मगर ऋषि कपूर इससे कहीं ज्यादा थे, और है। हिंदी सिनेमा में कम ही अभिनेता हैं जिन्होंने इतने विविध किरदार निभाए होः मेरा नाम जोकर (1970) के अपनी अध्यापिका पर आसक्त नवयुवक से लेकर कपूर एंड संस (2016) के नटखट नब्बे-वर्षीय बुजुर्ग तक। त्रऋषि कपूर ने दर्शकों को लगभग पचास वर्षों तक बहलाया है। अपनी पहली फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, और बतौर हीरो अपने पहले किरदार (बाँवी, 1973) ने उन्हें रातोंरात स्टार बना दिया। क्रोध और असंतोष के सिनेमा के दौर में उन्होंने रूमानी हीरो के रूप में अपनी जगह बनायी और एक के बाद एक हिट फिल्में दी। उन पर फिल्माए गाने आज भी रेडियो पर हम दिन-रात सुनते हैं। फिर, एक संक्षिप्त अंतराल के बाद, शुरू हुई उनकी अभिनय में दूसरी पारी, जिसमें उन्होंने दो दूनी चार, अग्निपथ, कपूर एंड सन्स इत्यादि फिल्मों के ज़रिये अपने आप को हिंदी सिनेमा के सबसे बेहतरीन अभिनेताओं की फेहरिस्त में पुनः स्थापित किया।
उनके स्वाभाविक खुलेपन और बेबाकपन से भरपूर, खुल्लम खुल्ला ऋऋषि कपूर के जीवन का एक अत्यंत ही करीबी और निजी बयान है, जिसमें किस्से हैं एक प्रसिद्ध पिता की छाया में बड़े होने के, स्कूल से छुट्टी लेकर मेरा नाम जोकर की शूटिंग पर जाने के, अपनी हिरोइनों के, अपनी कला के, डिप्रेशन का शिकार होने के, दाऊद इब्राहिम से मुलाकात के, और खूब सारे और - खुल्लम खुल्ला भारतीय सिनेमा जगत के एक नायाब सितारे की दिल से लिखी गयी, दिल को छू जाने वाली जीवनी है।
ऋषि कपूर भारत के सबसे जाने-माने फिल्म कलाकारों में से एक हैं। उनका प्रथम अभिनय बचपन में उनके पिता राज कपूर द्वारा निर्देशित मेरा नाम जोकर फिल्म में हुआ, इसके लिए ऋषि कपूर को नेशनल अवार्ड से सम्मानित किया गया। उनकी पहली मुख्य भूमिका फिल्म बॉबी में थी, जिसने युवा प्रेम कथा का रूप ही बदल दिया। इसके बाद उन्होंने कई सारी हिट फिल्में कीं, जैसे खेल खेल में, लैला मजनूं, हम किसी से कम नहीं, सरगम और कर्ज। वे अमिताभ बच्चन के साथ उस दशक की सबसे यादगार फ़िल्मों में नज़र आये, जैसे कभी-कभी, अमर अकबर एन्थोनी, नसीब और कुली। पिछले दशक में उन्होंने अलग-अलग चरित्र में बेहतरीन अभिनय किये हैं- एक मध्यम वर्ग स्कूलमास्टर की भूमिका दो दूनी चार में, एक खतरनाक डॉन डी-डे में, एक दलाल अग्निपथ में और एक जिन्दादिल दादा जी कपूर एंड संस में उनके यौवन के 'चॉकलेट बॉय' भूमिका से बिलकुल हट के। मीना अय्यर 'द टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' में सीनियर एडिटर और फ़िल्म आलोचक थीं। उन्होंने 34 वर्ष मीडिया में काम किया है और कपूर खानदान को गौर से देखा और समझा है।
आज में चौतीस वर्ष का हो चला हूँ। जब में पिता के साथ आज अपने रिश्ते का विश्लेषण करता हूँ, तो मुझे लगता है कि उनका मुझे और मेरी बहन रिद्धिमा को दिया गया सबसे मूल्यवान उपहार यह है कि हम अपनी माँ को बिना शर्त एवं चूँ-चपड़ किये बिना, प्यार कर सके। उन्होंने हमारे समक्ष एक मिसाल रखी जिससे हमें अहसास हो सका कि हमारी माँ ही हम सबके जीवन की, हमारे घर-परिवार की धुरी रही हैं। उनके रहते जीवन की किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति की आग हमे स्पर्श नहीं कर सकी, क्योंकि उनका सम्बल हमारी स्थायी पूँजी था। वे हमारा सुरक्षा कवच हैं।
