अपने इंटरव्यू में महान फिल्मकार श्याम बेनेगल कहते हैं कि समाज बदलने के बाद फिल्म अच्छी होगी, ये बात ग़लत है, समाज जैसा है, फिल्म भी वैसी होगी, ये बहाना है। ऐसा कहते हुए वे संकेत देते हैं कि सिनेमा का मकसद सिर्फ जनता का मनोरंजन करना ही नहीं, बल्कि समाज को शिक्षित और संस्कारित करना भी है। उनकी इस बात में फिल्मकारों की समाज के प्रति प्रतिबद्धता और दायित्वबोध की झलक भी मिलती है। अच्छा सिनेमा ही बेहतर समाज की भावभूमि तैयार कर सकता है, जिसकी आज देश-समाज को सख्त जरूरत है। तब सवाल उठता है कि क्या आज का सिनेमा कोई सामाजिक जिम्मेदारी महसूस करते हुए अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम होने की भूमिका निभा रहा है?
इस पुस्तक में दीप भट्ट ने हिन्दी सिनेमा के दिग्गज फिल्मकारों, अभिनेताओं से लेकर, नामचीन अभिनेत्रियों के साथ ही समानांतर सिनेमा के शीर्ष कलाकारों के साक्षात्कारों में सिनेमा और समाज के अनेक पहलुओं को उठाया है। सवाल जिस जिज्ञासा और उत्कंठा से पूछे गए हैं, उन्हें जवाब भी उसी भाव में मिले हैं, जिसके चलते संग्रह में साक्षात्कारों के बहाने कुछ ठोस सवाल आए हैं, बहसें आई हैं और कुछ अनछुए पहलू भी। लेखक की बेबाक और उत्तेजक बातचीत शैली के बहाने सिनेमा का जीवन-दर्शन सिनेमा की रील की तरह पाठकों के सामने खुलता चला जाता है। यह संग्रह सिनेमा पर एक जरूरी संवाद और दस्तावेज की शक्ल में आकार लेता नजर आता है। इसकी तासीर ने संग्रह को पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी बना दिया है।
दीप भट्ट
जन्म (30-6-1962) : उत्तराखंड के हल्द्वानी महानगर में।
व्यवसाय : दैनिक हिन्दुस्तान से सीनियर सब एडिटर (सेवानिवृत्त) ।
कादम्बिनी, दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक अमर उजाला, दिनमान, समकालीन तीसरी दुनिया में निरंतर फिल्मों पर समीक्षा-लेखन, फिल्मकारों और कलाकारों के साक्षात्कार प्रकाशित । लंबे समय तक जनता के बीच सोशल एक्टिविस्ट के रूप में कार्य।
पूर्व प्रकाशित रचना : हिन्दी सिनेमा के शिखर।
हमारे समाज में सिनेमा ने जनमानस को विविध रूपों में स्पर्श किया है। तब मनोरंजन के इतने व्यापक साधन मौजूद न थे, जिसके चलते लंबे समय तक समाज में सिनेमा की अनिवार्य उपस्थिति महसूस की जाती रही। सिनेमा का जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोलता था और फिल्मी सितारों का नाम दर्शकों की जुबान पर चढ़ा रहता था।
दरअसल, सिनेमा एक ऐसी विधा है जिसमें समय को लांघने की अद्भुत शक्ति होती है। इसमें बदलाव को क्षैतिज से ऊर्ध्वाकार करने की ताकत है। तब के सिनेकारों ने समाज के विविध चेहरों को उकेरा, अच्छे-बुरे सभी। इस लोकधर्मी सिनेमा में दर्शकों ने रजतपट पर स्वयं का जीवन देखा, खुद की दुश्वारियां देखीं, स्वयं की छवियां देखीं। उन पर सिनेमा का पुरजोर असर पड़ा। अपनी कहानी होने के चलते उन्होंने उससे सीधे कनेक्ट किया, रिश्ता बनाया, सराहा।
हिंदी सिनेमा की लंबी विकास यात्रा में विविध किस्म के प्रयोग हुए। एक ओर प्रतिबद्ध सिनेकारों ने विभिन्न विचारधाराओं को सेल्यूलाइड पर दर्शाया, विविध मूल्यों को रेखांकित किया।
