गोम्मटसारका प्रथम भाग जीवकाण्ड जीवसे सम्यद्ध है और उसका यह दूसरा भाग कर्मकाण्ड कर्मसे सम्बद्ध है। साधारण रूपमें जो कुछ किया जाता है उसे कर्म या क्रिया कहते हैं। जैसे खाना, पोना, चलना, बोलना, सोचना आदि । किन्तु यहाँ कर्म शब्दसे केवल किपारूप कर्म विवक्षित नहीं है। महापुराणमें कर्मकरी ब्रह्माके पर्याय शब्द इस प्रकार कहे है-
विषिः सष्ठा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम् ।
ईश्वरश्चेति पर्याया विशेयाः कर्मवेषसः ॥ ४१३७ ॥
अर्थात् विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म, ईश्वर ये कर्मरूपी ब्रह्माके वाचक शब्द है।
कर्मका आशय-
यहाँ कर्म शब्दसे इसी विधाताका ग्रहण अभीष्ट है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि जो जीवित हैं एक दिन के मरणको प्राप्त होते हैं और उनका स्थान नये प्राणो लेते हैं। जीवन और मरणकी यह प्रक्रिया अनादिसे चली आती है। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि संसारमें विषमताका साम्राज्य है- कोई बमोर है' कोई गरीब । आज जो अमीर है कल वह गरीब हो जाता है और गरीब अमीर बन जाता है। कोई सुन्दर है कोई कुरूप । कोई बलवान् है कोई कमजोर। कोई रोगी है कोई नीरोग। कोई बुद्धिमान् है कोई मूर्ख । यदि यह विषमता विभिन्न कुलोंके या देशोंके मनुष्योंमें हो पायी जाती तब भी एक बात थी। किन्तु एक कुलकी तो बात ही क्या, एक ही माताकी कोखसे जन्म लेनेवाली सन्तानोंमें भी यह पायी जाती है। एक भाई सुन्दर है तो दूसरा असुन्दर। एक भाई बुद्धिमान् है तो दूसरा मन्दबुद्धि। एक भाई शरीरसे स्वस्थ है तो दूसरा जन्मसे रोगो । जिन देशोंमें समाजवाद है वहाँ भी इस प्रकारको विषमता वर्तमान है। मनुष्योंकी तो बात क्या, पशु योनिमें भी यह विषमता देखी जाती है। एक वे कुत्ते हैं जो पेट भरनेके लिए मारे-मारे फिरते हैं, जिन्हें खाज और घाव हो रहे हैं। दूसरे के कुत्ते हैं जो पेट-भर दूष-रोटी खाते हैं और मोटरोंमें घूमते हैं। इसका क्या कारण है। इसपर विचारके फलस्वरूप ही दर्शनोंमें आत्मवाद, परलोकवाद और कर्मवादके सिद्धान्त अवतरित हुए है। इस कर्मवाद के सिद्धान्त को आत्मवादी जैन सांख्ययोग, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि दर्शन तो मानते हो है अनात्मवादी बौद्धदर्शन भी मानता है। इसके लिए राजा मिलिन्द और स्यविर नागसेनका निम्न संवाद द्रष्टव्य है-
राजा बोला- भन्ते ! क्या कारण है कि सभी आदमी एक ही तरहके नहीं होते? कोई कम आयु बाले, कोई दीर्घ आयुवाले, कोई बहुत रोगी, कोई नोरोग, कोई भद्दे, कोई सुन्दर, कोई प्रभावहीन, कोई बड़े प्रभाववाले, कोई गरीब, कोई धनी, कोई नीच कुलवाले, कोई ऊँचे कुलवाले, कोई बेवकूफ, कोई होशियार बयों होते है ?
स्यविर बोले- महाराज । बक्या कारण है कि सभी वनस्पतियाँ एक जैसी नहीं होती? कोई सट्टी, कोई नमकीन, कोई तीती, कोई कड़वी, कोई कसैली और कोई मीठी होती है ?
भग्ते । मैं समझता हूँ कि बीजोंके भिन्न-भिन्न होनेसे ही बनस्पतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती है।
महाराज । इसी तरह सभी मनुष्यों के अपने-अपने कर्मभिन्न-भिन्न होने में सभी एक तरहके नहीं है। कोई कम आयुवा कोई दीवाने होते हैं।
भगवान् (बुद्ध) ने भी कहा है है मानव। सभी जीव अपने कर्मों ही फलका भोग करते है। सभी जीव कर्मोंके बाप मालिक है। अपने कमों के अनुसार ही नाना मोनियोंमें उत्पन्न होते है। अपना कर्म हो अपना बन्धु है, अपना कर्म ही अपना आश्रय है, कर्म ही से ऊंचे और नीचे होते हैं।
- मिलिन्द प्रश्न, पू. ८०-८१ ।
इसी तरह ईश्वरवादी भी मानते हैं।
न्यायमंजरीकार (५.४२) ने कहा है- "संसारमें कोई सुखी है, कोई दुःखी है, किसीको खेती आदि करने पर विशेष लाभ होता है, किसीको उलटी हानि होती है। किसी को अचानक सः।त्ति मिल जाती है, किसीपर बैठे-बैठ। ये बिजली गिर जाती है। ये सब बातें किसी दृष्ट कारणको बजहते नहीं होती, अतः इनका कोई अदृष्ट कारण मानना चाहिए।"
अन्य दर्शनों में कर्मका स्वरूप- उक्त कर्मसिद्धान्त के विषय में ऐकमत्य होते हुए भी कर्मके स्वरूप और उसके फलदानके सम्बन्ध में मतभेद है-परलोकवादी सभी दार्शनिकोंका मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कार्य कर्तावर अपना संस्कार छोड़ जाता है। उस संस्कारको नेयोविक और वैदोषिक धर्म या अधर्म के नामसे कहते हैं। योगें उसे कर्माशय कहते हैं और बौद्ध उसे अनुशय आदि कहते हैं।
बौद्धयन्य मिलिन्द प्रश्न (पू. ३९) में लिखा है-
"(मरने के बाद) कौन जन्म ग्रहण करता है और कौन नहीं ?
