भगवान् महावीर की वाणी या जिनवाणी को द्वादशांगवाणी भी कहते हैं, क्योंकि भगवान् महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम गणधर ने उसे बारह अंगों में निवद्ध किया था। इन बारह अंगों में अन्तिम दृष्टिवाद नामक अंग सबसे विशाल था। उसके पाँच भेदों में से एक भेद पूर्व था और पूर्व के चीदह भेद थे। इन पूवों का महत्त्व विशेष था। आचार्य कुन्दकुन्द' ने अपने बोधपाहुड के अन्त में श्रुतकेवली भद्रबाहु का जयघोष करते हुए उन्हें बारह अंगों और चीदह पूर्वो का ज्ञाता कहा है। इसी तरह आचार्य यतिवृषभ' ने भी भगवान् महावीर के पश्चात् हुए पाँच श्रुतकेवलियों को 'चउदसपुथ्वी' और वारस अंगधर कहा है। इन दोनों आचार्यों के द्वारा बारह अंगघर के साथ चउदसपुव्वी का पृथक् उल्लेख बतलाता है कि द्वादशांगवाणी में पूवों का कितना महत्त्व था। जो पूर्वी का ज्ञाता होता था, वह ग्यारह अंगों का ज्ञाता होता ही था। सम्भवतया ग्यारह अंगों के पश्चात् ही पूचों का ज्ञान दिया जाता था।
'पड्खण्डागम' के वेदनाखण्ड के कृति अनुयोग द्वार के प्रारम्भ में सूत्रकार भूतवली ने 'णमो जिणाणं' आदि ४४ सूत्रों से मंगल किया है। उसमें एक सूत्र है- 'णमो दस पुव्वियाणं'। इस सूत्र की धवला टीका में लिखा है कि ग्यारह अंगों को पढ़कर पश्चात् दृष्टिवाद की पढ़ा जाता था। तथा चौदह पूर्वी का धारी उस भव में मिथ्यात्व और असंयम को प्राप्त नहीं होता। श्वेताम्बर परम्परा में भी यद्यपि स्त्री मुक्ति प्राप्त कर सकती है, किन्तु उसे दृष्टिवाद को पढ़ने का अधिकार नहीं है। अतः श्वेताम्बर परम्परा में भी दृष्टिवाद का विशेष महत्त्व रहा है। उसी के भेद पूर्व हैं।
आज जो 'पट्खण्डागम' और 'कसायपाहुड' नामक सिद्धान्त ग्रन्थ हैं जो अपनी धवला और जयधवला नामक टीका के नाम पर धवल और जयधवल नाम से ख्यात हैं, वे पूर्वी के ही अवशिष्ट अंश हैं। 'कसायपाहुड' के रचयिता गुणधर भट्टारक ज्ञानप्रवाद नामक पंचम पूर्व की दसवी वस्तु सम्बन्धी तीसरे कषायप्राभृत के । पारगामी थे। उन्होंने सोलह हजार पदप्रमाण 'पेज्जदोस पाहुड' को एक सी अस्सी गाथाओं में उपसंहत करके उसे कसायपाहुड नाम दिया। दूसरे आचार्य धरसेन 'महाकर्म प्रकृति प्राभृत' के ज्ञाता थे। उन्होंने भूतवली पुष्पदन्त को समस्त 'महाकमंप्रकृति प्राभृत' पढ़ाया और भूतवली पुष्पदन्त ने 'महाकर्मप्रकृति प्राभृत' का उपसंहार करके 'षट्खण्डागम' के सूत्रों की रचना की। वीरसेन स्वामी के अनुसार दूसरे अग्रायणी पूर्व के अन्तर्गत चौदह वस्तु अधिकारों में चयन लब्धि नामक पाँचवाँ वस्तु अधिकार है। उसमें बीस प्राभृत हैं। उनमें चतुर्थ प्राभृत कर्मप्रकृति है। उसके भी चीबीस अनुयोगद्वार हैं। उन्हीं से 'पट्खण्डागम' का उद्गम हुआ है। । इस तरह द्वादशांगवाणी में पूर्वी के कुछ अंश आज सिद्धान्त ग्रन्थों के रूप में उपलब्ध हैं और वे प्रायः जीव और कर्म के वर्णन से सम्बद्ध हैं।
जैन साहित्य में कर्मसिद्धान्त विषयक साहित्य का महत्व रहा है और उस महत्य का कारण है-जैन धर्म में कर्मसिद्धान्त का चलन होना। जैनधर्म आत्मा को अनादि अनिधन स्वतन्त्र द्रव्य स्वीकार करता है।
