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बौद्ध धर्म का सार- The Essence of Buddhism (Hindi Translation of the Essence of Buddhism)

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Specifications
Publisher: Prabhat Prakashan, Delhi
Author P. Lakshmi Narsau
Language: Hindi
Pages: 342
Cover: PAPERBACK
8.5x5.5 inch
Weight 310 gm
Edition: 2024
ISBN: 9789355628954
HBY063
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Book Description

About the Book

इस किताब के लेखक प्रो. पी. लक्ष्मी नरसु थे। यद्यपि मुझे इस किताब को जनता के २ सामने प्रस्तुत करते हुए अति प्रसन्नता हो रही है, फिर भी मैं यह बताना चाहता हूँ कि मैं इसके रचनाकार से कभी नहीं मिला और मैं उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में भी बहुत कम जानता हूँ। जितना हो सका, मैंने उनके व्यक्तिगत जीवन और साहित्यिक रचनाओं की जानकारी एकत्र करने की कोशिश की है। अपनी इस उद्देश्यपूर्ति के लिए मैंने डॉ. पट्टाभि सीतारमैया को एक बेहतर स्रोत के रूप में खोज निकाला। वे प्रो. नरसु को व्यक्तिगत तौर पर जानते थे और उनके दोस्त भी रह चुके थे। मैंने प्रो. नरसु के जीवन से जुड़ी प्रमुख बातों का नीचे उल्लेख किया है, जोकि मुझे डॉ. पट्टाभि से मालूम पड़ीं।

प्रो. पी. लक्ष्मी नरसु, बी.ए. पिछली शताब्दी के विलक्षण गुणों से संपन्न व्यक्ति थे।

उन्होंने मद्रास ईसाई कॉलेज से भौतिकी में स्नातक की डिग्री ली थी। एक शिक्षक और निर्देशक होते हुए सन् 1897 में उनकी उपाधि को असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में आगे बढ़ा दिया गया और उन्हें सन् 1898-1899 में प्रो. मौफात, जोकि भौतिकी के स्थायी प्रोफेसर थे, की छुट्टी के दौरान उनकी गैर-मौजूदगी में बी.ए. में भौतिकी और रसायनशास्त्र का पूरा कार्यभार सौंप दिया गया।

प्रो. मौफात एक ऐसे अनुभवहीन नौजवान थे, जिन्हें प्रो. नरसु के मार्गदर्शन में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त किया गया था और जिन्हें भौतिकी विषय में बेतार संप्रेषण के क्षेत्र में विशेष सम्मान प्राप्त था, जो विषय उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अपनी उन्नति के नवजात स्तर पर ही था। सन् 1898 और 1899 के दौरान प्रो. नरसु, जोकि उन दिनों पहले से ही भौतिकी और रसायनशास्त्र- बी.ए. और एम.ए. दोनों के लिए एक परीक्षक के पद पर थे। प्रो. नरसु को गतिविज्ञान के विषय का अच्छा-खासा ज्ञान था।

एक बार जब गतिविज्ञान में एक प्रश्न की परिशुद्धता पर संशोधन शुरू हुआ, तब प्रो. विलसन, जो एक क्रोधी स्वभाव के अंग्रेज थे और प्रेसिडेंसी कॉलेज, मद्रास में रसायनशास्त्र के प्रोफेसर तथा भौतिकी और रसायनशास्त्र के परीक्षकों के बोर्ड के चेयरमैन थे। उन्होंने गतिविज्ञान से संबंधित प्रो. नरसु द्वारा बताए गए कुछ विचारों पर सवाल उठाए।

प्रो. नरसु ने उसी वक्त उनकी चुनौती को स्वीकार कर लिया।

"मि. नरसु, क्या तुम मुझे सिखाना चाहते हो ?" क्रोधी विलसन ने प्रो. नरसु से पूछा।

जिसके उत्तर में प्रो. नरसु ने समस्या पर काम करने के बाद शालीनता के साथ कहा, "मुझे खुशी है कि मैं प्रो. विलसन को गतिविज्ञान से संबंधित कुछ सिखा रहा हूँ।"

इस घटना के घटने के पचास साल बाद भी यह हमारे लिए एक सबक की तरह है, क्योंकि इससे पता चलता है कि प्रो. नरसु मानते थे कि जिन परंपराओं से समाज का नुकसान हो, उनको तोड़ने में कोई बुराई नहीं। प्रो. नरसु एक समाज-सुधारक भी थे। उन्होंने अठारहवीं शताब्दी में नौवें दशक की शुरुआत में जातिवाद के विरुद्ध अपनी क्षमतानुसार लड़ाई लड़ी और हिंदू धर्म में होनेवाले इस अन्याय का विरोध किया।

