प्रस्तावना
किसी बड़े होटल में ठहरकर मैं ऐसा अनुभव करता है, मानो किसी चिड़ियाघर या अजायबघर में पहुँच गया हूँ। कितने विभिन्न प्रकार के नर-नारी वहाँ देखने को मिलते हैं। बड़े-बड़े राजा और नवाब, पूंजी-पति और व्यापारी, शक्ति के मद में मस्त सरकारी अफसर, मानव-समाज के कल्याण में रत राजनीतिक नेता, और अपने पति के पद, धन तथा प्रतिष्ठा के कारण गर्वोन्मत्त नारियाँ- इन सबको अत्यन्त समीप से देखने का अवसर बड़े होटल में ठहरकर प्राप्त होता है। और यदि आप इन्सानों के इस चिड़ियाघर के मालिक या संचालक हों, तब तो कहना ही क्या ? श्राप अपने मेहमानों के घनिष्ठ सम्पर्क में तो आते ही हैं, साथ ही आपको कितने ही सरकारी अफसरों और कारोबारी लोगों से मिलने का भी अवसर प्राप्त होता है। यदि आपकी आँखें खुली हुई हों, ये दो चर्म-चक्षु नहीं अपितु ज्ञान-नेत्र तो आप वर्तमान समाज को ध्यान से देखने और उस पर विचार करने का जो सुवर्णीय अवसर होटल में प्राप्त करते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस पुस्तिका में मैंने एक ऐसे होटल मालिक की आत्मकथा लिखी है, जो अपने मेहमानों और होटल के साथ सम्बन्ध रखनेवाले अन्य व्यक्तियों की गतिविधि को ध्यानपूर्वक देखता है, उनके मनोभावों का अनुशीलन करता है, और उनका चरित्र-चित्रण करने की क्षमता रखता है। इस पुस्तक द्वारा हमारे वर्तमान समाज की अनेक समस्याएँ पाठकों के सम्मुख उपस्थित होंगी, और उनके सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विचार पाठकों के मन में उद्बुद्ध होंगे। यही इसे लिखने का प्रयोजन है। अनेक पाठकों के मन में यह जिज्ञासा होगी, कि क्या यह ग्रात्मकथा यथार्थ व तथ्य पर ग्राश्रित है। इसका उत्तर मैं क्या दूँ? मैं उन लोगों में से नहीं हैं, जो अभाव से भाव की, असत् से सत् की या शून्य से विश्व की उत्पत्ति में विश्वास रखते हैं, या उसकी उत्पत्ति की सामर्थ्य रखते हैं। इस कथानक की उत्पत्ति भी शून्य से नहीं हुई है। साहित्यकार वास्तविक जीबन में जो कुछ देखता है, जिन लोगों के सम्पर्क में आता है, उन्हीं से अपने पात्रों का सूजन करता है। पर वह अपने पात्रों का चरित्र-चित्रण करते हुए बहुधा अपने अनुभवों का सम्मिश्रण कर देता है, और इस प्रकार इस ढंग के पात्रों का सूजन हो जाता है, जिनकी वस्तुतः कहीं सत्ता नहीं होती। मेरे इस कथानक के सम्बन्ध में भी यही बात सत्य है। मैं यहाँ यह स्पष्ट रूप से लिख देना चाहता हूँ कि इस कथानक के सब पात्र कल्पित हैं। किसी जीवित अथवा दिवंगत व्यक्ति से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। न रामनगर नाम का कोई शहर ही हिमालय की पर्वत-श्रृंखला में कहीं है, और न 'होटल मॉडर्न' नाम का कोई होटल ही किसी प्रसिद्ध पार्वत्य नगर में है। कितने ही गोयल, त्यागी और तिवारी आज-कल राजनीतिक नेता हैं; कितने ही वर्मा और सक्सेना उच्च सरकारी पदाधिकारी हैं। इन विभिन्न प्रकार के लोगों का चरित्र-चित्रण करते हुए मैं नये नामों का आविष्कार कहाँ से करता ? मैंने वही नाम प्रयुक्त किये हैं, जो प्रचलित हैं। पाठकों से प्रार्थना है, कि वे यह ढूँढ़ने का प्रयत्न न करें कि इस