महाराज मनु ने पृथ्वी पर भारतवर्ष के प्रादुर्भाव व इसकी संतति का उद्देश्य निरूपित करते हुए लिखा है- एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मना/स्वं स्वं चरितं शिक्षेरन् पृथिव्याः सर्वमानवाः। यानी इस देश का जन्म इसलिए हुआ है ताकि यहाँ के निवासी अपने-अपने जीवन के आचरण से पृथ्वी पर रहनेवाले समस्त मानवों को मनुष्यता की शिक्षा दे सकें। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी कार्यपद्धति से इस भाव को जीनेवाले अनेकशः व्यक्तियों का निर्माण किया है, जिन्होंने अपने सब प्रकार से सुयोग्य व क्षमतावान जीवन को राष्ट्र व समाज के सर्वतोमुखी उन्नयन के लिए पूर्णरूपेण समर्पित करने का आदर्श प्रस्तुत किया। संघ के पाँचवें सरसंचालक पूज्य कुप.सी. सुदर्शन इस देदीप्यमान मणिमाला में जड़े एक जगमगाते रत्न थे, जिनके जीवनादर्श ने असंख्य कार्यकर्ताओं को गढ़ा। आज तो इंजीनियर बनना आम हो गया है, लेकिन जिस दौर में इंजीनियर बनना नौजवानों के लिए एक दुर्लभ स्वप्न जैसा था, तब दूरसंचार अभियांत्रिकी में स्नातक होना बड़ी बात थी। पूज्य सुदर्शनजी ने इस उच्च शिक्षा को प्राप्त करने के बाद दिल्ली में एक आकर्षक सरकारी नौकरी के प्रस्ताव को भी त्यागकर अपनी युवावस्था में देशसेवा का आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने मशीनी कल-पुर्जों को दुरुस्त करने की बजाय राष्ट्र का मन और समाज का तंत्र सँवारने की राह चुनी। इसके लिए उन्होंने अपनी युवा आकांक्षाएँ मातृभूमि की वेदी पर सहर्ष भेंट चढ़ा दीं। इस तरह 'स्वं स्वं चरितं शिक्षेरन्' के उच्च आदर्श को अंतिम श्वास तक जीनेवाले वे विरल व्यक्ति थे।
पूज्य सुदर्शनजी का ऋषि तुल्य जीवन भौगोलिक व मत-पंथ की सीमाएँ लाँधकर लक्षावधि अंतःकरणों में एक प्रेरणापुंज के रूप में बसा है। हमारे ऋषियों ने कहा, 'यानि अस्माकं सुचरितानि तानि त्वया सेवितम्' कि उनके जीवन के जो आदर्श हैं, सुचरितरूप श्रेष्ठ जीवन मूल्य जिन्हें उन्होंने जिया, वह सद्मार्ग जिस पर चलकर उन्होंने मानवता के उच्च मानदंड स्थापित किए, उन्हें उनकी आनेवाली संतति यानी हम अपने जीवन के आचरण में ढालें, ताकि हम उन सद्गुण-सदाचार से युक्त उदात्त जीवन-मूल्यों और संस्कारों से युक्त जीवन जी सकें। पूज्य सुदर्शनजी के ऐसे तपोनिष्ठ व संकल्पवान राष्ट्रसेवी जीवन का सान्निध्य जिन असंख्य लोगों को मिला, वे स्मृतियाँ उनके हृदय को सुवासित किए हुए हैं। एक बालक से लेकर स्वयंसेवक बनने, कार्यकर्ता के रूप में ढलकर प्रचारक जीवन का असिधारा व्रत स्वीकारने और विभिन्न दायित्वों का निर्वहन करते हुए पूज्य सरसंघचालक के रूप में प्रतिष्ठित होने की उनकी यात्रा बड़ी प्रेरणास्पद है। बालपन से ही उनके जीवन में वह स्फुरण अनुभव किया गया, जिसे जानकर कहा जा सकता है-होनहार बिरवान के होत चीकने पात। स्वयंसेवक के रूप में उनके बाल व किशोर जीवन की कई घटनाएँ ऐसी ही अनुभूति कराती हैं।
यशस्विता व कर्मशीलता के शिखर पर पहुँचकर भी उनकी विनम्रता व सहजता विरल थी। भोपाल में प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय सम्मेलन के तीनों दिन वे उपस्थित रहे और सत्रों के बीच खाली समय में मुख्य सभागार के बाहर कुरसी डालकर बैठ जाते थे। सामने एक छोटी-सी मेज पर गोमूत्र से चालित बैटरी व उससे जलता बल्व बड़े मनोयोग से सबको दिखा रहे थे और उसकी पूरी तकनीक सबको समझा रहे थे कि ऊर्जा उत्पादन में भी गोमूत्र का कैसा आश्चर्यजनक उपयोग है। इसे बढ़ावा मिलना चाहिए। गो-संरक्षण का यह एक और सूत्र वे बड़ी ललक और सहजता के साथ सबको हृदयंगम कराने के लिए प्रयत्नशील थे। पूज्य सरसंघचालक जैसे गुरुतर दायित्व पर वर्षों विराजमान रहे व्यक्ति की ऐसी निरहंकारता दुर्लभ ही कही जाएगी। भाषा की शुद्धता के प्रति उनका आग्रह इतना था कि छोटे-छोटे शब्दों तक पर उनकी नजर रहती थी। मेरे 'पाञ्चजन्य' का संपादक रहते समय भ्रष्टाचार के विरुद्ध अण्णा आंदोलन चरम पर था। पाञ्चजन्य में हम उसकी रपट प्रकाशित कर रहे थे। अचानक भोपाल से उनके सहायक श्री अनुपमजी का फोन आया कि पूज्य सुदर्शनजी बात करेंगे। मैं आश्चर्यचकित रह गया, जब पूज्य सुदर्शनजी ने कहा कि अपनी रपटों में तुम लोग अण्णा हजारेजी का नाम गलत छाप रहे हो। मैंने कहा कि भाईसाहब, जैसा सब जगह छप रहा है, हम भी वैसा ही छाप रहे हैं। उन्होंने कहा, नहीं! वह गलत है- अन्ना नहीं अण्णा है उनका सही नाम, इसी को छापो। मैंने कहा ठीक है।
