प्रस्तावना
उपनिषद हमारी अमूल्य विरासत है। प्राचीन ऋषि-मुनियों के आत्मानुभव की झलक उसमें प्रतिबिंबित होती है। वह ब्रह्मविद्या अर्थात् आत्मविद्या का ग्रंथ है। आर्षद्रष्टा ऋषियों की प्रतिभा वहां शब्ददेह में प्रगट हुई है। वहां ऋषियों ने हमारे समक्ष आत्मिक ज्ञान का खजाना खोलकर रख दिया है। उस खजाने में अनमोल शब्दरत्न भरे पडे हैं। वे शब्द मधुर भी हैं, गंभीर भी हैं। उनका माधुर्य हमें खींचता है, उनका गांभीर्य हमें भीतर गोता लगाने को प्रेरित करता है। उपनिषद ब्रह्मविद्या का ग्रंथ है। उपनिषदों ने ब्रह्म का तरह-तरह से वर्णन किया है। परस्पर विरोधी विशेषणों में भी उसका वर्णन पाया जाता है और नेति... नेति - 'यह नहीं, वह नहीं' के निष्कर्ष पर आकर उपनिषद मौन हो गये हैं। अर्थात् ब्रह्म को शब्द द्वारा नहीं समझ सकते हैं, न समझा सकते हैं। शब्द द्वारा अशब्द का आविष्कार करने का वह ग्रंथ है। शब्द जब अशब्द में लीन होता है तब अनुभव का दालान खुलता है। जिस किसी ने ब्रह्म को जाना-समझा, वह अनुभव की भूमिका पर ही जाना समझा। इस संबंध में विनोबाजी कहते हैं, "मेरी दृष्टि में उपनिषद पुस्तक है ही नहीं। वह तो एक प्रातिभदर्शन है। उस दर्शन को यद्यपि यहां शब्दों में अंकित करने का प्रयत्न किया गया है, फिर भी शब्दों के कदम लडखडा गये हैं। परंतु निष्ठा के चिह्न उभरे हैं। उस निष्ठा को हृदय में भरकर, शब्दों की सहायता से शब्दों को दूर हटाकर अनुभव लिया जाये तभी उपनिषदों का बोध हो सकता है।" अर्थात् शब्दों की सहायता से अशब्द को आत्मसात् करने का यह दर्शन है। उपनिषद खुद कहता है शब्देनैव अशब्दं आविष्क्रियते। तत्त्वज्ञान का यह कोई पांडित्यपूर्ण ग्रंथ नहीं है, किंतु ऋषि-मुनियों की आंतरिक अनुभूति के सहजस्फुर्त उद्गार हैं। इन उद्गारों को हम 'आत्मा का काव्य' कह सकते हैं। आत्मा के इस काव्य को समझने के लिए आंतर्चक्षु खुलने चाहिए। तभी उसका रहस्य खुलेगा। कठोपनिषद कहता है कश्चित् धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत् आवृत्तचक्षुः अमृतत्वमिच्छन् । आवृत्तचक्षु हुए बिना रहस्य खुलेगा नहीं, यह बात तो सही है। किंतु आवृत्तचक्षु होने के लिए प्रेरणा भी उपनिषद्सदृश वचनों से ही तो मिलेगी। मानवमात्र के हृदय में अमृतत्व की चाह संजोयी हुई रहती है। उपनिषद की धीर-गंभीर प्रसन्न गिरा में हमें वह चाह प्रतिध्वनित होती सुनायी देती है। उपनिषद हमें स्पष्ट शब्दों में कहता है कि तुम सामान्य मर्त्य मानव नहीं हो। तुम तो अमृतस्य पुत्र हो। अमृतत्व का साक्षात्कार करने की सामर्थ्य मानब के हृदय में छिपी है। उस बीज को खाद-पानी देकर संतुष्ट करने का काम उपनिषद करती है। असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर् गमय, मृत्योर् मा अमृतं गमय के साधनापथ का निर्देश कर उपनिषद हमें स्थूल