत कम हैं। विशेषतः आज का किशोर मन की भावनाओं को सही प्रकार से समझने एवं व्यक्त करने में बहुत असहज महसूस करता है। इस किताब में लेखक ने भावनाओं को समझना एवं उस समझ को व्यवहारिक रूप से जीवन में किस प्रकार प्रयोग किया जाए यह बताया गया है।
लेखक का यह भी मानना है कि भावनाओं की समझदारी से समाज में फैली समस्याओं एवं कुरुतियों को भी कम किया जा सकता है।
सरल एवं रोचक भाषा शैली में लिखे गये यह लेख यदि आप एक बार पढ़ना शुरु करेंगे तो खत्म किए बिना नहीं रह सकेंगे।
नाम : अभिषेक भारद्वाज)
शिक्षा : एम.बी.ए. एम फिल)
कार्यक्षेत्र : बहुराष्ट्रीय कंपनियों में प्रशिक्षण और विकास में कार्यरत्त)
जन्म : दिल्ली)
प्रभाव : जीवन में सबसे ज्यादा प्रभाव नाना (स्व. डॉ. यज्ञदत्त शर्मा PHD Oxford University London) एवं नानी जी (स्व. श्रीमती गायत्री शर्मा एम.ए.बी.एड.) )
लक्ष्य : लोगों को उनकी भावनाओं को समझने एवं भावना का सदुपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना । अगर हम भावनाओं का सकारात्मक रूप से प्रयोग करें तो जीवन में कल्याण निश्चित है।)
प्रकाशित साहित्य में उल्लेखनीय योगदान)
1-Delhi & its neighbourhood by Dr. Y.D.Sharma)
2-Civil Laws in Kautilya's Arthasastra by Dr.Y.D.Sharma)
3- Emotional Intelligence & Ladder of Success (International Journal by Abhishek Bhardwaj) (ISSN: 2350-0956)
काश... यह एक ऐसा शब्द है, जिसका सामना हम सभी ने अपनी-अपनी जिंदगी में कभी-न-कभी किया ही है। काश, ऐसा हो जाता। काश, ऐसा न हुआ होता। काश, मैंने ऐसा किया होता। काश, मैंने ऐसा न किया होता, वगैरह-वगैरह। यही 'काश' हमें इस बात का एहसास कराता है कि हमारी जिंदगी का वह एक ऐसा कौन-सा पड़ाव था, जब भावनाएं हम पर हावी हो गई या फिर हम भावनाओं पर हावी हुए।
अक्सर भावनाएं इतने वेग से बाहर निकलती हैं कि ना चाहते हुए भी हम ऐसा काम कर जाते हैं, जो हमने कभी सोचा भी नहीं होता है।
भावनाओं की शक्ति का अंदाज़ा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि यह हमारी शख़्सियत को ऐसा बना सकती हैं कि हम पूरी दुनिया जीतने का सपना तक देख सकते हैं या फिर ऐसा भी बना सकती है कि हम महज कुएं का मेंढ़क बन कर रह जाएं। कुछ लोग अपनी भावनाओं का संतुलन इतनी बुरी तरह से खो देते हैं कि आत्महत्या तक कर लेते हैं।
यहां मुझे बचपन में पढ़ी-सुनी एक कहानी याद आ रही है, जो आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।
कुएं का मेंढक
एक कुएं में बहुत सारे मेंढ़क रहा करते थे। वह कुआं काफी बड़ा था और उन सभी मेंढ़कों के जीवन-मृत्यु का दायरा भी वहीं तक सिमटा हुआ था। उनके लिए आसमान का फैलाव तक बस उतना ही था, जितना कि कुएं की छत से झलकता था। एक दिन एक आदमी ने पानी भरने के लिए कुएं में बाल्टी डाली तो बाल्टी में पानी के साथ-साथ एक मेंढ़क भी ऊपर मुंडेर तक पहुंच गया। वहां से उसने देखा कि आसमान तो बहुत बड़ा होता है। फिर उसकी नज र एक गाय पर पड़ी। तभी अचानक उसका संतुलन बिगड़ा और वह वापस कुएं में जा गिरा। कुएं के सारे मेंढ़कों ने उसे घेर लिया और उसका हाल-चाल पूछने लगे। उस मेंढ़क ने अपनी जिंदगी में न तो इतना बड़ा आसमान देखा था, न ही गाय जैसा बड़ा पशु। वह आश्चर्य के साथ सारे मेंढ़कों को इस बारे में बताने लगा। सभी मेंढ़क उसकी बात ध्यान से सुन तो रहे थे, मगर समझ नहीं पा रहे थे कि उतनी विशाल चीज रही कैसी होंगी।
उनमें से एक शक्तिशाली मेंढ़क सामने आया और अपनी वहिं फैलाकर और पेट फुलाकर बोला, ""क्या वह पशु इतना बड़ा था?"" दूसरे मेंढ़क ने जवाब दिया, ""नहीं, इससे भी बड़ा।"" शक्तिशाली मेंढ़क ने अपनी बांहों को थोड़ा और फैलाया और पेट को भी थोड़ा ज्यादा फुलाकर पूछा, ""क्या इतना बड़ा?"" दूसरे मेंढ़क ने जवाब दिया, ""नहीं, इससे भी बड़ा।"" अब तो उस शक्तिशाली मेंढ़क को ताव आ गया। उस सुने गए पशु से मुकाबला करने के लिए उसने अपनी बांहों को फैलाना और पेट को इतना फुलाना शुरू कर दिया कि पेट फूलते-फूलते ही फट गया और वह मेंढ़क मर गया।
इस कहानी से हम आसानी से इस बात को समझ सकते हैं कि जानकारी के अभाव में हमारा जीवन भी कुएं के एक मेंढ़क जैसा ही होकर रह जाता है और सही जानकारी सामने आने पर अगर हम समझदारी और धैर्य से काम न लें तो हमारा हश्र भी उस शक्तिशाली मेंढक के आवेश से सामने आए नतीजे जैसा होगा। जीवन सिर्फ वह नहीं, जो हम सोचते हैं या हमें दिखाई पड़ता है। जीवन वह भी है, जो हमारे प्रतिद्वंद्वियों की नज र से दिखता है। हम सोचते हैं कि हम सब-कुछ जानते हैं, लेकिन वास्तव में होता यह है कि अक्सर हम अपनी भावनाओं को ढंग से दूसरे तक पहुंचाना भी नहीं जानते। जीवन और संसार बहुत व्यापक है और हमें हर पल यह पता होना चाहिए कि हमारे प्रिय एवं अप्रिय, पास एवं दूर, अच्छे एवं बुरे लोग हमारे प्रति किस प्रकार की सोच के साथ जी रहे हैं। तभी हमें सही जानकारी होगी।
मुझे कुछ लोग हमेशा कहा करते थे कि मैं तुम्हारी नस-नस से वाकिफ हूं और अब करीब बीस वर्ष बाद वे मुझे कहते हैं कि वे कभी मुझे नहीं समझ पाए। इसका मतलब दोनों में से एक हो सकता है। शायद दोनों बार वे केवल भ्रम में ही जी रहे थे और शायद आज भी अपने एवं दूसरों के प्रति भ्रम में हैं।
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