काठी शब्द के कई अर्थ लिये जा सकते हैं। सर्वप्रथम तो काठी नृत्य करने वाले ' भगतों' के अनुसार यह एक देवी है। दूसरे अर्थ व्याख्याकारों, भाष्यकारों, टीकाकारों, लोकविदों, इतिहास परक अनुमान लगाने वालों के हैं। काठी लोकभाषा निमाड़ी, मालवी ही नहीं, कई अन्य भाषाओं में 'काष्ठ' का पर्याय है। निमाड़ी में आज भी पतली लकड़ियों को 'काठी' ही कहा जाता है। यह तो स्थूल और भाषागत अर्थ हुआ। काठी का अर्थ' काया' अथवा नश्वर देह भी है। मालवी में कबीर के एक पद में कहा भी गया है 'चार जणे माथो उठायो, बाँधी काठ की घोड़ी, ले जई ने मरघट में, फूँक दीनी जस होरी।' किन्तु निमाड़ अंचल में प्रचलित' काठी नामक लोकनाट्य-नृत्य-गान' का इस तरह का अर्थ नहीं है। कुछ लोग' काठी' को गुजरात के 'काठियावाड़' क्षेत्र की काठी जाति से संबंधित भी बताते हैं। निमाड़ी भाषा पर गुजराती भाषा और संस्कृति का गहरा प्रभाव है। निमाड़ की कई जातियाँ गुजरात से आई हुई बताई जाती हैं। निमाड़ी के कई गीतों में गुजरात के सौराष्ट्र को गहराई से याद भी किया जाता है। संजा लोक पर्व के एक गीत में कहा जाता है'चाँद गयो गुजरात की हिरनी का बड़ा बड़ा दाँत या गणगौर के एक गीत में कहा जाता है धारा काई रूप बखाणू हो रणुधाई, मीरठ देस सी आई हो रणुवाई' या एक अन्य गीत में 'कुण भाई जाने चाकरी कुण भाई जासे गढ़ गजरात रे' इतने उदाहरणों से भी स्पष्ट होता है कि गुजरात का निमाड़ से निश्चित ही कोई गहरा सरोकार है। अतः हो सकता है कि काठी का काठियावाड़ से कोई नाता रहा हो। काठी के नर्तक अपने आप को भगत कहते हैं। इन कई भगतों का सर्वेक्षण करने पर काठी विषयक अलग-अलग जानकारी प्रास होती है। मसलन बाबरा बनवारी एवं राजेश, ग्राम-गूजरवड़गाँव तहसील खंडवा का कहना है कि काठी माता, शंकर भोलेनाथ का बाना है, जिसे वे ग्यारस खोपड़ी अर्थात् देवप्रबोधिनी एकादशी से विधि-विधान पूर्वक पूजन कर उठाते हैं और पूरे साढ़े तीन माह तक गाँव-गाँव लेकर जाते हैं। इन साढ़े तीन माह में कभी भी काठी नर्तकों का पूरा समूह अपने घर नहीं लौटता है। हाँ, जब भिक्षात्र ज्यादा हो जाता है, उसे रखने के लिए दल का कोई एक सदस्य घर तक जाता है और रखकर वापस आ जाता है। काठी नर्तकों का दल साढ़े आठ माह घर पर रहता है और अपने दैनंदिनी के कार्य सम्पन्न करता है। काठी नर्तक अपना 'बाना' पड़वां (प्रथमा तिथि) के दिन या अमावस के दिन किसी शिवालय में उतारते हैं। यह स्थान पचमढ़ी, ओंकारेश्वर, सिद्धनाथ मंदिर नेमावर, मकड़ाई या चारुवा का गुप्तेश्वर महादेव मंदिर हो सकता है। जिस नर्तक दल को जहाँ भी सुविधा हो, वह वहाँ जाता है।
काठी उठाने वाले दल के सदस्य भगत कहलाते हैं। जो व्यक्ति काठी उठाकर चलता है, उसे 'काठी धर्मा' तथा दूसरा जो थाली बजाता है, उसे 'बाटकी वाला' कहा जाता है। दो भगत 'बाना' चढ़ाते हैं। यह बाना गहरे लाल रंग के मोटे कपड़े से बना होता है, ऊपर से एक कुर्ते की तरह और नीचे से घाघरे के समान होता है। इस परिधान पर सफेद कपड़े से छोटे-छोटे चाँद सितारे बने होते हैं। काठी गायक कमर में एक कपड़ा भी बाँधे होते हैं। नाचने वाले भगत अपने हाथों में ' ढाक' नामक वाद्य बजाते हैं।
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