सोचने की बात है कि कुदरत कैसे न्याय करती है, जब सिनेमा तकनीकी तौर पर पिछड़ा था तो चार्ली चैपलिन जैसे कालजयी फिल्मकार हुए, तब भी सिनेमा समाज में बदलाव का सबसे बड़ा हथियार बना रहा। अपने यहां सिनेमाई शुरुआत में कल्चरल कन्फ्रेंटेशन बनी रही। बाँबे टाकीज वाले हिमांशु राय के जर्मनी से लौटने के बाद पश्चिम से सांस्कृतिक विरोधाभास वाली फिल्मों का दौर शुरू हुआ। इप्टा ने अपना काम किया।
बड़े किरदार गहरे होते हैं। ये इंटरव्यूकर्ता पर निर्भर करता है कि वह सामने वाले से क्या-क्या निकलवा लेता है। इस परीक्षा में दीप भट्ट वाकई सफल होते हैं। उन्होंने हिंदी सिनेमा में गहरी पैठ बनाई है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इतने सारे मोती उलीचने के लिए वे कहां-कहां नहीं भटके होंगे। उनकी कोशिश सही मायनों में गहरे पानी पैठ उक्ति को चरितार्थ करती है।
इस रचना में उन्होंने सिनेमा के सभी पहलुओं को समेटने की कोशिश की है। विभिन्न साक्षात्कारों के जरिये उन्होंने लोकप्रिय सिनेमा, समानांतर सिनेमा, कला सिनेमा, नया सिनेमा आदि सभी पहलुओं की पड़ताल की है। इतना ही नहीं, व्यावसायिक फॉर्मूला से इतर जाने की भी पड़ताल की है। विजनरी सिनेकारों ने युवा समस्याओं को चित्रित किया, तो मंझे निर्देशकों ने व्यक्ति और समूह की भावनाओं को व्यवस्थागत कमजोरियों को अलग-अलग दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किया। प्रकारांतर से उन्होंने एक वृहद समुदाय के मर्म को स्पर्श किया।
इसके अलावा वे कला फिल्मों के आंदोलन की विफलता से लेकर हिंदी सिनेमा में आए बदलाव पर भी सार्थक चर्चा करते हैं।
दूसरी ओर उन्होंने सिनेमा के अन्य आयामों पर भी चर्चा की है। हिंदी सिनेमा के स्वर्ण युग के दौर में गीतों में जो पोयट्री होती थी, वह हमें छूती थी, उनमें मीनिंग होती थी क्योंकि फिल्में अर्थपूर्ण होती थीं। इसके पीछे एक साक्षात्कार में यह बात निकलकर सामने आती है कि एक तरफ पंजाब-सिंघ-बंगाल से आए लोग थे तो दूसरी तरफ यूपी से आए शायर। इस तरह इनका जो संगम हुआ, उसने भारतीय सिनेमा को एक नया तौर-तरीका दिया।
साथ ही उस दौर में कविता सरीखी मोहब्बत भरी दास्तानों वाली फिल्में आईं। सुमधुर संगीत और खूबसूरत शब्द रचनाओं ने बेमिसाल अद्भुत गीत दिए। गायकी में एक से बढ़कर एक गायक आए। उस दौर में हर गायक बेजोड़ था। उदासी को जैसे उन्होंने अपनी आवाज से अमर कर दिया हो। किसी अन्य साक्षात्कार में यह बात निकलकर सामने आती है कि जब साहित्य पर सिनेमा बना तो आंधी और मौसम जैसी सेल्यूलाइड पर लिखी कविताएं आई। उस दौर का हिंदुस्तानी समाज और उसकी संस्कृति का जीवंत और सुंदर रूप इन फिल्मों में झलकता है।
कहने का मतलब है, हर दौर में कला की दुनिया में बदलाव होता रहा। मनोरंजन ही नहीं, क्रमिक विकास के परिप्रेक्ष्य में वे इन तत्वों को भी रेखांकित करते हैं जो दरअसल इसकी अंडरटोन थी। एक साक्षात्कार में बात निकलकर आती है कि सच्ची कला वही है, जहां दर्शक का दिल पिघलकर आंखों से बहने लगे।
जानकार कहते हैं, यादगार फिल्म वही होगी, जो बड़े सामाजिक संदर्भ लिए हो और उसे गहराई से छूती हो। सिनेमा इनसानी दिमाग को झकझोरने का एक सशक्त माध्यम है।
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