जैन दर्शन में केवल छह द्वव्य माने गये हैं जीव, पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और काल। किन्तु यह संसार केवल जीव और पुद्गल द्रव्यों के मेल का ही खेल है। शेष चार द्रव्य तो उसमें निमित्तमात्र हैं। ये छहों इज्य नित्य और अवस्थित हैं। न इनका कभी विनाश होता है और न ये कभी कमती-बढ़ती होते हैं। छह के छह ही सदा रहते हैं। उनमें से धर्म, अधर्म, आकाश एक-एक हैं। जीव अनन्त हैं और पुद्गल उनसे भी अनन्तगुणे हैं। पुद्गलद्रव्य में पृथिवी, जल, आग, वायु चारों तत्व गर्मित हैं। पुद्गलद्रव्य तेईस वर्गणाओं में विभाजित है। उनमें से पांच वर्गणाएँ ऐसी हैं जो जीव के द्वारा, आहारादि के रूप में ग्रहण की जाती हैं। उन्हीं से, उसका शरीर आदि बनता है। उन वर्गणाओं में एक फार्मण वर्गणा भी है जो समस्त लोक में व्याप्त है। जीव के कायिक, याचनिक और मानसिक परिस्पन्द का निमित्त पाकर यह कार्मणवर्गणा जीव के साथ सम्बद्ध हो जाती है और उसका विभाजन आठ कर्मों के रूप में होता है। इसी का नाम कर्मवन्धन है। जीव के क्रोध, मान, माया, लोभरूप कपाय भावों के अनुसार उन कर्मों में स्थिति और अनुभागबन्ध्र होता है। जैसी तीव्र या मन्द कषाय होती है, तदनुसार ही कर्मपुद्गलों में तीव्र या मन्द स्थितिबन्ध और अनुभागवबन्ध होता है। कर्म बंधने पर जितने समय तक आत्मा के साथ बद्ध रहते हैं, उसे स्थितिबन्ध कहते हैं, और कर्म में तीव्र या मन्द फल देने की शक्ति को अनुभागबन्ध कहते हैं। जीव के भावों का निमित्त पाकर कर्म स्वयं वैधता है और अपना फल स्वयं देता है।
इस तरह जीव और कर्मपुङ्गगलों के बन्धन का नाम संसार और उस बन्धन से छुटकारे का नाम मोक्ष हे जो जैनधर्म का अन्तिम सर्वोत्कृष्ट लक्ष्य है। इससे जैनधर्म में कर्मसिद्धान्त का महत्त्व अन्य दर्शनों से अधिक है। अन्य दर्शनों में तो केवल कर्म को संस्कार के रूप में माना गया है तथा उनका फलदाता ईश्वर को माना गया है। किन्तु जैनदर्शन में कर्मफलदाता ईश्वर नहीं है। जीव स्वयं ही कमों को बाँधता है, स्वयं कर्ष उसे अपना फल देते हैं और जीव अपने पुरुषार्थ से ही कर्मबन्धन से छूटता है। इसके लिए मुमुक्षु जीव को जहाँ अपना स्वरूप जानना आवश्यक है, यहाँ कर्मबन्धन से बचने के लिए कर्मसिद्धान्त की प्रक्रिया को भी जानना आवश्यक है। इसी से जैन सिद्धान्त में कर्मसिद्धान्त का महत्त्व अत्यधिक है; क्योंकि जीव के आरोहण और अवरोहण का उसके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। पूर्वबद्ध कर्म के उदय के अनुसार जीव के राग-द्वेषरूप भाव होते हैं और राग-द्वेषरूप भावों के अनुसार ही जीव नवीन कर्मबन्धन से वैधता है। यही संसार है। इसी से छुटकारा पाना है। सिद्धान्तग्रन्थ मुख्य रूप से इसी जीव और कर्मविषयक चर्चा से सम्बद्ध हैं।
षट्खण्डागम का महत्त्व
ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों में से 'कसायपाहुड' की अपेक्षा 'पड्ङ्खण्डागम' का प्रचलन विशेष रहा है। इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में षट्खण्डागम की रचना को प्रथम स्थान दिया है और उस पर रची गयी टीकाओं की एक लम्बी सूची दी है। अन्तिम टीकाकार वीरसेन स्वामी थे। उन्होंने भी प्रथम षट्खण्डागम पर ही धवला नामक टीका रची। पश्चात् कसायपाहुड पर जयधवला नामक टीका रची, जिसे वह अपूर्ण ही छोड़कर स्वर्गवासी हुए और उसे उनके शिष्य जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया।
