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प्रकृति, पुरुष तथा परमात्मा का अविनाशी नाटक- The Eternal Drama of Nature, Man and God (Set of 2 Volumes)

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Vol- 1: The Indestructible Drama of Nature, Man and God

Vol- 2: Indestructible World-Drama

(Translation in Hindi of the Original English Text 'The Eternal World Drama Part-1)

(Original Text in English- "The Eternal World Drama Part-2" Translated into Hindi Language)

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Specifications
Publisher: Brahma Kumaris Ishwariya Vishwa Vidyalaya, Delhi
Language: Hindi
Pages: 1190
Cover: HARDCOVER/PAPERBACK
9x6 inch
Weight 320 gm
HBM324
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Book Description

प्राक्कथन

इस पुस्तक के लेखक के मन में बहुत दीर्घ काल से यह भावना रही है कि यदि विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के निष्कर्षों पर निष्पक्ष रूप से तथा किसी भी प्रकार की 'भौतिकवादी उप-धारणाओं' (Materialistic presumptions) तथा 'विकासात्मक अभिनति' (Evolutionary Bias) के बिना विचार किया जाय और साकल्यवादी रीति (Holistic manner) से उन्हें सह-सम्बद्ध (correlate) करते हुए उनका अध्ययन किया जाय तो वे विश्व, समय-चक्र, विश्व इतिहास तथा स्व-अभिज्ञ मन (self-aware mind) या आत्मा सम्बन्धी ईश्वर-प्रदत्त ज्ञान का समर्थन करेंगे। चूंकि प्राकृतिक विज्ञान का लक्ष्य भौतिक क्षेत्र में तथा आध्यात्मिक ज्ञान का लक्ष्य आध्यात्मिक तथा सामाजिक-आध्यात्मिक क्षेत्र में सत्य को खोजना है और चूंकि पदार्थ तथा मन या शरीर तथा आत्मा एक-दूसरे पर अन्तःक्रिया करते हैं, अतः लेखक ने यह सोचा कि वैज्ञानिकों तथा अध्यात्मवादियों को मिल-जुलकर ऐसे विषयांगों पर चर्चा करनी चाहिए जो कि दोनों के लिये रुचिकर हो, ताकि 'स्व' (self), जगत् तथा विश्व-वृत्तान्तों का तथा लौकिक एवं पारलौकिक दोनों ही प्रकार के समग्र सत्य का एक सशक्त तथा संगत रीति से सुग्रथित, सम्बद्ध तथा स्पष्ट अवबोध प्राप्त हो सके ।

तथापि, लेखक को यह अनुभव हुआ कि उसने यह उपक्रम आरम्भ करने का कोई विशेष प्रशिक्षण प्राप्त नहीं किया है। किन्तु अन्य लोगों के साथ विचारों के आदान-प्रदान की उसकी इच्छा और 'स्व', त्रैलोक्य तथा विश्व-इतिहास के स्वरूप से सम्बन्धित उसके स्वयं के अवबोध ने उसे इस दिशा में कुछ करने के लिये प्रेरित किया। इसके अतिरिक्त, अनेक देशों में विभिन्न विद्या-शाखाओं में पारंगत विद्वानों के साथ लेखक ने जो चर्चायें कीं, उन चर्चाओं ने उनसे उसे यह जोखिम उठाने का कुछ आत्म-विश्वास प्राप्त हुआ चाहे जोखिम जितनी भी बड़ी हो, क्योंकि उसने सोचा कि इससे कम-से-कम उन कुछ अन्य व्यक्तियों को, जो कि अधिक ज्ञान-सम्पन्न हैं, भविष्य में ज्ञान के प्रसार के हित में कोई अधिक सफल उपक्रम करने की प्रेरणा मिलेगी। इसलिये, सेवा की अभिप्रेरणा से. अन्ततः लेखक ने अपनी योजना आरम्भ की। यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि लेखक विज्ञान के किसी भी क्षेत्र में पारंगतता का दावा नहीं करता। अधिक-से-अधिक वह यह दावा कर सकता है कि उसने ब्रह्माकुमारी संस्था में इस महान आन्दोलन के संस्थापक से कुछ वर्षों तक कुछ आध्यात्मिक प्रशिक्षण प्राप्त किया है तथा विज्ञान की कुछ शाखाओं का एक निष्पक्ष, 'प्रारम्भिक श्रेणी का' अध्ययनशील छात्र तो वह रहा है। इसलिये, वह विनम्रतापूर्वक यह निवेदन करता है कि इस पुस्तक को ज्ञान के मंथन का कार्य आरम्भ करने के एक छोटे-से प्रयास में वह अन्य लोगों को निमन्त्रित करता है।

इस पुस्तक की सामग्री, जिसे पाँच भागों में प्रकाशित करने की आयोजना थी, अनेक वर्षों की कालावधि में विभिन्न स्रोतों से संग्रहीत की गई। लेखक ने सैंकड़ों पुस्तकों से और पत्रिकाओं से सहायता ली है, किन्तु चूँकि, मूलतः, उसे यह कल्पना नहीं थी कि वह किसी दिन उस सामग्री को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करेगा, बल्कि वह स्वयं अपनी समझ को बढ़ाने और निखारने के लिये अध्ययन कर रहा था, इसलिये उसने कहीं-कहीं, उन लेखकों और उनकी रचनाओं के नाम नहीं लिखे, जिन्हें उसने पढ़ा था। इसके अतिरिक्त, उसने जो अन्य पुस्तकों या पत्रिकाओं से जब पंक्तियाँ या टिप्पणियाँ लीं, उनमें से कुछ पंक्तियाँ या टिप्पणियाँ स्त्रोत-पुस्तक के लेखक की पंक्तियों की शब्दशः प्रतिलिपि थीं, जबकि अन्य पंक्तियाँ, भाव या टिप्पणियाँ उसके अपने ही शब्दों में थीं। इतने समय के पश्चात् लेखक अपनी नोट-बुक या टिप्पणी-पुस्तक के कई खण्डों और अंशों के मामले में यह स्मरण नहीं रख पाया कि वे उसके अपने शब्दों में थे या स्त्रोत-पुस्तक के लेखक के शब्दों में और उस पुस्तक का लेखक कौन था और किस स्रोत-पुस्तक से वह अंश लिया गया था। इसलिये ऐसी सामग्री का उपयोग करते हुए लेखक को बहुत झिझक हो रही थी, क्योंकि उसे भय था कि यदि जानकारी के उन अंशों का उपयोग किया जायेगा तो पुस्तक में उन लेखकों तथा उनकी रचनाओं का उल्लेख नहीं होगा। तथापि, लेखक ने सोचा कि यह सामग्री मूल्यवान है तथा उस विद्या-शाखा से भली-भान्ति परिचित लोगों को कुछ तो ज्ञात भी हो ही चुकी है तथा वह पाठकों के लिये भी बहुत लाभप्रद होगी, उस ने इस एहसास की वजह से अपने संकोच पर विजय पाई। किन्तु वह पूर्ण निष्ठा से उन लेखकों से क्षमा-याचना करता है, जिनके प्रति वह आभारी है, किन्तु ऊपर-उल्लिखित परिस्थितियों में जिनके नामों का उल्लेख वह नहीं कर सका है।

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