अन्वयव्यतिरेक से रस एवं रस-सूत्र का पारस्परिक दिव्यादिव्य सम्बन्ध है। परमात्मस्वरूप रस काव्य की आत्मा है। इस रस का सर्वप्रथम प्राकट्य भगवत्स्वरूप में ही है। भगवती श्रुति ने 'रसो वै सः' कहकर ईश्वरानुरक्ति की परमरसरूपता का उद्घोष किया जिसमें परमानन्दता विराजित है। अल्पाक्षरता, असंदेहास्पदात्मकता, सारवत्व, विश्वतोमुखत्व, अस्तोभकत्व और अनवद्यत्व' ये सूत्रतत्त्व के आधायक अङ्ग है। अपने रस-सूत्र में आचार्य भरत ने विभावानुभावव्यभिचारिसंयोग से रसजाह्नवी के विविध आयामों का अथवा त्रिपथगत्व का प्रतिपादन किया है। सामान्य काव्यशास्त्रीय रस भी ब्रह्मास्वादसहोदर स्वीकृत हुआ है, जिसमें ब्रह्मास्वाद उपमान तथा रसास्वाद उपमेय है। इससे भी रसरूपता की दिव्यता ही दृष्टिगोचर होती है। आग्रह रस का प्राण है और दुराग्रह रस की मृत्यु। अतएव अनन्तानन्दसंवलित रस संख्याओं की परिधि से ऊपर की वस्तु है। जिन आठ रसों का नाट्यशास्त्र में महात्मा दुहिण ने वर्णन किया है, वे अलौकिक हैं। इसीलिए अलौकिकता को रसचमत्कृति अथवा रसास्वाद का महाप्राण कहा है। अतएव रस-तत्त्व; यथा शृङ्गार, शान्त, वीर, करुण आदि, सहृदय सामाजिकों के पूर्णाह्लाद का विषय बनता है। ठीक उसी प्रकार भगवद् विषयक इदानीन्तनी एवं प्राक्तनी वासना से सुवासित भक्तान्तःकरणों में भगवद्भक्तिरस भी आनन्दातिरेक को प्राप्त होता है। शृङ्गारादि रसों का रसास्वाद भी सभी को प्राप्त नहीं होता, जिनमें तत्तद्रस की वासना होती है उन्हीं में उन-उन रसों की अनुभूति होती है। इसी न्याय से भगवद्विषयक रति एवं तद्विषयक इदानीन्तनी एवं प्राक्तनी वासना से सुवासित भक्त-सामाजिकों को भगवद्भक्तिरस की भी प्राप्ति होती है। रस कोई भी हो उसकी अनुभूति से युक्त चमत्कृति में ही उसका साफल्य एवं चरमोत्कर्ष निहित रहता है। कतिपय आचार्य केवल शृङ्गार को' एवं अन्य कतिपय केवल करुण को ही मुख्य रस स्वीकार करते हैं। कतिपय आचार्य रसों की संख्या आठ, नौ या उससे भी अधिक स्वीकार करते हैं। एतदर्थ रसों की संख्या को परम्परा के नाम मात्र से, सीमित रखना ज्ञान की उत्कृष्टता का परिचायक नहीं है।
शङ्कराचार्य रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य, चैतन्यमहाप्रभु, रूपगोस्वामी, आचार्य मधुसूदनसरस्वती एवं धर्मसम्राट् स्वामी करपात्री जी महाराज उस परम्परा के परिपोषक हैं, जो भरत की ही रस-सूत्र प्रणाली में भगवद् भक्तिरस की परमरसता स्वीकार करते हैं। पण्डितराज जगन्नाथ यद्यपि परम्परावादी हैं, तथापि "भगवद्रूप आलम्बन वाला, रोमाञ्च, अनुपातादि के द्वारा अनुभावित, हर्ष आदि के द्वारा परिपोषित, भागवत पुराणादि के श्रवण के समय विभावादि के संयोग से भगवद् भक्तों के द्वारा अनुभूयमान भक्तिरस की रसवत्ता है।" यह वाक्य पण्डितराज जगन्नाथ की भगवद् भक्तिरसविषयक धारणा को स्पष्ट करता है। अतएव रस-तत्त्व को केवल लौकिक नायक-नायिकाओं मात्र तक सीमित रखना अनौचित्य विचार चर्चा का विषय है। रस-तत्त्व अनन्त है, अतएव प्राकृत, अप्राकृत (दिव्य) नायक-नायिका विषयक विविध रस, रस-सूत्र के ही विविध आयाम हैं। तथा "परमानन्द रस-स्वरूप भगवान् ही रस हैं। ऐसे रस की अनन्तता, अखण्डता एवं परमानन्दरसरूपता की परिचायिका आचार्य मधुसूदन सरस्वती की सरस्वती है। वह अपना जो भी भाव जिसको दिखलाना चाहता है, वह उसके उसी भाव को देखता है।' भाव रूप में अवस्थित होकर द्रष्टा उस भाव की रक्षा करता है, तथा उस भाव से गृहीत होकर उसी भाव को प्राप्त कर लेता है। माण्डूक्यकारिकाकार का यह वचन रस-तत्त्व की व्यापकता एवं अनन्तता का परिचायक है। इसीलिए जिसने अनन्तानन्दस्वरूप, मूलतः परमात्मस्वरूप, रस को जैसा देखा उसने रस को वैसा कह डाला।
डॉ० राजेन्द्र कुमार ने "रस-सूत्र की व्याख्याएँ" अपने इस ग्रन्थ में छह अध्यायों में रस-सूत्र के विविध आयामों का प्राञ्जल भाषा में विवेचन किया है।
आचार्य भरत से लेकर धर्मसम्राट् स्वामी श्री करपात्री जी महाराज तक की परम्परा को, यथासम्भव सफलतापूर्वक, विद्वान् लेखक ने अपने समस्त शैली के इस ग्रन्थ में हृदयाह्लादक शैली में वर्णित किया है। स्थालीपुलाक न्याय से ग्रन्थ का अवलोकन करने पर ग्रन्थकार के श्रम का परिचय प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ से काव्यशास्त्रियों को मनस्तोष प्राप्त हो तथा ग्रन्थकार भगवत्कृपया चिरकाल तक इस प्रकार के तथा इससे भी अधिक गम्भीर सफल प्रयासों को प्रकट करने में समर्थ हो, ऐसी भगवत्पादारविन्द में सप्रश्रय प्रार्थना है।
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