पुस्तक परिचय
'कुछ भी' एक दिलचस्प और बहुमुखी विषय है जो रचनाओं के विभिन्न संदभों को दशनि के लिए उपयोग में लाया गया है। दो शब्दों के लिए, यह वाक्यांश अनिश्चितता, अज्ञातता, या अस्पष्टता को प्रदर्शित करने के लिए उपयोग किया गया है। रचनाओं का संदर्भ कुछ भी हो सकता है, कुछ नहीं भी हो सकता है, जो पाठकों को जीवन की अनिश्चितताओं की याद दिलाता है, जहां कुछ भी निश्चित नहीं होता है। जीवन में अनिश्चितताएं अक्सर परेशान करती हैं, लेकिन यही अनिश्चितताएं नए अवसरों और अनुभवों की ओर भी ले जाती हैं। रचनाएं इसी अनिश्चितता को दर्शाती हैं और पाठकों को जीवन की जटिलताओं और विविधताओं की याद दिलाती हैं। विभिन्न भावनाओं का अवलोकन कराती हैं और उदासीनता, अनिच्छा, या फिर उत्साह या संभावना जैसी स्थितियों का मिश्रण एक ही स्थान पर महसूस कराती हैं। इन रचनाओं का शब्द मंडल जीवन की गहराइयों में जाने और अपने विचारों और भावनाओं को समझने के लिए प्रोत्साहित करता है। ये शब्दों के झुंड जीवन की गहराइयों की थाह पाने के लिए उन विचारों और भावनाओं को समझने के लिए भी प्रोत्साहित करने में सक्षम हैं। भाषा के मामले में, सभी रचनाएं बहुत ही आसान शब्दों का संग्रह हैं जो आम बोलचाल में प्रयोग में लाए जाते हैं। लेकिन इसकी एक विशेष बात है कि आप जितनी बार उन्हें पढ़ेंगे, आपको उनके अर्थ बदलते नजर आ सकते हैं। यही विशेषता उनको मुख्य विषय 'कुछ भी' के करीब लाती है। यह विषय किसी को भी नए दृष्टिकोण से सोचने और जीवन को समझने के लिए विशेष रूप से प्रेरित करता है।
लेखक परिचय
नाम चन्द्र मोहन माता : स्व. श्रीमती सत्या बस्सी पिता स्व. श्री शिवराज कुमार बस्सी जन्म : 1956 (करतारपुर, जिला-जलंधर, पंजाब) शिक्षाः 1. वाणिज्य स्नातक, दिल्ली विश्वविद्यालय। 2. कार्मिक प्रबंधन और औद्योगिक संबंध में डिप्लोमा, वाई, एम. सी. ए., नई दिल्ली। प्रकाशित पुस्तक - बातचीत (काव्य संग्रह) कार्यक्षेत्र : 1. दिल्ली राज्य औद्योगिक विकास निगम (1974-75) 2. दिल्ली पर्यटन एवम् परिवहनन् विकास निगम, नई दिल्ली। (1975-2016) यहां कुल 42 वर्षों की कर्म भूमि की यात्रा में विभिन्न पदों पर रहते हुए विविध कार्यक्षेत्रों को निभाने का संयोग प्राप्त हुआ। समावेशी वातावरण में विभिन्न दृष्टि कोणों को समझने और अपनाने का भी मौका मिला। जिससे सृजनात्मकता और नवाचार को बढ़ावा मिला, और वास्तविक जीवन की समस्याओं और समाधान खोजने की जरूरत आदत बन गई। सेवा भार से मुक्त हो कर जीवन में बहुआयामी बदलाव हुए और फिर कलम ने हरे कागज को छोड़ कर सफेद कागज का दामन पकड़ लिया। देखते ही देखते शब्द बोलने लगे और पुस्तकें सृजित होने लगीं।
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