इस तरह स्वयंसेवकों का कैसा त्रुटिहीन जीवन होना चाहिए, कैसे मानसिक, बौद्धिक और शारीरिक दृष्टि से उनका व्यक्तित्व पूर्णता की ओर अग्रसर होना चाहिए, वे ऐसी अनेक छोटी-छोटी बातों के माध्यम से समझाते रहते थे। प्रार्थना का उच्चारण, लय ठीक है कि नहीं, संघ स्थान पर शारीरिक करते समय क्रियाएँ शुद्ध हों, ये सब भी उनकी निगाह में रहता था। वे बराबर उसे ठीक कराते थे जब तक कि संतुष्ट न हो जाएँ। ऐसे 'परफेक्शनिस्ट' के रूप में वे याद आते हैं। सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक परिवेश से जुड़ा शायद ही कोई विषय हो, जिसे वे विस्तृत जानकारी व प्रेरक रूप में कार्यकर्ताओं के समक्ष प्रस्तुत न करते रहे हों। अप्रतिम ज्ञानवान तो वे थे ही, पर इससे बड़ी विशेषता उनकी थी विद्यावान होना। हनुमान चालीसा में हनुमानजी के लिए उल्लेख है 'विद्यावान गुणी अति चातुर।' ज्ञान तो बहुतों को बहुत कुछ होता है, परंतु वह सद्गुण-सदाचार से युक्त हो, उसका समाज जीवन को गुण संपन्न बनाकर परिपुष्ट करने व राष्ट्रीय हितों और मानवता के पोषण के लिए उपयोग हो, तभी वह जीवन के उन्नयन की विद्या बनता है। अन्यथा ज्ञान का दुर्लक्ष्य होने पर वह अविद्या बन जाता है।
कार्यकर्ताओं का सम्यक् विकास व उनका संघकार्य के लिए उपयोग हो, इसका वे बहुत बारीकी से ध्यान रखते थे। एक कार्यकर्ता को निर्माण करने में वर्षों लगते हैं।
वह सुयोग्य व गुणसंपन्न होकर किसी कारण से छिटक जाए तो वह प्रयत्नपूर्वक उसे उसके अनुरूप कार्य से जोड़कर संगठन के विभिन्न अंग-उपांगों को भी दृढ़ करने का अत्यधिक ध्यान रखते थे। इस कारण असंख्य कार्यकर्ताओं को लगता था कि पूज्य सुदर्शनजी व्यक्तिशः उसके प्रति सबसे ज्यादा आत्मीयता रखते हैं। उनकी इस व्यापक आत्मीय परिधि में संघ और हिंदू समाज के बाहर के भी अनेक बंधु समाए थे, जिनके लिए वह परिवार के सदस्य से भी ज्यादा अपनत्व में पगे थे। 'शुद्ध सात्त्विक प्रेम अपने कार्य का आधार है' यह संघ गीत उनके जीवन-व्यवहार में समाया था। कितने ही परिवारों की चिंताएँ मानो उनकी अपनी होती थीं, उनका समाधान सुझाने और सब ठीक हुआ कि नहीं, यह जानने का ध्यान भी उनको सदा रहता था। आश्चर्य होता था कि वे अहर्निश प्रवास व निरंतर कार्य-व्यस्तता के बावजूद कैसे देश भर के असंख्य लोगों के साथ इतना व्यक्तिशः जुड़ाव रख पाते हैं। शायद यह उनकी साधक-वृत्ति का ही विस्तार था, संघ की परिवारमूलक विचार-साधना के वे एक सशक्त घटक थे।
देश व समाज के लिए चिंता का विषय बननेवाले हर मुद्दे पर उनकी गहरी नजर रहती थी। उसके समाधान के प्रति लोक जागरण के लिए भी वे निरंतर प्रयत्नशील रहते थे। असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों की किसी को कल्पना भी नहीं थी, तब उन्होंने उसे न केवल भाँपा, बल्कि राष्ट्र के लिए उस गंभीर संकट का गहन अध्ययन कर देश के सामने रखा। इसी तरह पर्यावरण, भारतीय विज्ञान, लोक जीवन, संस्कृति, भारत की सुरक्षा व सामाजिक शांति-सौहार्द पर गहराता संकट जैसे हर विषय पर उनका गहन चिंतन सामने आता रहा। अन्य मत-पंथों विशेषकर मुसलिम व ईसाई पंथों के धर्मगुरुओं व प्रमुखों के साथ सद्भावपूर्ण संवाद की प्रक्रिया उन्होंने शुरू की।
Hindu (हिंदू धर्म) (13447)
Tantra (तन्त्र) (1004)
Vedas (वेद) (715)
Ayurveda (आयुर्वेद) (2074)
Chaukhamba | चौखंबा (3189)
Jyotish (ज्योतिष) (1544)
Yoga (योग) (1154)
Ramayana (रामायण) (1336)
Gita Press (गीता प्रेस) (726)
Sahitya (साहित्य) (24553)
History (इतिहास) (8927)
Philosophy (दर्शन) (3592)
Santvani (सन्त वाणी) (2621)
Vedanta (वेदांत) (117)
Send as free online greeting card
Email a Friend
Manage Wishlist