सृष्टि चक्र की धारा में प्राणियों का उद्भव एवं विकास, राज्य, साम्राज्य, राजा, सम्राट एवं महाराजाधिराज के उत्थान एवं पतन का विवेचन ही इतिहास नहीं है, प्रत्युत् समाज, धर्म अर्थ एवं कला का अध्ययन भी इतिहास है। इतिहास अतीत एवं वर्तमान में चलने वाला अनवरत संवाद है जिसमें समाज का अनुशीलन उल्लेखनीय है। ऐतिहासिक घटनाएं समाज के अन्दर ही गतिशील होती हैं और उनका नेतृत्व करता है उन्नभ्र व्यक्तित्व। सामाजिक इतिहास में व्यक्ति का अनुचिन्तन अत्यन्त महत्वपूर्ण है, क्योंकि वही अपने व्यक्तित्व से समाज को विकसित करता है। 'व्यक्तित्व की भारतीय अवधारणा' आदर्शों, मूल्यों एवं प्रतिमानों का उद्बोधक है और इसी ने भारत की सांस्कृतिक एकता को वैदिक काल से आज तक अक्षुण्ण बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका उपस्थित की है। भारतीय इतिहासकार की अस्मिता अखण्ड भारत, विकसित भारत, कृषि प्रधान भारत एवं मूल्य प्रधान भारत की है और उन मूल्यों का प्रकाशन व्यक्तित्व के अनुसंधान में निहित है। आज समाज को आवश्यकता है श्रेष्ठ व्यक्तित्व की, एक ऐसे व्यक्तित्व की जिसमें आत्मा शरीर की सभी शक्तियों का स्वामी हो। प्रायः व्यक्ति आत्मा के रहते हुए भी शरीर से शरीर में खोया रहता है, दिन रात के कार्य-चक्र में उलझा स्वयं को विस्मृत किये रहता है, इधर-उधर में जीवन व्यतीत करता है किन्तु स्वयं को समझने और तत्वपरक दिशा की ओर उन्मुख होने का प्रयास नहीं करता। वस्तुतः व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ प्राणी होते हुए भी जटिल एवं बहुआयामी है और उसके अन्दर भौतिक तत्त्व, जीवन, चेतना, बुद्धि एवं दिव्य ज्योति के भिन्न-भिन्न तत्त्व विद्यमान हैं।
व्यक्तित्व का उद्भेदन संस्कृति है और संस्कृति का उद्भेदन इतिहास है। समाज का प्रेरक अभिमान जिस प्रकार संस्कृति है, व्यक्ति का अर्हतापरक अभिमान व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व व्यक्ति का प्रतिबिम्ब है जो निरन्तर परिवर्तनशील होते हुए भी मूल वृत्तियों से युक्त बना रहता है। व्यक्ति का शरीर ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है और वह नीचे, ऊपर एवं मध्य के सार से संचित है। मानव शरीर आद्यदेह है और देहों का आदर्श प्रकार है। व्यक्ति की कमेन्द्रियों में क्रिया की क्षमता है और ज्ञानेन्द्रियों में जगत् को जानने की शक्ति। इसी कारण कहा जाता है जो ब्रह्माण्ड में है वह पिण्ड में है, जो पिण्ड में है वह ब्रह्माण्ड में है। यथार्थतः व्यक्ति में जगत् का पूरा इतिहास छिपा है और विश्वाजीत विशुद्ध प्रकाश का बीज भी है। वह एक ही साथ विविध रूप है।
व्यक्ति विवेकशील एवं सामाजिक प्राणी है। सामाजिक इतिहास की श्रृंखला में व्यक्ति का स्थान है, क्योंकि समाज उसी से बनता है। व्यक्ति के बिना न तो समाज की कल्पना की जा सकती है और न ही समाज में आदर्शों, मूल्यों एवं प्रतिमानों की स्थापना संभव है। सांस्कृतिक मूल्यों से युक्त व्यक्तित्व ही इतिहास की धारा को परिवर्तित करने में महत्तम भूमिका युगों-युगों से उपस्थित करता रहा है। भारतीय इतिहास में चाहे जो समाज हो, चाहे जो राजवंश हो, चाहे जो युग हो, उसके विकास में मूल्यों का ही उल्लेखनीय योगदान है। चाहे देवासुर संग्राम को देखें, चाहे राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध का व्यक्तित्व, चाहे अशोक, समुद्रगुप्त या हर्षवर्द्धन को देखें, चाहे महात्मा गांधी, सभी के व्यक्तित्व में मूल्यों की स्थापना है। अद्यावधि भारतीय समाजशास्त्रियों अथवा सामाजिक इतिहासकारों का ध्यान इस ओर अधिक आकृष्ट नहीं हुआ। प्रसंगतः डी०के० नारायण ने 'हिन्दू कैरेक्टर', फिलिप ने 'हिन्दू कल्चर एण्ड सोसाएटी', पी०बी० काणे ने 'धर्मशास्त्र का इतिहास', पी०एच० प्रभु ने 'हिन्दू सोसल आर्गेनाइजेशन', सुब्बाराव ने 'पर्सनैलिटी ऑफ इण्डिया' में एतद्विषयक महत्वपूर्ण विवेचन किया है। इस धारा को सर्वपल्ली राधा कृष्णन् ने अपने विविध ग्रन्थों में और प्रो० गोविन्द चन्द्र पाण्डे ने 'मूल्य मीमांसा', 'भारतीय परम्परा के मूल स्वर' एवं 'फाउण्डेशन ऑफ इण्डियन कल्चर' में अपने मौलिक चिन्तन से नूतन दिशा दी और उस विचार को मैंने एतदृष्टि से आगे बढ़ाने का विनम्र प्रयत्न किया है। समाज की प्रेरणा के स्वरूप और सांस्कृतिक तत्त्वों के परिज्ञान के लिए व्यक्तित्व के के विभिन्न आदर्शों का परिज्ञान आवश्यक है।
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