धवला-जयधवला टीका रचे जाने के बाद भी पड्ङ्खण्डागम का ही प्रचलन विशेष रहा प्रतीत होता है। उसी के अध्ययन को लेकर सिंद्धान्तचक्रवर्ती नामक उपाधि प्रवर्तित हुई; क्योंकि जो भरतक्षेत्र के छह खण्डों को जीतता वा वह चक्रवर्ती कहा जाता था। षट्खण्डागम के भी छह खण्ड थे, अतः जो उनकी निर्विघ्न साधना करता था, वह सिद्धान्तचक्रवती कहाता था। गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उसके रचयिता नेमिचन्द्राचार्य ने एक गाथा' के द्वारा इस बात को स्पष्ट लिखा है कि जैसे चक्रवर्ती अपने चक्ररत्न के द्वारा भरत के छह खण्डों को बिना विप्न-बाधा के साधित करता है, उसी प्रकार मैंने अपने वुद्धिरुपी चक्र के द्वारा सिद्धान्त के उह खण्डों को साधा है।
पट्खण्डागम को लेकर सिद्धान्तचक्रवर्ती का विरुद कब, कैसे, किसने प्रचलित किया, यह ज्ञात नहीं होता। वीरसेन स्वामी और उनके गुरु एलाचार्य दोनों सिद्धान्त ग्रन्थों के ज्ञाता थे और वीरसेन स्वामी ने तो दोनों पर विशाल टीका ग्रन्य रचे थे। उनके समय तक इस उपाधि का कोई संकेत नहीं मिलता। उनकी धवला, जयधवला के रचे जाने के पश्चात् ही इस उपाधि की घचां मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन टीका ग्रन्थों के निर्माण के पश्चात् इनके पठन-पाठन की विशेष प्रवृत्ति हुई और तभी से सिद्धान्तचक्रवर्ती का विरुद प्रवर्तित हुआ। इस तरह उत्तरकाल में भी पट्खण्डागम का विशेष महत्त्व रहा है और पट्खण्डागम ने अपनी टीका धवला के कारण ही विश्रुति पायी है तथा दोनों ही सिद्धान्त ग्रन्थ अपने-अपने मूल नाम को छोड़कर धवल और जयधवल नाम से ही विश्रुत हुए। अपभ्रंश महापुराण के रचयिता पुष्पदन्त ने उनका उल्लेख इन्हीं नामों से किया है। यथा-'सिद्धंतु धवलु जयधवलु णामः। इन्हीं धवल-जयधवल सिद्धान्तों का अवगाहन करके आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गोम्मटसार नामक ग्रन्थ को निबद्ध किया था।
गोम्मटसार-नाम
गोम्मटसार-नाम का प्रथम पद 'गोम्मट' सुनने में कुछ विचित्र-सा लगता है। यह शब्द न तो संस्कृत भाषा के कोशों में मिलता है और न प्राकृत भाषा के। अतः यह शब्द विद्वानों के विवाद का विषय रहा है। इस गोम्मट नाम से ही श्रवणबेलगोला में गंगनरेश राममल्ल के प्रधानमन्त्री और सेनापति चामुण्डराव के द्वारा स्थापित बाहुबली की उत्तुंग मूर्ति भी विश्रुत है। उसे भी गोम्मटस्वामी या गोम्मटजिन कहते हैं। मूल रूप से ये दो ही वस्तु ऐसी हैं जो गोम्मट नाम से व्यवहत होती है। उसी मूर्ति के अनुकरण पर जो अन्य मूर्तियों कारकल और वेणूर में निर्मित हुई, वे भी गोम्मट के नाम से ही व्यवहत हुई।
इस गोम्मट नाम के सन्वन्ध में एक लेख श्री गोविन्द पै का "जैन सिद्धान्त भास्कर, आरा, जिल्द ४, पृ. १०२-६ में प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया था कि बाहुबली कामदेव होने के कारण मन्मथ कहे जाते थे, जिसका कनडी में गोम्मट एक तद्भव रूप है, जिसे मराठी से लिया गया है।
इसके बाद डॉ. ए. एन. उपाध्ये के भारतीय विद्या (जि. २, भाग १) में प्रकाशित अनुसन्धानपूर्ण लेख का हिन्दी अनुवाद अनेकान्त वर्ष ४ की किरण तीन और चार में प्रकाशित हुआ, जिसका शीर्षक हे गोम्मट। इसमें विद्वान् लेखक ने सभी मतों की समीक्षा करते हुए जो प्रमाण अपने मत के समर्थन में दिये; उनसे यह विवाद दूर हो गया और उसके पश्चात् किसी का भी कोई लेख इसके विरोध में हमारे देखने में नहीं आया। उस लेख का सारांश यहाँ दिया जाता है।
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