उनकी बौद्ध धर्म में बहुत आस्था थी और इस विषय पर वे अकसर लंबे समय तक संभाषण किया करते थे। वे अपने विद्यार्थियों के बीच बहुत ही प्रसिद्ध थे। उनके जादुई व्यक्तित्व का प्रभाव उनके विद्यार्थियों के दृष्टिकोण को व्यापक करने और उसमें आए सुधार पर साफ-साफ झलकता था, जिसके लिए वे निरंतर प्रयास करते रहते थे। उन्होंने अपने आत्मसम्मान, चाहे व्यक्तिगत हो या राष्ट्रीयता के स्तर पर, को हमेशा सर्वोच्च स्थान पर रखा और उन्होंने कभी अपने यूरोपीय सहकर्मियों के बीच रहकर उनके अहंकार और मानसिकता के कारण अपने स्वाभिमान को ठेस नहीं लगने दी। यद्यपि वे हमेशा स्कॉलरशिप की बात हो तो उनके श्रेय का भाग उन्हें देने के लिए हमेशा तैयार रहते थे, लेकिन उनके हाथों अपमान को कभी स्वीकार नहीं करते थे।

प्रो. नरसु, जोकि एक बहुत बड़े प्रख्यात शिक्षाशास्त्री थे, उन्हें अपनी आम और विस्तृत तौर पर पहचान बनाने में अधिक समय नहीं लगा और ख्याति प्राप्त करने से बहुत पहले ही उनकी पचैयप्पा कॉलेज के प्रधानाचार्य के रूप में पदोन्नति हो चुकी थी।

प्रो. नरसु को लोगों में जोश भरने के लिए जाना जाता था और वे राष्ट्रीय निधि और औद्योगिक संघ के तौर पर जानी जानेवाली संस्था, जिसे मिलनेवाले दान से उन विद्यार्थियों की सहायता की जाती थी, जो उच्च स्तर पर तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश जाना चाहते थे, में सक्रिय तौर पर भाग लेते थे। उस समय जापान एक ऐसा देश था, जो उस समय के नौजवानों को अपनी ओर आकर्षित करता था और उनका लक्ष्य वहाँ जाकर विभिन्न छोटे उद्योगों और उत्पादन के तकनीकों को सीखना होता था-खासकर साबुन बनानेवाले- इनेमल और पेंट का उत्पादन करनेवाले उद्योग इत्यादि। लेकिन प्रोफेसर की प्रकृति का एक पहलू यह था कि वे सामाजिक सुधार लाना चाहते थे और अपने इस लक्ष्य की पूर्ति की आशा उन्हें बौद्ध धर्म से मिलती थी। वे ऐसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने जाति-प्रथा, कम उम्र में विवाह और विधवा पुनर्विवाह निषेध जैसी बुराइयों पर रोक लगाने का विचार किया, जो आगे चलकर अन्य कई विचारकों द्वारा सुधार के विषय माने जाने लगे। इस कड़ी में देखा जाए तो उनके भाई, जोकि एक समाज सुधारक थे, ने व्यावहारिक तौर पर इस ओर कदम बढ़ाते हुए एक विधवा से विवाह किया। यह एक ऐसा युग था, जब ईसाई धर्म प्रचारकों ने इस सामाजिक सुधार आंदोलन का न केवल समर्थन किया, बल्कि उन्होंने इसे परंपरागत हिंदुत्व और ईसाई धर्म परिवर्तन के अपने लक्ष्य को पूरा करने के एक पड़ाव पर विजय प्राप्त करने के तौर पर देखा। उन्हें अपनी सोच बदलने और धर्मांतरण की राह में इस विकासशील आंदोलन के रूप में एक बड़ी बाधा को पनपने का एहसास करने में लंबा समय नहीं लगा।

प्रो. नरसु उन्नीसवीं शताब्दी के ऐसे निष्ठावान सुधारक थे, जिन्होंने यूरोपीय अहंकार के साथ देशभक्ति के उत्साह से, मूर्तिपूजा भजन करनेवाले परंपरागत हिंदुत्व के साथ राष्ट्रवादी नजरिए से, पाखंडी ब्राह्मणों के साथ राष्ट्रवादी दृष्टिकोण से और आक्रामक ईसाई धर्म के साथ तार्किक दृष्टिकोण से लड़ाई लड़ी-यह सब वे महान् बौद्ध धर्म के उपदेशों में निहित शिक्षा के अंतर्गत कर पाए।

हाल के समय में भारत के विभिन्न भागों के बहुत से लोगों ने मुझसे बौद्ध धर्म पर एक अच्छी किताब का सुझाव माँगा। उनकी इन इच्छाओं पर प्रतिक्रिया देते हुए मैंने बिना शंका के उन्हें प्रो. नरसु की किताब का सुझाव दिया। क्योंकि मुझे लगता है कि बौद्ध धर्म पर आनेवाली यही अब तक की सबसे अच्छी किताब है। दुर्भाग्यवश, यह किताब बहुत दिनों से प्रिंट में नहीं आई है। इसलिए मैंने निश्चय किया कि इसे दोबारा से प्रिंट किया जाए, जिससे कि जिन लोगों की बौद्ध धर्म की शिक्षा में रुचि है, उनके हाथों में यह शब्दों के ऐसे भंडार के तौर पर उपलब्ध हो, जो अपने प्रतिपादन में पूर्ण और व्याख्या में स्पष्ट है। मुझे इसे प्रिंट करनेवाली पुरानी कंपनी वर्धाचारी एंड कंपनी, मद्रास के प्रतिनिधियों का भी शुक्रिया अदा करना होगा, जिनके पास इस किताब के मूल प्रकाशन का मुद्राधिकार था और उन्होंने इसके नए संस्करण की अनुमति दी।

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