उनका दिया दूसरा उपहार है, उनका मेरी माँ का एक अनुपम पति होना। सामान्य दम्पतियों के समान, उन दोनों में भी परस्पर तकरार और झगड़े होते, वे रूठते और खीजते भी, पर वे मेरी माँ से सचमुच प्रगाढ़ प्रेम करते हैं। उन्होंने मेरी माँ को असीम आदर और प्यार दिया, उनका निरन्तर ध्यान रखा, उनकी परवाह की। हम भाई-बहन के लिए यह अत्यधिक महत्त्व रखता है। हम देखते हैं कि वे एक-दूसरे के साथ किस प्रकार अटूट स्नेह सूत्र से जुड़े हैं, उनकी आपसी समझ, परस्पर बातचीत करने के तरीकों और व्यवहार ने हमें बचपन में ही प्यार, मानवीय व्यवहार और उसके महत्त्व का पाठ स्वतः ही सिखा दिया। उनके परस्पर प्यार और आदर की भावना से मैं इतना अभिभूत हूँ कि उसे शब्दों में अभिव्यक्त करना मेरे लिए असम्भव है।
तीसरी बात जो मैंने अपने पिता से सीखी, वह है अपने काम के प्रति पूर्ण समर्पण। सन् 2006-07 में जब मैंने अभिनय संसार में कदम रखा, तब में अपने माता-पिता के साथ ही रहता था। में रोज सुबह उन्हें शूटिंग के लिए तैयार होते देखता। में पाता कि फिल्म उद्योग में बरसों बरस काम करने के बाद भी उनके उत्साह, अपनी अभिनय कुशलता को बेहतर करने की इच्छा, अपनी भूमिका के लिए विशेष पोशाक चुनने और उसकी छोटी-से-छोटी बारीकी पर ध्यान देने की आदत में जरा भी कमी नहीं आयी थी। वही उनका स्वभाव था- हर काम में पूर्णता उनका लक्ष्य था, वे उसी भावना से संचालित होते और उनके इसी जज्बे की में दिल से सराहना करता हूँ। आज पीछे मुड़कर देखने पर में पाता हूँ कि शायद अपने प्रारम्भिक बीस वर्षों में उन्होंने कमोबेश एक समान चरित्र भले ही अभिनीत किये हैं, परन्तु अपने दूसरे दौर में अपनी क्षमताओं को पुनराविष्कृत करने के लिए उन्होंने कठोर परिश्रम किया है। अपनी भूमिकाओं के निर्वहन में विविधता लाने के लिए उन्होंने नये-नये प्रयोग करना प्रारम्भ किया। मैंने पाया कि उन्होंने अपने काम में आनन्द लेना शुरू कर दिया और अपनी भूमिकाओं के प्रति बच्चों जैसा उत्साह और स्वच्छन्द रवैया अपना लिया। और यह सब अभिनय के प्रति उनकी लगन से ही संचालित है, उनका अन्तिम लक्ष्य अपनी भूमिका के प्रति पूर्ण न्याय करना है। उनकी लम्बी पारी और उनके इस उद्योग में सम्मानपूर्वक टिके रहने का शायद यही राज़ भी है। जहाँ तक अपने पिता से मेरे व्यक्तिगत रिश्ते का प्रश्न है, मेरे लिए यह पूर्ण आदर का रिश्ता है। में अपनी माँ के अधिक करीब हूँ। मुझे लगता है कि मेरे पिता ने अपने पिता को पिता रूप में आदर्श माना और हमारा रिश्ता उनके अपने पिता के साथ के रिश्ते से प्रभावित रहा। यह सच है कि उनके साथ में एक विशेष लक्ष्मण रेखा को कभी पार नहीं कर पाया, पर मुझे इस रिश्ते में कोई कमी या खालीपन भी कभी नहीं लगा। हाँ, यह जरूर लगा कि काश हमारे बीच और अधिक मित्रता और घनिष्ठता होती या मैं उनके साथ कुछ और अधिक समय बिता पाता। कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है कि काश में भी कभी यूँ ही फोन उठाता और उनसे पूछ पाता कि वे कैसे हैं। पर हमारे बीच ऐसा नहीं है, हमारे बीच फोन पर बातचीत नहीं होती।
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