जिनमें फ्लेश (वित्तका मैल) लगा है वे जन्म ग्रहण करते हैं। और जो क्लेशसे रहित हो गये है
वे जन्म ग्रहण नहीं करते ।
भन्ते ! आप जन्मग्रहण करेंगे या नहीं ?
"महाराज ! यदि संसार की ओर आसक्ति लगी रहेगी तो जन्मग्रहण करूंगा। और यदि आसक्ति छूट जायेगी तो नहीं करूंगा ।"
योगदर्शन में कहा है-पाँच प्रकारको वृत्तियाँ होती है जो क्लिष्ट भी होती है और बक्लिष्ट भी होती है। जिन वृत्तियोंका कारण क्लेश होता है और जो कर्माशवके संचयके लिए आधारभूत होती है उन्हें क्लिष्ट कहते हैं। अर्थात् ज्ञाता अर्थको जानकर उससे राग या द्वेष करता है और ऐसा करनेसे कर्माशयका संचय होता है। इस प्रकार धर्म-अधर्मको उत्पन्न करनेवालो वृत्तियाँ क्लिष्ट होती है। क्लिष्ट जातीय अथवा अक्लिष्ट जातीय संस्कार वृत्तियोंसे होते हैं और वृत्तियाँ संस्कारसे होती है। इस प्रकार वृत्ति और संस्कारका चक्र सर्वदा चलता रहता है। १-५ व्यास भाब्य ।
सांख्यकारिका (६७) में कहा है-
'धर्म-अधर्मको संस्कार कहते हैं। उसी के निमित्तसे शरीर बनता है। सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होने पर धर्मादि पुनर्जन्म करनेमें समर्थ नहीं रहते। फिर भी संस्कारवश पुरुष ठहरा रहता है। जैसे कुलालके दण्ड का सम्बन्ध दूर हो जाने पर भी संस्कारवश चाक घूमता है।'
प्रशस्तपाद भाष्य (पृ. २८०-२८१) में कहा है-
'राग और द्वेषसे युक्त अज्ञानी जीव कुछ अधर्म सहित किन्तु प्रकृष्ट धर्ममूलक कामोंके करनेसे ब्रह्मलोक, इन्द्रलोक, प्रजापति लोक, पितृलोक और मनुष्यलोकमें अपने आशयके अनुरूप इष्टशरीर, इन्द्रिय विषय और दुःखादिको प्राप्त करता है। तथा कुछ धर्मसहित किन्तु प्रकृष्ट अधर्ममूलक कामोंके करनेसे प्रेतयोनि, तिर्यग्योनि वगैरह स्थानोंमें अनिष्ट शरीर, इन्द्रियविषय और दुःखादिको प्राप्त करता है। इस प्रकार अधर्मसहित प्रवृत्तिमूलक चर्मसे देव, मनुष्य, तियंच और नरकोंमें (जन्म लेकर) पुनः पुनः संसारबन्ध करता है ।।'
न्यायमंजरीकारने भी उक्त मतको ही व्यक्त करते हुए कहा है- 'देव, मनुष्य और तिर्यग्योनिमे जो शरीरको उत्पत्ति देखो जाती है, प्रत्येक वस्तुको जाननेके लिए जो ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, बौर आत्माका मनके साथ जो सम्बन्ध होता है वह सब प्रवृत्तिका ही परिणाम है। सभी प्रवृत्तियाँ क्रियारूप होनेसे यद्यवि क्षणिक है किन्तु उनसे होनेवाला आत्मसंस्कार, जिसे धर्म या अधर्म कहा जाता है, कर्म-फलभोग पर्यन्त स्थिर रहता है।'
इस प्रकार विभिन्न दार्शनिकों के उक्त मन्तब्योंसे यह स्वष्ट है कि कर्म नाम क्रिया या प्रवृत्तिका है। यद्यपि वह क्षणिक है किन्तु उसका संस्कार फलकाल तक स्थायी रहता है। संस्कारसे प्रवृत्ति और प्रवृत्तिसे संस्कारको परम्परा अनादि है। इसीका नाम संस्कार है। किन्तु जैनदर्शनमें कर्ममात्र संस्काररूप नहीं है। उसका स्वरूप आगे कहते हैं-
जेनदर्शनमें कर्मका स्वरूप- जैन दर्शनमें कर्मके दो प्रकार कहे है एक द्रव्यकर्म और दूसरा भावकर्म। यद्यपि अन्य दर्शनोंमें भी इस प्रकारका विभाग पाया जाता है और भावकर्मको तुलना अन्य दर्शनोंके संस्कारके साथ तथा द्रव्यकर्मको तुलना योगदर्शनको वृत्ति और न्यायदर्शनको प्रवृत्तिके साथ की जा सकती है तथापि दोनोंमें मौलिक अन्तर है, जैन दर्शनमें कर्म केवल एक संस्कार मात्र ही नहीं है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी, द्वेषी जीवकी क्रियाका निमित्त पाकर उसकी ओर आकृष्ट होता है और दूध-पानीको तरह उसके साथ पुल-मिल जाता है। यह पदार्थ है तो भौतिक किन्तु उसका कर्मनाम इसलिए रूढ़ हो गया; क्योंकि वह जीवके कर्म अर्थात् मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाके शाथ आकृष्ट होकर जीवके साथ बंध जाता है।
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