में से सूक्ष्म जगत की ओर ले जाती है। वह हमें सत्य के साम्राज्य में, ज्योतिर्मय आलोक में और अमृतत्व के गर्भागार में प्रस्थापित करना चाहता है। अरण्य की निश्चल शांति में उपनिषदों का उद्भव हुआ। इसलिए उपनिषदों को आरण्यक भी कहते हैं। उपनिषदों में हमें अरण्य की उन्मुक्तता, अरण्य की विविधता, अरण्य की निगूढता का स्पर्श देखने को मिलता है। भारतीय संस्कृति का वह उद्गमस्थान है। उस संस्कृति के मूल में है, ऋषियों का सादा, संयमी, चिंतन-मननयुक्त जीवन। ऋषि हुए शिष्य के चित्त में स्वाध्याय प्रवचन के बीज बोये जाते थे। आत्या वा असे इशल्यः श्रोतव्यः मंतव्यः के उपनिषदीय संदेश को आत्मसात् करने की दृष्टि से, जीवन की हर कृति को ऋषि स्वाध्याय प्रवचन से युक्त बताते थे। उपनिषद का मुख्य उपदेश है ब्रह्मविद्या, आत्मविद्या। उस आत्मबिंद्या की प्राप्ति का स्वाध्याय-प्रवचन महत्त्व का अंग माना जाता था। अब स्वाध्याय यानी सिर्फ ग्रंथ का अभ्यास नहीं। स्वाध्याय यानी स्वरूप का अध्ययन। अभ्यास बौद्धिक प्रक्रिया है, स्वाध्याय आत्मिक। आत्मतत्त्व की, कोऽहम् की पहचान के लिए स्वाध्याय। 'मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, मेरा सच्चा स्वरूप क्या है', ऐसी जिज्ञासा जाग्रत नहीं होती तब तक स्वाध्याय में प्रवेश नहीं होता। उपनिषद हमें ऐसे स्वाध्याय की प्रेरणा देता है। स्वाध्याय का ग्रंथ बनने की पूरी योग्यता उपनिषदों में निहित है। वह हममें आत्मदर्शन की जिज्ञासा जाग्रत करता है और उस दिशा में आगे बढने के लिए पथप्रदर्शन भी करता है। वैसे तो उपनिषद अनेक हैं। वह एक काल या एक ऋषि की कृति नहीं है। सैकडों साल तक उनकी परंपरा चली है। सबसे प्राचीन उपनिषद और अर्वाचीन उपनिषद, इनमें पांच-सात सौ साल का अंतर माना जाता है। भिन्न-भिन्न ऋषियों को, भिन्न-भिन्न काल में, भिन्न-भिन्न अनुभूति आयी। अपनी-अपनी उस अनुभूति को ऋषि ने शब्दों में प्रकट करने का प्रयास किया। वैसे उसे प्रयास ही कह सकते हैं, क्योंकि आंतरिक अनुभूति का वर्णन करने में शब्द अधूरे साबित होते हैं। तो उपनिषद है भिन्न-भिन्न काल के, भिन्न-भिन्न ऋषियों की, भिन्न-भिन्न अनुभूतियों का एकत्र संग्रह। वहां शब्द नहीं, अनुभूति बोलती है।
"पुस्तक परिचय
उपनिषदों की महिमा अनेकों ने गायी है। कवि ने कहा है कि हिमालय जैसा पर्वत नहीं और उपनिषदों जैसी पुस्तक नहीं है। परंतु मेरी दृष्टि में उपनिषद पुस्तक है ही नहीं; वह तो एक प्रातिभ-दर्शन है। उस दर्शन को यद्यपि शब्दों में अंकित करने का प्रयत्न किया गया है, फिर भी शब्द लड़खड़ा गये हैं। परंतु निष्ठा जरूर प्रकट हुई है। उस निष्ठा को हृदय में भरकर, शब्दों की सहायता से शब्दों को दूर हटाकर अनुभव लिया जाये तभी उपनिषदों का बोध होता है।
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