पुस्तक में आए हुए विविध नाम किन व्यक्तियों के प्रति संकेत करते हैं, क्योंकि ये सब नाम कल्पित हैं। इनसे व्यक्ति-सामान्य का बोध होता है, व्यक्ति-विशेष का नहीं। इस प्रसंग में मैं यह भी लिख देना चाहता हूँ, कि यह कथानक सन् १६४८ की स्थिति को दृष्टि में रखकर लिखा गया है। उस समय भारत को स्वतन्त्र हुए अधिक समय नहीं हुआ था। अतः सरकारी कर्मचारियों व देश के धनी-मानी लोगों की मनोवृत्ति में अधिक परिवर्तन नहीं आया था। अब स्थिति बदल रही है, और इस परिवर्तन को मैं भी अनुभव करता हूँ। अतः सम्भव है, कि अनेक पाठक इस कथानक में वर्णित कतिपय घटनाओं व चरित्र-चित्रण को सामयिक न समझें। पर उन्हें यह न भूलना चाहिए, कि यह कथानक सन् १६४८ से सम्बन्ध रखता है, जबकि ब्रिटिश लोगों को भारत से विदा हुए एक साल भी नहीं हुआ था। एक बात और लिख दूँ। सन् १६४८ में वस्तुओं की कीमतें आज की तुलना में बहुत कम थीं। तब रुपये का मूल्य अधिक था। बाजार में एक आने में चाय का प्याला मिल जाता था, और बड़े होटलों व रेस्तराम्रों में भी एक प्याले चाय की कीमत छः या आठ ग्राना हुआा करती थी। होटलों के रेट भी तब बहुत कम थे। अंग्रेजी ढंग के अच्छे बड़े होटलों में भोजन के साब सिंगल कमरा १२ या १४ रुपये दैनिक पर मिल जाया करता था । इस उपन्यास में होटल मॉडर्न के जो रेट दिये गये हैं, वे सन् १६४८ के हैं। रामनगर में आज भी होटल मॉडर्न विद्यमान है। अब वहाँ भोजन के बिना कमरे का रेट २५० रुपये प्रतिदिन है। चाय का प्याला ३ रुपये में मिलता है, और लञ्च व डिनर २५ से ४० रुपये तक में। इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक यह न ख्याल करें कि होटल मॉडर्न कोई घटिया होटल था, क्योंकि वहाँ भोजन के साथ कमरे का रेट १२ रुपये दैनिक था, और सिगल चाय छः आने में प्राप्त की जा सकती थी। सन् १६४८ में बड़े व बड़िया होटलों के यही रेट थे। उस समय का एक रुपया सन् १६८६ के तीस रुपयों के बराबर था। पाठक इस तथ्य को अवश्य ध्यान में रखें। इतिहास और राजनीतिशास्त्र पर मैं वहुत-सी पुस्तकें लिख चुका हूँ। हिन्दी संसार मुझे इतिहासकार के रूप में ही जानता है। कथानक या उपन्यास लिखने का 'होटल मॉडर्न' मेरा पहला प्रयास था। बाद में मैंने अन्य भी अनेक उपन्यास लिखे । 'आचार्य चाणक्य' और 'सेनानी पुष्यमित्र' (पतन और उत्थान) को ऐतिहासिक उपन्यासों में प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त हुआ, और मुझे उपन्यासलेखक के रूप में भी जाना जाने लगा। 'कम्पनी का मैनेजिंग डाइरेक्टर' और 'अन्तर्दाह' नाम के दो अन्य उपन्यास भी मैंने लिखे। मुझे आशा है, कि इतिहास और राजनीतिशास्त्र-विषयक मेरे ग्रन्थों के समान मेरे उपन्यासों का भी हिन्दी संसार में समुचित ग्रादर होगा और पाठक उन्हें रुचिपूर्वक पढ़ेंगे। 'होटल मॉडर्न' का यह दूसरा संस्करण है। कागज और छपाई आदि की कीमतों में असाधारण वृद्धि हो जाने के कारण इसका कलेवर आधे के लगभग कर दिया गया है, जिससे अनेक रोचक प्रसंग काट देने के लिए हमें विवश होना पड़ा है। आशा है, इस विवशता के लिए पाठक हमें क्षमा करेंगे।
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